Sunday, December 9, 2018

'बझ गए बचवा बाबा के फेरा में'


Published by Rakesh Tewari44 mins
पं. चन्द्रबली त्रिपाठी (125 वीं जयंती): 'बझ गए बचवा बाबा के फेरा में'
उमर का काँटा बढ़ने के साथ बड़का लगाव चोखरने लगा अपने गाँव-जवार के लिए। लम्बे फासले के बाद वहाँ जाने पर बहुत कुछ बदला मिला, किसी किसी ने हमें पहचाने और किसी किसी को ही हमने। ऐसे में मिलने का मौक़ा मिला, पिता जी के पुराने मित्र, चंद्रभाल चाचा जी से। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के निवासी, सन 1953 के आस-पास लखनऊ विश्व विद्यालय के धुरंधर छात्र नेता, फिर ऐन्थ्रोपोलजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के वरिष्ठ अधिकारी, बरसों बाद किसी समय बस्ती जाने पर उनके साथ भी वैसा ही हुआ, कुछ पुराने लोगों ने अचरज जताया - 'अच्छा तो आप 'बाबू चन्द्रबली त्रिपाठी' के पुत्र हैं !!' उन्हें सबसे ज्यादा खला यह जानकार कि आम तौर पर लोगों ने, खासकर नई पीढ़ी वालों ने, पंडित चंद्रबली त्रिपाठी जैसी विभूति तक का नाम नहीं सुना।
21 नवम्बर 1893 को सेखुई (कोटिया) गाँव में जन्मे श्री चंद्र बली त्रिपाठी के बड़े भाई श्री राजबली के पहले उनके परिवार में किसी ने औपचारिक शिक्षा नहीं पायी थी। बचपन में ही गाँव से अपने ननिहाल मगहर में रह कर श्री राजबली त्रिपाठी, वहीं से प्राथमिक और गोरखपुर से मिडिल तक की शिक्षा पा कर, बस्ती जिले के बिस्कोहर गाँव में अध्यापक बने। उनके प्रयत्नों से श्री चन्द्रबली जी ने 1908 में अपने गाँव के निकटस्थ प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने-लिखने का जो सिलसिला चला वह जीवन पर्यन्त रुका नहीं - ख़लीलाबाद से मिडिल, गोरखपुर के जुबली स्कूल से मैट्रीकुलेशन और सेंट ऐंड्रूज़ कालेज से एफ. ए. (1910-1917); म्योर कालेज प्रयाग से 1919 में बी. ए., 1921 में दर्शन शास्त्र में एम. ए. और एल.एल.बी.; काशी हिन्दू विश्व विद्यालय से 1923 में एल. टी. और हिंदी साहित्य सम्मेलन से विशारद। संस्कृत, हिंदी, उर्दू में निष्णात। गांधी जी के असहयोग आंदोलन के प्रभाव में उस ज़माने में आयकर अधिकारी के पद के लिए नामित होने के बाद भी उसे नकार देने वाले। 1922 में महामना मदन मोहन मालवीय के सचिव रहने के अतिरिक्त गोरखपुर में अध्यापन और एटा में हेडमास्टरी के बाद 1924-1959 तक बस्ती-कोर्ट में 'केवल सच्चे मुवक्किलों' के वादों की वकालत। इस बीच कई पुस्तकों का लेखन - 'देशभक्त पर्नेल' (1919), 'धर्मराज युधिष्ठिर' (1952), 'मैत्रेयी' (1955), 'बुद्ध और बौद्ध धर्म' (1956); वकालत से संन्यास के बाद बस चिंतन मनन और लेखन - 'भारतीय समाज में नारी आदर्शों का विकास' (1967), 'गायत्री उद्बोधिका' (1987); और अंत में 88 वर्ष की अवस्था में तीन खण्डों में 'उपनिषद् रहस्य'।
