'बड़-भाग से आता है। '
Friday, December 11, 2020
'बड़-भाग से आता है।
Thursday, December 3, 2020
मुक्त हुए
Sunday, November 29, 2020
#पुस्तक_समीक्षा
मलय शंकर is with Rakesh Tewari.
#पुस्तक_समीक्षा
#पवन_ऐसा_डोलै
'रश्मि प्रकाशन' लखनऊ द्वारा 2018 मे मुद्रित पुस्तक ‘"पवन ऐसा डोलै...‘" RakeshTewari जी का संस्मरण है या कहें जीवन की 35 वर्षों की अनवरत यात्रा का पुराविद द्वारा परत दर परत उत्खनन है।
वहीं ""सफर एक डोंगी मे डगमग"' के जीवट सृजनहार डां राकेश तिवारी।
विन्ध्य के पठारों, वनों, कन्दराओं और झरनों के संगीत-सौन्दर्य-रोमांच ने लेखक को ऐसा सम्मोहित किया कि वह अपनी तरूणाई से लेकर 35 वर्षों की जीवन यात्रा मे घूम घूम कर यही आते रहे।
पुस्तक लेखक द्वारा बीस बरस की उमर में की गयी विंध्य-क्षेत्र की पहली यात्रा वृत्तांत से शुरू हो और लगभग अगले चार दशकों तक विंध्य क्षेत्र के आकर्षण मे डूबे एक पुराविद की प्रेम गाथा है।
इस पुस्तक मे बेयर ग्रिल्स के थ्रिल्स, एक पुराविद का आत्कथ्य या उत्खनन डायरी, एक मन मौज की आनंद की खोज सब कुछ समाहित है।
पुस्तक लेखक की यात्रा आदिम शैलाश्रयों से शुरू हो, उत्खनन से बाहर आये नये तथ्यों से स्थापित मानदंडों को चुनौती और सभ्यता के व्यतिक्रम से इतिहास के संरक्षण के संघर्ष का दस्तावेज है। साथ चलती है जतन से पिरोयी लोरिक चंदा, नल दमयंती, भरथरी और आल्हा उदल की दंतकथा, लोककथा, पुराण कथाओं के साथ प्राचीन शिलालेख, प्रस्तर खंडो और उनका संबंध। लोक गीत, कबीर , तुलसी का यथा स्थान प्रयोग रचना को सुरुचिपूर्ण बनाता है।
डां साहब ने अवधी, बनारसी, बैसवारे और पूर्वांचली बोलियों के संवादो का प्रयोग करने मे कोई दुराग्रह नहीं रखा है। देशज शब्दों का सुंदर प्रयोग इस पुस्तक के प्रसार मे भले ही बाधक हो लेकिन निशाखातिर रहीये भाषा प्रवाह मे आप बह चलेंगे। आदरणीय अमृत लाल नागर के स्नेहपात्र रहे डां साहब के लेखन मे उनके वरदहस्त की अनभूति अवश्य महसूस करेंगे।
पुरातत्व जैसा विषय को इतने शानदार ठंग से प्रस्तुति किया जा सकता है।पाठक यह पढ कर ही समझ सकते है।
कार्यस्थल पर तेदुए, जंगली बराह, नील गाय आदि से मुठभेड़, नक्सली प्रकोप, असन्न घटनाओं की अनभूति का बहुत ही रोचक वर्णन है।
एक व्यक्ति का कार्य के प्रति उसका अनुराग और निष्ठा हर पृष्ठ पर देखने को मिलेगी, कैसा बिना भोजन भूखे रह कर, जंगल और कंदराओं मे रात्रि विश्राम, मीलों पैदल यात्रा, पगडंडियों पर साइकिल भ्रमण, शैल चित्रों के लिए खतरनाक पहाड़ीयो का मर्दन, एक एक मूर्ति मंदिर चित्र शिला प्रस्तर खंड का स्वयं अवलोकन। आप अनभूति करेंगे लेखक की निष्ठा और मेहनत देख जैसे इतिहास ने स्वयं ही इनके समक्ष अनावृत होने के लिए प्रस्तुत किया है।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ उद्दहरण
