Friday, January 31, 2014

रास्ता चलते हुए सत्र दो: 6

January 31, 2014 at 10:53pm


2.6  कप्तान ब्लंट  

नए बने बाई पास से गंगा पार कर नारायणपुर होते हुए चुनारगढ़ पर धावा मारा। किले में घुमते गेस्ट हॉउस के सामने गंगा का परिदृश्य देख खलीफा हक़-बक रह गए - 'ओह इतना उमर बीता। पहले क्यों नहीं आया यहाँ, अहा क्या बात है।



टहलते-ठहरते किले के अंदर बनी भरथरि-समाधि देखी, भरथरी रचित श्रृंगार शतक, वैराग्य शतक और नीति शतक की महिमा पुजारी जी से सुनी। पूर्वी दरवाज़े का मंदिर देखा, जहां तहां धरे लघु प्रस्तर देवालय निरखे, पुरानी मूर्तियों के दर्शन पाए, वारेन हेस्टिंग्स का बँगला झाँका, पश्चिमी दरवाज़े से निकल कर किले के नीचे गंगा किनारे की कगारी चट्टान काट कर निरूपी गई सोलह-सत्तरह सौ बरस पहले  देवाकृतिया देखीं।







सब देख समझ कर खलीफा ने लटाई ढील दी - "एक रास्ता बनारस से गंगा-गंगा एक और अगिआबीर, बिंध्याचल, लछागीर, झूसी के आगे नाव से जाता रहा। दूसरा नारायणपुर का एही रास्ता से जरगो पार कर यहाँ के वास्ते।

उस्ताद ने दक्खिन का रास्ता दिखाया - 'चुनार से दुर्गाखोह, आगे सक्तेशगढ़-सिद्ध नाथ की दरी, फिर राज गढ़, कैमूर घाट उतर के शिल्पी गाँव, आगे सोन पार कुरारी गाँव के आगे भरहरी, फिर, आगे कांचनी नदी ओ माणा, सोनहट से - एक ओर दक्खिन-पूरब को रामगढ़ पहाड़, शिबरी नारायण, मल्हार से महानदी पार जगन्नाथपुरी; दूसरी और सीधा दक्खिन चढ़ उतर गए वैन-गंगा घाटी के साथ अदम की ओर विदर्भ में दक्षिणापथ पर। ------ '



उस्ताद का बोलना थमा तो खलीफा ने उत्सुकता से पूछा - 'कहाँ से जाना तुम ये सब।'

उस्ताद भाव खा गए - 'अंकल जी हमन के त पढ़ पथलवै जाना ला। थोर बहुत हमनौ पढ़ी-लिखी ला। ना माना तो देख ला १८०१ के 'एशिएटिक रिसर्चेस' में छपल जे. टी. ब्लंट कै हवाल।"  

खलीफा समझ गए - उस्ताद कमर कस के आए हैं।

अपने रिसर्च के फेर में ब्लंट जी का वो विवरण इस नाचीज़ ने भी खंगाला था। ब्रितानिया सरकार के हुकुम की ताबेदारी में सन 1795 की 28 जनवरी की ठंढ में ब्लंट महोदय एक जमादार और तीस सिपाहियों के साथ चुनारगढ़ से उड़ीसा और बेररार जाने वाले 'रूट''की पड़ताल करने इसी रास्ते निकलते जो देखा रोजनामचे में भरते रहे। शिल्पी गाँव के कोलों के साथ कप्तान ब्लंट पास ही का पहाड़ चढ़ सोन और ढलती सांझ में सूरज की किरणो का जादुई द्राश देख कर मगन हो गए।   साथ के कोलों ने वहाँ की बड़ी बड़ी शिलाओं और खोहों के बारे में बताया कि - 'ई हौ  'राम-लछमन-सीता जी का दरना', बन में डोलत एहीं सोता में गोड़ (पैर) धोए कै एक रात एहिं रुकल रहलैं।'