ऋषितुल्य जीवन जीने वाले पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी के विषय में उपरोक्त जानकारी मैंने भी तब जुटाई, उनके द्वितीय पुत्र श्री चंद्रमौलि त्रिपाठी जी के सौजन्य से, जब चन्द्रभाल चाचा ने हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा उनकी 125 जयंती पर दिनाँक 7 दिसंबर 2018 को त्रिवेणी सभागार में आयोजित संगोष्ठी में भाग लेने का आदेश दिया। जानकारी जुटाना और उन पर विचार व्यक्त करने की अपनी सीमाओं को बखूबी समझते हुए भी आदेश मानने के अलावा विकल्प ही नहीं रहा।
सभागार में पहुँचने पर जिसकी संभावना करता रहा वैसा ही घटित होता गया। संगोष्ठी में, मुझे छोड़ सब, एक से बढ़ कर एक भागीदार - अकादमी के सचिव देवभूमि हिमालय में क्रौंच पर्वत के निवासी डॉक्टर जीतराम भट्ट; मुख्य अतिथि - श्रीमती रिंकू दुग्गा, सचिव, भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग दिल्ली सरकार; अध्यक्ष - प्रोफेसर रमेश कुमार पाण्डे, कुलपति, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ; प्रोफेसर विश्वनाथ त्रिपाठी, पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, दिल्ली विश्व विद्यालय; श्री चन्द्रभाल त्रिपाठी; डॉक्टर मोहम्मद हनीफ शास्त्री, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान; और सुस्थापित लेखिका ड़ॉक्टर मुक्ता; और संगोष्ठी के सूत्रधार, कादम्बिनी के पूर्व सम्पादक-लेखक श्री विजय किशोर 'मानव'।
विधिवत ऋचापाठ से शुभारम्भ और पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी की सौवीं जयंती के अवसर पर उन पर बने वृत्तचित्र के प्रदर्शन से उनके कृतित्व के बारे में डाक्टर विद्यानिवास मिश्र, डॉक्टर कारण सिंह जैसे विद्वानों और उनके सहकर्मियों आदि के मंतव्य सुनते हुए मन ही मन सकपकाया - ऐसे विद्वानों के बीच कहाँ बझा दिया बाबा (पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी) पर बोलने के फेरा में, चन्द्रभाल चाचा ने मुझ पुरवा-नरिया वाले को।
संगोष्ठी का संचालन करते हुए श्री विजय किशोर जी ने गुरु-गंभीर वचनों में वक्ताओं को आज के सन्दर्भ में उपनिषदों की उपादेयता के बारे में बोलने के लिए अनुरोध के साथ एक-एक कर आमंत्रित किया। मुक्ता जी ने विशेष रूप से पंडित चन्द्रबली त्रिपाठी के स्त्री सरोकारों पर प्रकाश डाला। अन्य, शास्त्रज्ञ -मर्मज्ञ-संस्कृतज्ञ वक्ताओं ने ब्रह्मविद्या सम्बन्धी कठोपनिषद के नचिकेता-यम संवाद और ऐसे ही गूढ़ विषयों के सन्दर्भ में त्रिपाठी जी के 'उपनिषद रहस्य' के योगदान की चर्चा की, वैदिक ऋचाओं, गीता आदि के मूल संस्कृत उद्धरणों के साथ। जीवन में प्रश्न ही प्रश्न होते हैं, उत्तर नहीं - एक उत्तर मिलते ही नए प्रश्न उठ खड़े होते हैं, प्रश्न समाप्त होते ही जीवन भी समाप्त।