तनिक सोच कर देखिए हम इस जीवन में पाना क्या चाहते हैं केवल और केवल मन की शांति । ‘‘कैसा उल्टा खेल चल रहा है, एक असंतुष्ट, असभ्य व्यवस्था परम संतुष्ट वनवासियों को सभ्य बनाने चली है।"
नदी के बहते पानी जैसी होती हैं संस्कृति। नदियां सदैव गतिमान प्रभावित रहती हैं। नए शुद्ध जल से परिपूर्ण नए नए रंग बदल कर आगे बढ़ती हुई। उसी तरह संस्कृतियों का प्रवाह भी चलता है नए जमाने, परिस्थितियों और आबोहवा के साथ नए चलन और जरूरतों के हिसाब से नए रूप धरता हुआ।
‘‘डगर, कु-डगर, बे-डगर डोलने-भटकने ... क्या पाने चले, किस दिशा में, क्या पाये, कहाँ पहुँचेंगे, क्या चाहा, नियति कहाँ ले आयी, अब किधर ले जाएगी? हर्ष-राग-विषाद के एक गुम्फन से निकलते दूजे में उलझ जाते।‘
Tuesday, November 24, 2020
पुरखों की भूम
Friday, November 20, 2020
मौजों पे बहा करती है।'
मौजों पे बहा करती है।'
Wednesday, November 18, 2020
दरिया का पानी
Monday, November 2, 2020
'सिद्धार्थ बुद्ध हो गए'
बार बार अपनी ही ओर इंगित करते झुकते रहे।
Friday, October 30, 2020
फैसले:
फैसले:
कभी दिमाग, कभी विवेक और कभी दिल से, कभी दिल और दिमाग, कभी दिमाग और विवेक, कभी विवेक और दिल, कभी कभी तीनों के सुसंयोग से होते हैं।
Thursday, October 29, 2020
बेरहम
बेमशरफ़ दुनिया की सैर कराता है !
जब कहीं जाने को, बेचैन रहें हरदम,
बाँध कर खूंटे से कैदी बना देता है।
Wednesday, October 21, 2020
चश्मा
खड़ी दुपहरी में लगै निशा घेरि मुस्काय !!
Wednesday, September 30, 2020
"गुरुकुल"
'कविता मैराथन'
प्रो० अजय सिंह जी, निदेशक, भारत कला भवन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने कविता मैराथन में नामित किया प्रिय सुभाष जी को और उन्होंने स्नेहवश मुझे नामित किया है आठ दिन तक प्रतिदिन अपनी एक कविता के साथ ही किसी एक कवि को नामित भी करने हेतु। इसी बहाने सुभाष जी ने मुझे भी गुरुकुल के प्रारम्भिक दिन याद दिला दिए हैं। उन्ही की कविता के शीर्षक से जो सूझा जल्दी से लिख रहा हूँ उन्हें ही समर्पित करते हुए। इस कड़ी को आगे बढ़ाने हेतु अग्रज श्री नरेंद्र नीरव जी Narendra Neerav से सादर निवेदन कर रहा हूँ.............
"गुरुकुल"
उस दर पर,
पहुँच जाता हूँ
उन्हीं पलों में !