इसी को कहते हैं 'जस-अपजस' बिधि हाथ। ब्लंट साहब थोरकै और धियान से देखे होते ना, तो तवारीख में अउरो जियादा नाम कमाते । अगर वहीं 'दुअरा', 'महादेउवा' ओ 'सीता जी की कोहबर' नामक शैलाश्रयों (रॉक शेल्टर्स) में कुदरती रंगों से रंगे चित्र उन्होंने देख लिए होते तो कार्लाइल की सोहागी घाट की 1880 की खोज से भी सौ बरस पहले ही दुनिया में ऐसे चित्रों को खोजने का तमगा जीत लिए होते। लेकिन भला वो ऐसा कैसे कर पाते जब बिधाता ने उन्हें दुनिया के सामने उजियार करने का भाग लिखा था हमरे लिलार पर।

कैमूर पहाड़ी ओ सोन घाटी का सर्वे करते 1979-80 में हम भी इधर आए और शिल्पी गाँव के कोलों से ही बूछते समझते इन्हे खोजने-छापने का मौक़ा झटक लिए। यहाँ निरूपित घेरा बना कर मस्त नाचते नर्तकों का समूह इतना भाया कि मौक़ा मिलते ही उनके छाया चित्र आस्ट्रेलिया के डार्विन शहर में जुटे कलाविदों को भी दिखा आया ।



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क्रमशः

Thursday, January 30, 2014

रास्ता चलते हुए: सत्र दो - 5

January 30, 2014 at 10:40pm


2.5  कान कटा देगा 

उस्ताद के इशारों पर घूमते पंचकोशी मार्ग छोड़ बरास्ते कछवा बाज़ार हो कर अगले निशाने पर पहुँच कर सवारी खडी कर दी। उस्ताद की पेशगी का पान सजाए खलीफा के ओंठों की लाली देखते बनती। पच्छिम बगल पास ही लगे ऊँचे डीह पर चढ़ कर ऊपर पहुंचे तो अध्-चकरिया घुमाव की कगार का नज़ारा खुला। पश्चिमाभिमुख गंगा द्वारिकापुर गाँव के आगे जा कर पूरब मुंह पलट कर बहती पसरी दिखी।




जिन गाँवों और डीहों के नाम के साथ जुड़े हों 'बीर' उन्हें आम तौर पर पुराना ही होना चाहिए। पुरानी परम्परा के अनुसार हर गाँव-पोखर की निगरानी के लिये चौकस तैनात रहते है बड़े बड़े यक्ष और बीर उनके हैं अलग अलग नाम - बड़का, लहुरा, आदि।  इसी तर्ज़ पर द्वारिकापुर के पूरब बसे गाँव का नाम पड़ा 'केवटाबीर' और इन दोनों गांवों के बीच की पुरानी बसावट का डीहा कहलाया 'अगियाबीर'। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान तब तक नहीं गया जब तक कि उस्ताद के एक संहरिया रिश्तेदारी में पड़ी लगन में  द्वारिकापुर नहीं आए। उनको लगन लगी थी पुराने नरिया खपरा खंगालने की, जागें कि सोएं, सुबह हो कि शाम सब घडी उन्हें ओही दिखाता। संझा बेला नारा पार के 'ओपन वाश यार्ड' में निपटान को निकले तो  आस-पास देखा गइल बिखरल खपरा, फिर तो लोटा कहीं ओ धियान कहीं, सब छोड़ ओही में लपटाय गए। लौटे तो लगे गाँव वालों को बटोर कर लाए नमूनों की तफसील - ई हौ ब्लैक-एंड-रेड औ ई ब्लैक-स्लिप्ड, सुनने वाले मुंह बाए सुनते ही रह गए।

बारात से लौट के गुरू जी के सामने पोटली पलटी तो कुछ देर देख परख कर उजियार हो गए - 'ये साइट तो कमस कम तैतीस-चौतीस सौ बरस पुरानी होगी। गोरखपुर में नरहन और इमलीडीह के टीलों की खुदाई से भी तो इनसे मिलते जुलते प्राचीन बर्तन मिले हैं'।   

अगले बरस गुरु जी की अगुवाई में कुदरी फरसा, गैंती गैंता के साथ द्वारिकापुर में डेरा डाल कर अगियाबीर के टीले पर चली खोदा खोदी में उपराय प्रमाण से पता चला कि इंहा तो साँचौ तीन हज़ार बरस से भी पहले से बसावट रही।

डीह के पूरब घाट ऊपर 'लूटा बीर मंदिर' के पास बिखरे मिले पुराने पथर-मंदिलों-मूर्तियों के अवशेष। यहाँ आ कर खलीफा और उस्ताद दोनों की दखल नही चली।  लेकिन अपने एक कलावंत मित्र की संगत में जुटाए ज्ञान की बदौलत मुझे अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मौक़ा मिल गया -



