Friday, January 23, 2015

कुस्तुनतुनिया

January 14, 2015 at 9:59pm
पिछले मई महीने में कुस्तुनतुनिया (टर्की) जाने का मौक़ा मिलने पर दो चार लाइनें  लिखी - दूर देश की उस सरहद पर पूरब का दर खुलता है,
जादू वाला एक शहर भी, उस मुकाम पर बसता है।

दादा-दादी, नाना-नानी के किस्सों में रमता है, 
कुस्तुनतुनिया नाम निराला कब से रहा लुभाता है।

किस्मत ने फिर अपनी सुन ली, न्योता दे बुलवाया है,
इस बखरी की खटपट छोड़ो, वहाँ नज़ारा न्यारा है।



तब सोचा था कि देखा-सुना दोस्तों से साझा करूंगा लेकिन लौट कर नए झमेलों में उलझ कर अटक-अटक कर ही कुछ लिख पाया। 
अगर बसियौटा ना लगे तो थोड़ा थोड़ा कर के अब बयां कर दूँ।  

Saturday, January 3, 2015

सुनी कही बस यही कहानी

सुनी कही बस यही कहानी 

घर के भीतर ही, कितनी दीवारें होती हैं, 
रोज़ रोज़ ही, बड़ी बड़ी सी उठती जाती हैं। 

इक चूल्हे पर चढ़ती बटुली साझा पकती है, 
चूल्हे चूल्हे चढ़ती बटुली बुदबुद करती हैं। 
   
मेड़ी मेड़ी खेतों की पैमाइश होती है,
बढतीं जितनी उतनी कम पैदाइश होती है। 
   
बचपन में जो पढ़ी कहानी भूली जाती है,
एक एक कर लकड़ी कैसे तोड़ी जाती है।  

जाल लिए उड़ती चिड़ियों की टोली जाती है, 
एक एक कर चिड़िया यूं ही पकड़ी जाती है।    

सुनी कही बस यही कहानी हमने जानी है, 
बड़ी लड़ाई साथ साथ ही जीती जाती है।  
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