Wednesday, September 30, 2020

"गुरुकुल"

 'कविता मैराथन'

प्रो० अजय सिंह जी, निदेशक, भारत कला भवन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने कविता मैराथन में नामित किया प्रिय सुभाष जी को और उन्होंने स्नेहवश मुझे नामित किया है आठ दिन तक प्रतिदिन अपनी एक कविता के साथ ही किसी एक कवि को नामित भी करने हेतु। इसी बहाने सुभाष जी ने मुझे भी गुरुकुल के प्रारम्भिक दिन याद दिला दिए हैं। उन्ही की कविता के शीर्षक से जो सूझा जल्दी से लिख रहा हूँ उन्हें ही समर्पित करते हुए। इस कड़ी को आगे बढ़ाने हेतु अग्रज श्री नरेंद्र नीरव जी Narendra Neerav से सादर निवेदन कर रहा हूँ.............




"गुरुकुल"

उस दर पर,
पहुँच जाता हूँ
उन्हीं पलों में !
अभी अभी कदम धरे हों
जैसे परिसर में।
पहली बार कौतूहल भरे।
अनजान आकर्षक,
आँखों में कौतुक लिए।
नए नए चेहरे,
भवन, बरामदे, नई दुनिया,
नए क्लास रूम की गमक में।

दोनों किनारों पर,
झुक कर,
हरियाला चंदोवा तानते,
गाछों की कतार के
नीचे से बढ़ती
सुथरी सड़कों पर
उफनाते तरंगित
तैरते हुए नित,
नए युवा प्रवाह में।
बहुत बहुत प्यारा
बसा हुआ
आशाओं में, सपनों में।

अपने आप में खोया,
कम ही लोगों से मिलना,
बात करना,
चुपचाप देखा करना
खेल के मैदान,
माउंटेनरिन्ग वाली बिल्डिंग,
पढता, युनिवर्सिटी गेट के
पहले खम्भे पर,
गत्ते पर चस्पा काग़ज़ पर,
हाथ से लिखी,
नरेंद्र नीरव् की नयी कविता।
रमता महुआती बयार में ।

चंचल, मोहन प्रकाश के
ललकारते भाषण,
सम्पूर्ण क्रान्ति के नारे,
बाढ़ के पानी की तरह,
बढ़ते आंदोलनकारी स्टूडेंट्स के
गजगजाते हुजूम।
हॉस्टल वाले पहलवान,
बिराल-ब्रोचा चौमुहानी पर
चिनिया बादाम की दूकान,
सब कुछ वैसा ही तो है,
कुछ नहीं बदला,
वहीँ ठहरा हुआ वो दर।

क्लास रूम, बरामदे,
सीढ़ियां, पोर्च, लॉन ,
ताड़ के ऊंचे सतर पेड़ों के
सफ़ेद चिक्कन गोल,
तनों पर कुरेदे
नाम-निशनों पर,
सब कहीं पसरे हुए
वही पल।
वैसे ही जवां दिल,
उत्साह और जीवन से लबरेज़,
और भी बहुत कुछ दिखता,
जस का तस।

चारों ओर विचरते,
मंदिर परिसर में बैठे,
हँसते बोलते झगड़ते,
अपने ही समय के
अनजाने बैचमेट
जैसे दीखते,
आस पास से गुज़रते,
नाम भले ही न जाने,
उन्हीं जैसे तो लगते।
पहचाने पहचाने से
अगल बगल की
फैकल्टी के।

चार दशक से भी
ज्यादा लंबा काल खंड,
सिमट कर फिर से
उन्हीं पलों में,
टिंघुरता।
आहिस्ता आहिस्ता
गलियारों और परिसर में।
धीमे से घुस कर
क्लास रूम में,
पिछली सीटों पर बैठे,
सबके बीच में छुपे।

अनकुस लगता है, जब
आदर से ही सही, कोई
अगली सीट खाली कर
वहीँ बैठने को कहता है।
और भी अखरता है,
जब कोई कहता है
चालीस बरस से ज्यादा बीते
इसी क्लास में पढ़ते थे,
ये हासिल किया ये ये पाया।
नहीं मालूम उन्हें,
किस परमसुख में,
खोंचा मार देते हैं।

पुराने मित्र,
आज के वरिष्ठ गुरुजन,
नहीं समझ पाते हैं, जब
अपने शिष्यों से
बहुत सीनियर बता कर,
पैर छूने को कहते,
और वे सम्मानपूर्वक
झुक जाते हैं पांवों में।
गुरुता के ऊंचे पेडस्टल
पर खड़ा करके,
कितना छितरा देते हैं,
पल भर में।

काश ! उस दर पर,
अजनबी ही रह सकें,
कोई ना पहचाने
मुझे या मैं उन्हें
एक दूसरे के बारे में
कुछ भी न पता हो हमें,
फिर-फिर जी सकूं,
उसी दर पर,
उन्हीं बहुत प्यारे,
ताज़ा तरीन पलों में,
रचे बसे उन्हीं भावों में,
मदहोशी भरे आलम में।

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