"गोल गोल गुल्ला जैसी उभरी आँख और मोटे ओंठ वाला पुरुष-मुख और हाथ उठाए उकडू बैठे पुरुष आकृतियों से अंकित प्रस्तर खंड लगते हैं सोलह-सत्रह सौ बरस पुराने।"




"चंद्रशाला, जिस पर अंकित हैं गरुड़ पर सवार भगवान् विष्णु, होगी बारह-तेरह सौ बरस पुराना।
बाक़ी की मूर्तियां और स्तम्भ गवाही देते है यहाँ सात-आठ सौ वर्ष पहले तक चले मंदिर निर्माण की परंपरा की।"

हमें देख गाँव वालों के साथ वहाँ आए मंदिर के पुजारी जी से मालूम हुआ कि यहाँ से मिले, बनारस में संस्कृत यूनीवर्सिटी में रखे, एक पाखल-खंड पर उकेरे लेख के मुताबिक़ - सोलह-सत्तरह सौ बरस पहले शक वंशीय महाराज रुद्रदामश्री के वक्त में भी यहाँ एक देवकुलिका या देवालय की प्रतिष्ठापना करायी गयी। इस बिना पर हमारा दिमाग उस रास्ते पर दौड़ने लगा जिस पर चल कर, शायद पश्चिम भारत के शक राज्य से, मध्य प्रदेश के मालवा और विदिशा से हो कर आने वाले सार्थवाह दक्षिणापथ पकड़ कर विंध्याचल और वहाँ से तिरछे उत्तर पूरब का रुख धरे गंगा पार कर बनारस की ओर आते रहे होंगे।  

कगार पर टहलते गंगा पार दक्खिन पश्चिम में मिरज़ापुर/ विंध्याचल की बसावटों के धुंधले बिम्ब देखते ही खलीफा ने नतीज़ा निकाला - "एही घाट से सीधा जाता था उधर मीरजापुर/ बिन्ध्याचल का आगे दक्षिनापथ की ओर, इधर उत्तर पूरब सीधा बनारस, और इधर सीधा उधर जाता था जौनपुर का एलाइनमेंट में साकेत/अजोध्या की ओर।"    

"और ऐसा नहीं हुआ तो ?" खलीफा को छेड़ा तो भड़क गए - "क्या बात करता है। एही सही है। गलत हुआ तो कान कटा देगा।" 

हम वहाँ के कई चक्कर लगा चुके थे, कभी कटका रेलवे स्टेशन से तो कभी कछवा के रास्ते। खलीफा को आगाह किया - "तो फिर तैयार हो जाइये कान कटाने को।"

केवटा बीर के और पूरब में गंगा के साथ साथ चल कर पहुंचे 'बरैनी घाट'। यहाँ भी घाट और गंगा से लगे डीह पर बिखरे करीबन तीन हज़ार बरस तक पुराने बर्तन दिखला कर खलीफा को दिखलाया -

"देखिए बनारस से आने वाला रास्ता कछवां की राह यहाँ गंगा के पार उतरता रहा, अगिआबीर से नही। अब कटवाइए कान। "

खलीफा ऐसे कहाँ मानने  वाले, किसी तरह अनमने मन से माने  भी तो मुस्कुराते हुए पुछल्ला लगाने से नहीं चूके - "एही तो हम भी बताया ना।  ई माउंडवा भी तो अगिआ बीर से सटा है।"




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 क्रमशः

* फोटो: श्री बरुन सिन्हा एवं डाक्टर अशोक कुमार सिंह से साभार

Wednesday, January 29, 2014

रास्ता चलते हुए: सत्र दो - 4

 