अभी अभी कदम धरे हों
जैसे परिसर में।
पहली बार कौतूहल भरे।
अनजान आकर्षक,
आँखों में कौतुक लिए।
नए नए चेहरे,
भवन, बरामदे, नई दुनिया,
नए क्लास रूम की गमक में।
दोनों किनारों पर,
झुक कर,
हरियाला चंदोवा तानते,
गाछों की कतार के
नीचे से बढ़ती
सुथरी सड़कों पर
उफनाते तरंगित
तैरते हुए नित,
नए युवा प्रवाह में।
बहुत बहुत प्यारा
बसा हुआ
आशाओं में, सपनों में।
अपने आप में खोया,
कम ही लोगों से मिलना,
बात करना,
चुपचाप देखा करना
खेल के मैदान,
माउंटेनरिन्ग वाली बिल्डिंग,
पढता, युनिवर्सिटी गेट के
पहले खम्भे पर,
गत्ते पर चस्पा काग़ज़ पर,
हाथ से लिखी,
नरेंद्र नीरव् की नयी कविता।
रमता महुआती बयार में ।
चंचल, मोहन प्रकाश के
ललकारते भाषण,
सम्पूर्ण क्रान्ति के नारे,
बाढ़ के पानी की तरह,
बढ़ते आंदोलनकारी स्टूडेंट्स के
गजगजाते हुजूम।
हॉस्टल वाले पहलवान,
बिराल-ब्रोचा चौमुहानी पर
चिनिया बादाम की दूकान,
सब कुछ वैसा ही तो है,
कुछ नहीं बदला,
वहीँ ठहरा हुआ वो दर।
क्लास रूम, बरामदे,
सीढ़ियां, पोर्च, लॉन ,
ताड़ के ऊंचे सतर पेड़ों के
सफ़ेद चिक्कन गोल,
तनों पर कुरेदे
नाम-निशनों पर,
सब कहीं पसरे हुए
वही पल।
वैसे ही जवां दिल,
उत्साह और जीवन से लबरेज़,
और भी बहुत कुछ दिखता,
जस का तस।
चारों ओर विचरते,
मंदिर परिसर में बैठे,
हँसते बोलते झगड़ते,
अपने ही समय के
अनजाने बैचमेट
जैसे दीखते,
आस पास से गुज़रते,
नाम भले ही न जाने,
उन्हीं जैसे तो लगते।
पहचाने पहचाने से
अगल बगल की
फैकल्टी के।
चार दशक से भी
ज्यादा लंबा काल खंड,
सिमट कर फिर से
उन्हीं पलों में,
टिंघुरता।
आहिस्ता आहिस्ता
गलियारों और परिसर में।
धीमे से घुस कर
क्लास रूम में,
पिछली सीटों पर बैठे,
सबके बीच में छुपे।
अनकुस लगता है, जब
आदर से ही सही, कोई
अगली सीट खाली कर
वहीँ बैठने को कहता है।
और भी अखरता है,
जब कोई कहता है
चालीस बरस से ज्यादा बीते
इसी क्लास में पढ़ते थे,
ये हासिल किया ये ये पाया।
नहीं मालूम उन्हें,
किस परमसुख में,
खोंचा मार देते हैं।
पुराने मित्र,
आज के वरिष्ठ गुरुजन,
नहीं समझ पाते हैं, जब
अपने शिष्यों से
बहुत सीनियर बता कर,
पैर छूने को कहते,
और वे सम्मानपूर्वक
झुक जाते हैं पांवों में।
गुरुता के ऊंचे पेडस्टल
पर खड़ा करके,
कितना छितरा देते हैं,
पल भर में।
काश ! उस दर पर,
अजनबी ही रह सकें,
कोई ना पहचाने
मुझे या मैं उन्हें
एक दूसरे के बारे में
कुछ भी न पता हो हमें,
फिर-फिर जी सकूं,
उसी दर पर,
उन्हीं बहुत प्यारे,
ताज़ा तरीन पलों में,
रचे बसे उन्हीं भावों में,
मदहोशी भरे आलम में।
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Wednesday, September 16, 2020
' एक आमफ़हम'
'एक आमफ़हम'
Monday, August 10, 2020
'बहुत बिरले'
09.08.20
कितने अलग-अलग,
होते हैं हम,
अपने ही भीतर-बाहर !