पहली बार जान पाया अपने ही जिले के खूब जाने सुने बाबा पण्डित चंद्रबली त्रिपाठी की विलक्षण प्रतिभा के बारे में जिन्होंने एक-दो नहीं समस्त एक सौ से अधिक उपनिषदों और उन पर उदभट विद्वानों की टीकाओं को पढ़-गुन-मथ कर, कहीं-कहीं शंकराचार्य जी और डॉक्टर राधा कृष्णन जैसे विद्वतजनों की व्याख्या से सादर विनीत मतभिन्नता व्यक्त करने का साहस करते हुए 'उपनिषद रहस्य' जैसी अमर रचना की।
भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक संस्कृत और साहित्य में गहरी पैठ रखने वाले श्री मुनीश चंद्र जोशी के संपर्क में रहे श्री विजय किशोर जी ने पुरातत्व की महीन दृष्टि से मेरे विचार जानने की मुराद के साथ मुझे भी बोलने के लिए आमंत्रित किया। जोशी जी की तरह संस्कृत और साहित्य में अपनी तो कोई पकड़ तो है नहीं, इसलिए मेरे व्यक्तत्व से उनकी मुराद कहाँ पूरी हुई होगी। तब तक त्रिपाठी जी के बारे में जितनी जानकारी जुटा पाया था उसके बल पर कुछ कह पाना मेरे बूते की बात कहाँ, मोटे तौर पर इतना ही बोल पाया कि -
'पुरातात्त्विक सर्वेक्षणों और उत्खननों में उपनिषद के तत्व तो मिलते नहीं। हाँ, कैम्प में, प्रकृति के सानिध्य में खुले आसमान के नीचे जीवन के बारे में सोचने का अवसर जरूर मिलता है। त्रिपाठी जी ने शिक्षा, संस्कृति और दर्शन जैसे विषयों के ज्ञान और संस्कार को प्रारम्भ से ही अपने जीवन पर लागू किया, तभी वे आयकर अधिकारी जैसे पद पर नामित होने के बाद भी उसे नकार सके। वकालत से संन्यास लेने के बाद जीवन भर के अनुभव और मनन के आधार पर उपनिषद रहस्य की रचना की। नए ज़माने और नयी पीढ़ी यदि शिक्षा के साथ ही इन विषयों और उनके द्वारा रचित 'उपनिषद रहस्य' को अपने परिप्रेक्ष्य में, आज के प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए, नए सिरे से अपने उपनिषद लिख सके इसी में आज भी उनकी उपादेयता होगी।'
जीवन में धन-ज्ञान-कीर्ति आदि की सीमाएं समझने, पेशे में ईमानदारी और नैतिक मूल्यों को जगाए रखने के लिए पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी के व्यक्तित्त्व और कृतित्व के बारे में बस्ती जिले, प्रदेश और देश के ही नहीं समस्त विश्व को अधिक से अधिक जानना चाहिए। हमारा दुर्भाग्य जो हम उनके बारे में इतना कम जानते हैं और उनकी अमर कृति 'उपनिषद रहस्य' के दो खण्ड आज भी अप्रकाशित रह गए हैं। और, मेरा परम सौभाग्य कि ऐसी महान विभूति के विषय में चर्चा और ज्ञानलाभ का सुअवसर पा सका। इसके लिए चन्द्रभाल चाचा जी और 'हिंदी अकादमी, दिल्ली के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना मात्र औपचारिकता भर होगी। 
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Thursday, November 22, 2018