January 29, 2014 at 1:45pm
2.4 धरमशाला/ सराय

क्या अजब है ये दुनिया भी - इस लोक में आ कर जाना मुकम्मिल जान कर भी लोग मंसूबा पाले रहते हैं जीते रहने का बज़रिए शोहरत, इस जहां में सूरज चाँद तारों के रहने तक, चाहते हैं इस लोक के साथ परलोक सुधारना।  पिद्दी सा बबूला समंदर बनने की चाह राखे।  कितने ही श्रेष्ठि (सेठों), समर्थ, सम्राट इस चाह में सड़को के किनारे धरम शालाएं, सराय, मंदिर और तालाब बनवाने, कुंआ खोदवाने और छायादार पेड़ पौधे और बगैचा लगवाने में दूनो हाथ दाम उलीचते रहे। पंचकोशी परिकरमा मारग पर भी ऐसे धरम-भीरुओं की कीर्ति पताकाएं फहराती दिखीं।

यह मारग पहले कच्चा रहा, दुन्नो बगल छायादार बड़वार गाछ।  इस पर चलते परिकरमा पर निकले संकलपित श्रद्धालु, गुरिया-गठरी सम्भारे, भोले के जयकारे लगाते, नंगे पाँव पैदल। न जाने कब से चल रही है यह परम्परा। बनारस की आबादी बढ़ने के साथ बदलते हालात में सड़क के हाल बेहाल हुए, पेड़ काट लकड़ी बिकाई हाट और खड़े होते गए पक्के मकान। शहर का दौरा करते हुक्कामों को यह सब देख रोना आया तो 'सुखद यात्रा' के ख़याल से कच्चे रास्ते पर डामर बिछवा कर चिक्कन गात बनवाय दिया। अब ठरन में थरती और घाम में तपती सड़क पर नंगे पांव चलने वालों के पांव फटी बिवाईं की पीर वे कहाँ से समझते।

परिकरमा मारग से सटी धरमशालाएं आज भी सुबह ओ शाम गुलजार रहती हैं यात्रियों की आमदरफ्त से। कंदवा से अभी ठिंगुरे ही थे गाड़ी रुकवा कर खलीफा ऎसी ही एक धरमशाला में हलि गए। उस्ताद के सम्भालने के बाद भी अपनी उमर का मान किए बिना लगे ऊपर नीचे कुदक्का मारने।







एक ज़माने में आस पास के वीराने में सांझ ढलते  पड़ाव डाल कर यात्री ऊंची दीवारों वाली धर्मशालाओं का अकेला दरवाज़ा बंद कर चारों और से सुरछित हो जाते। भीतर खूब खुले आँगन के चारों ओर के कमरों की कतारों में खासी तादाद खप जाती। गर्मियों में आँगन में ही पड़ रहते। अंगने में ही दोल वाला कुआं, बगले में चोट क मंदिल ओ तुलसीचौरा। सुबह सबेरे स्नान ध्यान, पूजन-अर्चन, पांच पाती तुलसी दल सबके उदर। फिर चलते अगले पड़ाव की ओर।    



उतरते जल-स्तर के चलते कुँओं का पानी नीचे उतर चला है और सबसे बुरा बवाल है 'वाश रूम' के जुगाड़ कै। यह सब देख आज इस कल उस देश तक उड़ने वाले उस्ताद खनकने लगे -

'सगरो दुनिया में काशी की सरनामी के डुग्गी पीट पैसा कमावे वाले एतनौ नाहीं कै पइलन ओ चलल हउवें काशी के इंटरनेशनल लेबल कै टूरिस्ट सेंटर बनावे।'

खलीफा भी उनकी बात के साथ "अरे राम- अरे राम" कहते नहीं थके। फिर खिन्न मन से बोले - "अब क्या करेगा? हम सब है ही ऐसा ।" ऊपर की छत पर सुस्ताने बैठे तो बताने लगे -

"पुराना यात्रा मार्ग पर सब कहीं ऐसा धर्मशाला / सराय मिलता है सब कहीं यहाँ से आगरा-दिल्ली-पंजाब हो कर समूचा पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान का आगे तक।  आज भी कभी कभार शाम को दीख जाता है सराय में टिकना वाला धुल सना मुसाफिर कुंआ पर चमड़ा का डोल से पानी खींचता, मुंह-पैर धोता, फिर चटाई बिछा कर नमाज़ पढता। सराय के बाहर दीखता है ऊंट घोड़े का जोगह ट्रक का जमाव।