कितने अलग-समान,
दीखते हैं हम,
बाहर-बाहर।
कभी खुद का ही,
असल चेहरा नहीं,
पाते देख समझ।
अपने ही बनाए,
छद्म जालों के,
जाल में फंस कर।
सामन्यतः जो हम
अंदर होते हैं
वैसे ही बाहर।
कभी बाहर दिखाते
कुछ और, चेहरा
दिखाता है कुछ और।
कभी अभिनय कर,
छुपा लेते हैं,
अंदर के भाव।
भीतर का रुदन,
आनद, कूट, इरादा,
असल, सब कुछ।
आत्मचिंतन से,
देख सकते हैं,
अपने को बेहतर ।
मगर वैसे ही
सबके सामने नहीं
आते अनावृत्त।
ऐसा नहीं कि,
छुपाना ही
होता है मकसद।
हमेशा अंदर जैसे
ही नहीं दिख,
सकते बाहर।
बहुत ज़रूरी हैं,
दीगर रंगों, और
चलन के आवरण।
सलीके से रंगे,
विवेक से बुने,
सुन्दर आवरण।
बिरले ही होंगे,
असाधारण,
वर्जनाओं से पार।
प्राकृत, निर्मल,
जैसे भी हों,
अंदर बाहर समान।
बहुत बिरले होंगे,
जो अंदर बाहर
असल देख कर।
सब ताक पर,
रख कर,
गह सकें साथ।
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Friday, July 31, 2020
मोरी कागज़ की नाव !
Sunday, July 19, 2020
'झिरिर झिरिर झिरियाय ===='
आय झिरिर झिरिर झिरियाय गयो रे!!
आय सावन में झुलना, झुलाय गयो रे !!!
इस रचना पर पसन्दगी जताने, दिल लुटाने और इसकी सराहना करने वालों को हार्दिक धन्यवाद; इसे जन्मने वाली धरित्री, ऋतू, मोहक सौंदर्य और भावों को सादर, सस्नेह प्रणाम !! 😀🙏🙏♥️♥️🙏🙏
Friday, July 10, 2020
'लहरों पे बहके से बेड़े लगे।'
@ (c) Rakesh Tewari
Sunday, May 10, 2020
'मत कहिए'
ये आप ने,
ये मत कहिए।
चलती हैं,
ये मत कहिए।
उगलती है,
ये मत कहिए।
भौहें तनती हैं
ये मत कहिए।
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Friday, April 10, 2020
'निम्बिया गइल हरियाय !'
लागी कोमल कोपलिया, निम्बिया में !
मोरी निम्बिया में, मोरी निम्बिया में।
मोरी निम्बिया गइल हरियाय !!
कूजै चिरई लुकान मोरी निम्बिया में !
मोरी निम्बिया में, मोरी निम्बिया में।
मोरी निम्बिया गइल हरियाय !!
मोर जियरा जुड़ाय, मोरी निम्बिया में !
मोरी निम्बिया में, मोरी निम्बिया में।
मोरी निम्बिया गइल हरियाय !!
आवा तोके दुलराइ, एही निम्बिया में !
मोरी निम्बिया में, मोरी निम्बिया में।
मोरी निम्बिया गइल हरियाय !!
Wednesday, April 1, 2020
यूं ही, 'चला जाएगा'
एक ही. तो है,
अपना अंतर्मन।
और वह भी,
बेलाग बहा जाता है।
कभी यहाँ, कभी वहां,
बहकता।
पगिया पर, डाँड़ों में,
वन-वादी, कंदरा,
पर्वत-प्रपातों में,
घने- घने गाछों में,
झुरमुट में।
लुटेरी निगाहों,
रहजन बटमारों में।
उजली रातों,
तारों भरे,
गहरे नील-गगन
दरो दर, सरायों में,
असल और ख्यालों में,
टुकड़ा टुकड़ा बसता।
अटकते, छूटते,
चलते जाते।
सुजनों सुकृतियों में,
मीठी खटमिट्ठी,
बतियों में
रमते बंटते, बटोरते,
थोड़ा सा ही
बचा रह गया है।
कभी कहीं
टिक भी पाएगा,
मुकम्मल !!
या फिर,
बोरसी में ढांपी,
छुपी छुपाई झांपी,'
सझाने की, चाहत भिनाए,
यूं ही, 'चला जाएगा' !!!