'अधूरी रही --'


Published by Rakesh Tewari13 hrs

'अधूरी रही --'


घड़ी - दो घड़ी,
गुफ्तगू वो चली।
बहुत बात की,
कुछ कही,
कुछ सुनी।

सोचता हूँ अभी,
कुछ कमी रह गयी,
बात अपनी कही,
कुछ नहीं भी कही।
लब पे आयी, मगर,
फिर, दबी रह गयी।

भेंट में लायी,
उनकी वो,
नमकीन सी,
मुस्क़ुराती हुई,
लोचनों में बसी,
कोर कारी सजी,
वो वहीँ रह गयी।

आएँगे फिर कभी
तुम्हरी संकरी गली
बैठ कर फिर कहीं,
बात होगी अभी,
वो जो बाकी, अधूरी
अधूरी रही ।

वो जो बाकी, अधूरी
अधूरी रही ।

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Thursday, October 25, 2018

'ट्रैफिक में।'

'ट्रैफिक में।' 

हम सब 
आदी हो चुके हैं 
दो राहों, तिराहों,
चौराहों की 
धकापेल में। 
  
अपनी ही,
रौ में, 
उलझे हुए,
अपने अपने 
मतों में।  

कोई नियम नहीं 
मानता कोई, 
अड़े रहते हैं 
बस अपने ही
सच में।  

कोई बैक गियर 
नहीं लगाता, 
और न किसी को
लगाने देता है, 
लौटने में। 

रास्ता देने, 
दिलाने में, 
यकीन नहीं, 
सुलह, समझौते की  
राह में।  

हम चलते हैं 
मगरूर, बेलगाम, 
दाएं बाएं
किसी भी,
 साइड में।  

लगा रहे जाम, 
खड़े रहे सब, 
यथावत,
कोई बढ़ने न पाए, 
किसी राह में।  

कहते हैं 
जहाँ से निकल पाओ 
निकल जाओ, 
यहाँ ऐसा ही 
चलता है, सब
अव्यस्था में।  

सभी दिशाओं में,
चलते हैं लोग, 
सकते में डरते,
डराते, थमते 
अँधेरे में।  

गाँठ खोलने की 
नहीं सोचते,
माहिर हैं, 
और गहरे, 
गांठियाने में।  

फिर भी,
हम सबके सब,
बढ़ते जाते है,
ठसमठस, 
ट्रैफिक में। 

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Monday, October 22, 2018

'निराली दादी अम्माँ : कोटिया/ बस्ती वाली'

'निराली दादी अम्माँ : कोटिया/ बस्ती वाली' 

एक अत्यंत सादे समारोह में चर्चा हुई, उनके असाधारण व्यक्तित्व की, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, दिल्ली के सभागार में, रविवारीय शान्त संध्या-काले, दिनाँक 14 अक्टूबर 2018 को, इस धरती पर उनके अवतरण के पूरे एक सौ सोलह बरस बाद। अवसर बना उन पर लिखी गयी पुस्तिका के लोकार्पण का।  

13 अक्टूबर1902 में मिर्ज़ापुर में जन्म पा कर दुर्गावती नाम पा कर उन्होंने अपने ज़माने की सोच, समझ और व्यवहार से बहुत बहुत आगे रहीं।पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के कोटिया ग्राम के मूल निवासी पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी से विवाह के उपरान्त मुख्यालय बस्ती  में रह कर उन्होंने वो कर दिखाया जो किसी 'ब्राह्मण' कुलवधू के लिए आज भी संभव नहीं। घर के 'उठाऊ इज़्ज़तघर' की सफाई करने वाले गोकुल नामक भंगी के गंभीर रूप से रुग्ण होने पर स्वयं भोजन और पथ्य ले कर दो मील पैदल चल कर लगभग पंद्रह दिन उसकी सेवा-सुश्रूषा करना; पड़ोस के नन्दौर गाँव के मौलवी हसन अली के घर आने पर उन्हें घर के बर्तनों में भोजन कराने तथा उनके बीमार होने पर अपने हाथों उनकी हर तरह से उनकी तीमारदारी, साफ़ सफाई और देखरेख; बिहार में आये 1934 के भीषण भूकम्प और 1943 में बंगाल के दुर्भिक्ष में अन्न-वस्त्र-धन जुटा कर भेजना; औपचारिक शिक्षा के बिना बांग्ला, पाली, ब्राह्मी में प्रवीणता, बौद्ध धर्म में गहरी अभिरुचि; लुम्बिनी, श्रावस्ती, सारनाथ, महादेवा और सिसवनिया जैसे प्राचीन ढूहों, टीलों, पुरास्थलों का भ्रमण अवगाहन; स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी; उनके व्यक्तित्व के विलक्षण पहलुओं के द्योतक हैं। इतना ही नहीं, अपने संकलन में से लखनऊ संग्रहालय को पुरावेष भेंट किए और बस्ती में संग्रहालय की स्थापना करायी।  कोपिया के प्राचीन टीले का निरीक्षण करके निष्कर्ष निकाला कि यहाँ शीशा गलाने के प्राचीन कालीन उद्योग रहे होंगे और सन 2004 के आस पास आलोक कुमार कानूनगो द्वारा कराए गए उत्खनन से उसकी पक्की तस्दीक हुई, समझती हैं। 14 अक्टूबर को लोकार्पित पुस्तिका में उनके सुपुत्र श्री चन्द्र भाल त्रिपाठी ने उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को हम सबके लिए अभिलिखित कर दिया है।  इस पुस्तिका का लोकार्पण करने वाले डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी और चर्चा में भाग लेने वाले प्रोफेसर आनन्द कुमार, डॉक्टर सैयदा सैयदैन हमीद, श्री कुमार प्रशान्त, श्रद्धेय लामा लोपज़ंग और अपन ने उन पर अपने अपने विचार रखते हुए उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की।  