सराय/धर्मशाला का परम्परा ले जाता है ऐसा ही बनावट बिन्यास वाला प्राचीन बौद्ध विहारों तक जहां रुकता ठहरता था श्रमन लोग। सारनाथ, श्रावस्ती और दूसरा दूसरा साइट का खुदाई में ऐसा ही प्लान तो मिला है विहार का।  मंदिल-मस्जिद का जोगह पास में रहता था स्तूप का बिधान। ऐसा ही बनावट दीखता है यूरोप का पुराना कान्वेंट का भी। " 

* फोटो सुभाष जी और पञ्च बहादुर जी के सौजन्य से साभार।

क्रमशः 

रास्ता चलते हुए: सत्र दो - 3

 

January 28, 2014 at 10:14am
तिलंगे जुटे बनारस में  

छह घंटे के बस के सफ़र के खचर-खच्च में भी पढ़ाई में डूबा रहा। अगल बगल की सीटों की सवारियां ऊंघती, जागती, बतियाती रहीं। लेकिन 'अरदली बाज़ार' आते आते सब के सब हरकत में आ कर अपना अपना सामान सिरजने उतारने में लग गए।  दरवाज़े पर जा सटी सवारियों की आवाज़ पर जहां तहां रुक कर उन्हें बस से उतारा जाने लगा।

कैंट बस अड्डे पर उतरते ही अगवानी में डंटे 'उस्ताद' के मार्फ़त रथयात्रा इलाके के एक होटल में जा कर ठहर गए। कैम्ब्रिज से आए खलीफा दिल्ली-कलकत्ता छू कर पहले ही वहाँ जीमते मिले।

उस्ताद की अगुआई में हम तीन तिलंगों का दस्ता निकल पडा इन पडावों के पास की पुरानी तवारीखी बसावटों पर बचे रह गए चीन्हों की निशानदेही करने।

'अगिआबीर' के रास्ते पर चलते पंचकोशी मार्ग के किनारे 'कर्दमेश्वर महादेव मंदिर' पर ठहरे।





उस्ताद बताने लगे - कभी कारदमि रिसी यहाँ शिव जी के धियान में रमल रहलैं, ओनही के नाम पै कर्दमेस्वर ओ कंदवा नाम धराइल ई मंदिल कै।

खलीफा ने सवालों के रेले लगा दिए और आगे आगे चल रहे उस्ताद ने बढ़-बढ़ कर जवाब फेंके -

"ऐसे तो बनारस में मंदिर हउवें अनगिनत।
मगर साबुत मंदिरन में सबसे पुराना इहै हौ।
सात-आठ सौ बरस पुरान तो होबै करी।
काव कहै ले ओके - उहै 'नागर शैली' का अइसन   
नमूना दुस्सर नहिनी।  
बेदीबंध, जंघा में जड़ाइल कुछ पाखल अइसनौ बा जेकरे बुनियाद पे कहल जा सका ला कि एहीं कहीं कब्बौ एहू से पुरान मंदिल रहल होई, इहै कोई पंदरह सौ बरस पहले क।"

उस्ताद के इस परम ज्ञान पर हम चकरा गए। इस ज्ञान का स्रोत जानने को जब तक कुछ पूछते, गाल में पान दबा चुके उस्ताद जी मुंह दाबे पीक घुलाते, काली-सफ़ेद दाढ़ी पर लाली छिटकाते, बमुश्किल बोले -

"अरे ई कुल हमरे बिभाग के 'दुर्वासा' बतवले हवैं, कुच्छो गलत होए तो ओही जानैं । "

जब हमने 'दुर्वासा' का खुलासा करने को कहा तो खीजियाय गए -

"ई हम ना बताए सकतीं, जो कहीं गुरु जी जान गइलन तो बड़ी लात खाए के पड़ी । "

खलीफा खोपड़ी खजुआते रहे। 'दुर्वासा' की शिनाख्त करते तो कैसे ?

और छुटभैया ने सब जान कर भी चुप साधे रहने में ही भलाई समझी।

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क्रमशः  

रास्ता चलते हुए: सत्र दो

रास्ता चलते हुए: सत्र दो

January 27, 2014 at 10:11pm


'सार्थ और सार्थवाहों' के बारे में और-और लेखा डाक्टर मोतीचंद्र की किताब के मार्फ़त तफसील से मिलता गया।

दूर दूर के कस्बों, शहरों और दूरस्थ मुल्को तक, ताम्रलिप्ति से सीरिया, राजगीर से पैठन >>>>>>> बेशकीमती रत्न, रेशम, मसाले जैसे जिन्स ले कर व्यापार के लिए निकलना बड़ा दुष्कर होता। इस मंशा से निकलने वाले अपने जैसे और व्यापारियों को तलाश कर जुटाते, सार्थ - महा सार्थ बनाते। घोड़े, हाथी, रथ, बैल-गाड़ी, ऊँट गाड़ी सजते। सारे सार्थ का सूत्रधार सुरछा के लिए आयुध धारी रक्षक और दीगर इंतज़ाम करता। फिर जब सार्थ चलते तो उनकी धज देखते ही बनती। अपने अपने मतलब से दूर देश जाने वाले धर्मार्थी, विद्यार्थी, सैलानी भी इनके साथ लग लेते।

सार्थ चलते तो मेले सा कोलाहल और धूल का बवंडर उठता, जहां ठहरते, डेरा डालते, चलताऊ शहर बस जाता। पास-पड़ोस के व्यापारियों से लेन देन के अलावा चर्चा-परिचर्चा, धरम प्रचार भी चलता।

जिन्हे ज़्यादा समझना हो प्राचीन पथों, समन्दरों, नाविकों और तिज़ारत के लिए निकलने वाले अदम्य साहसी यात्रियों के बारे में उन्होंने अगर सार्थवाह नहीं पढ़ा तो समझ लें अब तक का जीवन बेरथ गंवाए।

क्रमशः

रास्ता चलते हुए: सत्र दो

रास्ता चलते हुए: सत्र दो

January 27, 2014 at 9:15am
सुमिरन कै के माई सरसुती, लै मैहर वाली कै नाम,
जय जय बिंध्याचल देबी की, बाबा बिश्वनाथ कै धाम,
हाथ जोड़ हम सुरु करी तब, अब आगे कै सुनौ हवाल,
गलती कोई जो हो जावै, मूढ़ जान कै करिहौ माफ़ ।

सार्थवाह 

पिछले सत्र में खलीफा से बंधवाए शोध के गंडे ने बहुत दिनों से सो रहा आवारगी का जिन्न फिर से जगा दिया।  तिस पर सवार रास्तों के पुराने जाल को समझने-सुलझाने का चाव। इसलिए इस बार चलने से पहले बरसों से किताबों के ढेर में गर्द ओढ़ती डाक्टर मोती चन्द्र की नायाब देन 'सार्थवाह' निकाली, सलीके से झाड-पोंछ कर झोले में संभाली, और लखनवी मिजाज़ से उबरते, बस में सवार हुए। शोध से ज़्यादा घना घुमक्कड़ी का नशा।

खिड़की के बाहर के फिसलते नज़ारों से दिल भरा तो समय काटने को 'सार्थवाह' निकाल ली, कुछ ही पन्ने पलटते 'साथ-साथी' 'पथ-पथों' की व्याख्या से दिमागी गलियारा उजियार होने लगा।

समान अर्थ (एक जैसी पूंजी) ले कर चलने वाले व्यापरियों  के समूह के लिए समा निकाली, न का 'स' और 'अर्थ' को जोड़ कर एक शब्द बना = 'सार्थ'। फिर रगड़ते-बदलते, बोलते बतियाते बच रहा 'साथ' और उससे बना साथी।

बरबस ही याद आया - 'कारवां गुज़रने और गुबार देखने के बोल'। जाने कब से गुनगुनाते-सुनते इनके सही मायने पूरे वज़ूद के साथ अब समझ में आए। 'कारवां' शब्द का ही पर्याय और साथ-साथ एक पथ पर चलने वाले ऐसे पान्थों का अगुआ या मुखिया कहलाया - 'सार्थवाह।

पथों-परिपथों का जनम कब और कैसे', आदम और पशु जात के पैरों के वज़न से कदम-दर-कदम-दर-कदम, हुआ, और पोख्ता होता गया। आदिवासी इलाकों में पग-डंडियों की लीक पर चलते इस सूत्र  को समझना कठिन नहीं लेकिन 'अर्थ' के कल्याण और आनंद देने वाले पथों पर रथों, शकटों के चलने की अथर्ववेद की बानगी दिखाता है 'सार्थवाह'।