'दादी अम्माँ' की शख्शियत ऐसी अपनी रही कि जिसने 'वटवृक्ष के नीचे किसी और वृक्ष के न पनपने' और किसी स्त्री की पहचान उसके पिता, पति या पुत्र-पौत्रों की पहचान से जुडी होने' जैसी आम धारणाओं को अपने मामले में पूरी तरह झुठला दिया। वे केवल इसलिए नहीं जानी जाएंगी कि वे हिंदी के प्रकाण्ड पण्डित आचार्य राम चंद्र शुक्ल जी ज्येष्ठा पुत्री और तब के पूर्वांचल के जाने माने पण्डित चंद्र बली त्रिपाठी की धर्मपत्नी रहीं; ना ही इसलिए कि उन्होंने जन्म दिया सुविख्यात  चार-चार प्रतिभाशाली पुत्रों को (डॉक्टर चंद्रचूड़ मणि - बौद्ध विद्वान, श्री चंद्र मौलि मणि - प्रखर मेधा के धनी और रेलवे के उच्चाधिकारी, श्री चन्द्रभाल त्रिपाठी -  पिछली शती के पांचवें दशक के जाने माने छात्र नेता, लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष, चिंतक और मानव शास्त्री तथा श्री चंद्रधर त्रिपाठी - भारतीय प्रशानिक सेवा (आई ए एस), और ना तो इस कारण कि उनके पौत्रों ने महा निदेशक, राष्ट्रीय संग्रहालय, आई आई टी दिल्ली में गणित के प्रोफेसर अथवा दिल्ली हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता जैसे ऊंचे ऊंचे मुकाम हासिल किए। वे जानी जाती रहेंगी अपनी दुर्लभ प्रतिभा की बदौलत, माँ, अम्माँ, दादी अम्माँ के ममत्व भाव से कहीं ज्यादा करुणामूर्ति, विदुषी और क्रांतिकारी के रूप में। 

बस्ती वालों को तो इस बात का गौरव भान रहेगा ही कि 'ऐसी निराली दादी अम्माँ रहीं हमरे कोटिया वाली, इससे आगे बढ़ कर वे पूरे पूर्वांचल, देश और मानवता के लिए वे सदैव  एक अजस्र प्रेरणा-स्रोत बनी रहेंगी। समाज का ताना-बाना सुदृढ़ हो कर टिका रहता है ऐसी ही विभूतियों के योगदान से।

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Wednesday, October 10, 2018

सावन के पग बगिया में !!!!!

सावन के पग बगिया में !!!!!     


दबे कदम, सुन रसिया रे ! 
श्यामा आयीं सज धज के !!
हिल-मिल, खेलैं फुहरा में, 
भीजैं झिर-झिर झिरिया रे !!!

पग पगिया, सुन रसिया रे !   
ताल तलैया तरु तल रे !                
लहरि लहरि जल लेय हिलोरें, 
तव लय डोलै तरनी रे !!

झनन झनन, सुन रसिया रे !
केंका धुन, सब कुंजन में ! 
दादुर टेर, पोखरियन में, 
भीज परिंदा, गुड़-मुड़ रे ! 

रस बरसै, सुन रसिया रे ! 
छाई घटा, मन परबस रे !
भीजी धरती, भीज चुनरिया, 
जिउ छटकै, कस रसिया रे !!

कहाँ छुपे, सुन रसिया रे !
मनबसिआ मोरे, रसिया रे 
धुन लहकै, सुन रसिया रे !
जोह रहे फुल-वरिया में !! 

मधुर राग, सुन रसिया रे !
मधु टपकै, सब बिरवन ते। 
श्याम बदन, सुन रसिया रे !  
सावन के पग बगिया में !! 

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29 July 2018

'काल्ह आय ना आय !!!' .