क्रमशः

Sunday, January 12, 2014

दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।


वहु द्याखौ चेन छडाए गए,
वहु ज्याब कटी, वहु लूट लए,
वहु रेल लड़ी, पुल टूट गए,
मारग मा गड़हां, डूब गए। 

शुकराचार विराज गए,
लरिका सब लम्बरदार भए,
नंबर बढ़वाए टाप गए,  
कापी परचा लै भाजि गए।  

वहु भवा घोटाला जेल गए. 
सुन सुन यहु जी उकताय गए,
इतनै भर भारत नही अहै, 
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

गुनगुने घाम मा ताप लिए,
चाउर चिरियन चिंहुकाए दिए,
चहकन चुनमुन चुप गुना किए,
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

गोंहू फिर से हरियाय गए,  
सरसो के फूल पियार भए, 
वो आए आस जगाय गए,
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

बांधे कतार इस्कूल गए, 
चक पार करैं किलकार दिए, 
मस्ती से दर्जा पास किए, 
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

द्याखौ कैसे मुस्काय दिए,
वो आए आस जगाय गए,
जादू की छड़ी घुमाय रहे, 
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।  

बिटियन ने मेडल जीत लिए, 
ऊपर उठ चन्दा चूम लिए,
बोझा ये भाव भुलाय रहे, 
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

पढ़ भैया देश बिदेश गए,
अमरीकौ तक चौंधाए गए, 
सब द्वीपन मा फहराए रहे,
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

यहु मंगल गृह की ओर गए, 
क्रायोजेनिक शाबास हुए, 
मंज़िल दर मंज़िल बढ़ा रहे, 
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

द्याखौ अछयौ दिन फिन आए, 
फिर हवा मलय लहराय गए,
गान्ही फिर सुमिराय रहे,   
दिन थ्वारे अछ्यौ आए रहे।

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Friday, January 10, 2014

इंतहा इतनी न कर


इंतहा इतनी न कर

1
ये कभी सोचा नहीं वो जुर्म क्यों किये, 
फंस गए तो अब कहें क़ाज़ी बुरे मिले।   

2
जूतियों  की चाकरी, तब तो किया किए,
जूतियां पड़ने लगी, क्यों बिलबिला गए।    

3
दुम हिलाते हर कहीं, कुत्तों सा जो जिए, 
जूठन पे ज़िंदगी चले, फिर क्या तने हुए। 

4
कलगी नचाते कूदते, तन रंगाए चल दिए,
तुर्रा दिखाते वो रहे, सिंह सा चलते हुए।   

5
सब असलियत जानते, कैसा भरम पाले हुए, 
देखा है घूरे-ए-घूर पर, तुमको वहीँ लपटे हुए।   

6
दे कर चुनौती तुम, शरीफों को, बढ़ा किए,
थोड़ा ही वो बढे कि तुम कैसा ज़िबह हुए।  

7
इंतहा इतनी न कर, तुम ही ना सब हुए,
जो आ गए ख़म ठोंक कर, रावण दहन हुए। 

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Monday, January 6, 2014

गंगा उतरैं तारनहार


गुरुकुल टूटे गाँवन क्यार,

सत्यानास ऊंच दरबार।

शोध भवा सब बंटाधार, 
नंबर दुइ की हिंयौ बयार।  

पैसा बरसै ज्यौं रसधार,
धन्य धन्य शिक्षा जगतार।

सेमिनार की जय जय कार, 
ए पी आई की दरकार। 

साल भरे मा मेला चार,
गाल बजावै सब बाज़ार। 

सरस्वती झंकृत सब व्वार, 
दीप जलाएं अलम्बरदार।   

बैठि मंच पंचम आचार,
माला शोभै कंठ अपार।  

कथा सुनावैं गांठि पगार,  
मानौ बरम्हा भे साकार।  

वहै कहानी बारम बार,
नींद समाए आँखिन क्वार।  

पेपर छपि गा कूड़ा झार, 
नम्बर पइहौ पूरम पार। 

आई एस एन एन है यार, 
आई एस बी एन भरमार।   

हलि पावैं बस बिदयागार,
बाढैं दिन दूना निशि चार।

कइसे लागी बेड़ा पार, 
जित द्याखौ  तित बंटाधार। 

सबै नास करिहैं करतार,
आपहि रचैं नया संसार।   

याकै 'आसु' जियावै धार,
गंगा उतरैं तारनहार।

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