'काल्ह आय ना आय !!!' .
किसी भी कारण से किसी और पर निर्भर होने की दशा में, कबीर दास जी की कहन मान कर,केतनाहू 'काल्ह करै सो आजु कर' पर चलना चाहै, आदमी परबस हो कर रह जाता है। तिस पर, अगर, अगला हर बार 'काल्ह' पर ही टालता जाय तब कहा कहै इसके सिवा: -
अरजी हमरी हैं वहां, कहते आयहु काल्ह,
काल सिरहाने है खड़ा, बाकी कछु ही काल।
यहै बात फिन फिन कहैं, सोच बतइहौं काल्ह,
हम स्वाचैं कल्ह आएगा, थोरै पल की बात।
वे बिसराएँ, कल का कहा, ना सुमिरैं वै काल्ह,
का जाने का काज कस, कबहुँ तो ब्वालें आज।
काल्हअगोरत जुग गवा, फिरहु न आए काल्ह,
लाल बुझक्कड़ काल्ह भा, ना जाने कब आय।
काल्ह तो ऐसा काल्ह भा, काल्ह कबहुँ न आय,
काल सुनिश्चित आएगा, काल्ह आय ना आय।। .
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Sunday, July 8, 2018

'हिलिए मिलिए'

Rakesh Tewari
Published by Rakesh TewariJuly 1 at 8:25 PM

'हिलिए मिलिए'

इस पथ पर यूंही हम आए,
नियति बनी, संग संग आए !!!
वो मधुर बहुल पल पल ऐसे,
कुछ हम पाए कुछ तुम पाए !!!!
कुछ मन भावन मृदु हास लिए,
कुछ रस भीने, परि-हास लिए !!!
जीवन यह, सम-रस ना बीते,
यह पुतला, श्याम श्वेत जैसे !!!!
कुछ भला करें, कुछ बुरा करें,
अपना बस इन पर कहा चले !!!
हमने कुछ तुमने ग़लत किए,
हम चूके, कुछ, तुम चूक गए !!!
कुछ बहियों-खातों में, मत भरिए,
कुछ सौदा सुलफ नहीं करिए !!!
छन छन प्रति फल मत गुनिए,,
कुछ जोड़ घटाना, कम करिए !!!
हम तुम कुछ गांठें क्यों बांधें,
भूलो तुम, हम कुछ. बिसराएँ !!!
कुछ, थोड़े पल यह बचे हुए,
कुछ, शिकवों में क्यों रगड़ाएं !!!!
कुछ दिन में डेरा उठ जाए ,
कुछ और तिज़ारत मत करिए !!!
जो बीत गए, वह रीत गए,
आगे बढ़ कर, हिलिए मिलिए !!!
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घुमरिया हो !!!


घुमरिया हो !!!

घेरि घूम फेरि आयीं, ये बदरिया हो !!!
फेरि झूम झूमै, निमिया दुअरिया हो !!!
फेरि फेरि, डरिया पे झुलवा झुलावै हो !!!!
फेरि आवा झूलि झूलि, झुलना झुमावै हो !!!
बहय बयार झोर, झोर, झक s झोर हो !!!!
फेरि फेरि, फेरि फेरि, फुहरा भिजाय हो !!!!
सोंधी सोंध कस फेरि नस्वाँ नसावै हो !!!!
पन-पन वारी आवै सुधियाँ सुधावै हो !!!!
फेरि बरखा बहार, फेरि फेरि आवै हो !!!
भीज भीज भीज भीजै मनवा भिजावै हो !!!!
फेरि आवा फेरि फेरि, पेंगवा लचावै हो !!!
फेरि पाके बगिया में, अमवा लूभावै हो !!!
फेरि भूल-भाल रार, फेरि फेरि आवा हो !!!
फेरि फेरि बरखा में, घुमरी घुमावा हो !!!
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'सब कहैं 'बहल्ला' जग जाना !'

'सब कहैं 'बहल्ला' जग जाना !'
एक बरस यूं बीत गवा,
करते अपने ही मन का!
आज पलट कर देख रहा
कैसे बीता कल बीत गवा।
कुछ लोग धरे दाहिना बाँया,
बिनु काजू कहे जैसन बाबा !
कहा रहै अब उरझयौ ना,
नहीं बंधे हम खूँटा मा !
कुछ मुखड़न ते परदा सरका,
कुछ बेमन का तकरार भवा।
उनक्यौ मति मा यहु ना आया,
अरझे हमहू गरियाय दिहा !
पन मान जाएं सोझै सोझा,
ऐसा अपनापन ना सूझा।
हमहू फिन हुर्रा हुमुक दिहा,
दीन हीन काहे समझा !
घर लौटा, धुर्रा पलट दिहा,
अपनै वाला गरदा चंहटा।
बोली बानी सब कुछ अपना,
अवधी अपनी अपना सगरा।
फिर लगा शनीचर पाँवन मा,
मलय देश डेरा डारा !
देखत भालत माला फेरा,
'चम्पा' का फेरा लगा !
लिखत पढ़त पल छन बीता,
मन चाहा जैसा जिउ छीजा !
कुछ लेख लिखा, थोरी कविता,
घर बैठे कुछ कुछ काशी मा !
बहु कृपा कीन्ह परचा छापा,
कुछ मान पाय कुर्सी साजा !
उई समझ रहे हमका भकुआ,
पन उंच नीच हमहूँ जाना !
कुछ मीत पुराने नए मिला,
भीत ढही कुछ नवा बना !
कुछ हम भूले कुछ वो भूला,
रिश्तन का तश्किरा मिला !
फिर विंध्य लगा कितना अपना,
अपनों से नेह मिला कितना !
गंगा-पद्मा का मेल दिखा,
सोनार देश सोना सोणा ।
मर मर कर जीने का फ़ंडा,
सबै मुबारक भर-भर हण्डा !
हम तो बस अतनै जाना,
जी-जी के मरना अच्छा !
वै उरझे अबहूँ पद पैसा,
जीवन उनको ही जीय रहा !
वै जीवै जस जीवन उनका,
हम जीय रहे अपने मनका !
कुछ दोस्त 'निठल्लन' में पावा,
फिन, शुरू भवा आना जाना !
एक संघ बना वहु अनजाना,
सब कहैं 'बहल्ला' जग जाना !
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मौसम और वक्त - बड़े बेगाने

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.6: मौसम और वक्त - बड़े बेगाने
(खत का आखिरी सफा)
फिर से बादल बरसने लगते इसके पहले ही हमने पघमान का एक फेरा लगा लेना बेहतर समझा। सामने नज़र आ रहे करीने से सँवारे गए बाग़ के साथ विलायती अंदाज़ में बना ऊंचे गेट, के आगे फीर (सनोबर; देवदार), पॉपुलर और अखरोट के दरख्त। सामने ऊपर उठती वादी, उससे ऊपर ऊंचे पहाड़। बाएं बाज़ू हरहराता हुआ नीचे उतरता दरया-इ-पघमान।
दरअसल हिन्दूकुश की छाँव में इस नायाब मुकाम पर पहलम पहल बसा एक छोटा सा गाँव सदियों तक अपने ही पुरसुकून माहौल में जीता रहा। यहाँ की असल आबादी में शामिल रहे ज्यादा पश्तून और उनसे कुछ कम तादाद में ताज़िक मूल के बासिन्दे। फिर, युरोपियन तांबे दारी या तहज़ीब के असर से उनकी नक़ल का जो दौर चला उससे यह मुल्क भी अछूता नहीं रह पाया। भले ही जंग के मैदान में अफ़ग़ानियों ने अंग्रेज़ों से जमकर कटमजुज्झ किए हों, 1919 में उन्हें हारने के बाद जब उस फतह की यादगार तामीर कराने की बात आयी तो 1928 में बेग़म सहित विलायत से पलटे अमनउल्ला खान ने यह काम अपने साथ लाए विलायती हुनरमन्दों के हवाले कर दिया, जिन्होंने पेरिस के आर्च ऑफ़ विक्टरी की नक़ल करते हुए पघमान का यह दरवाज़ा तामीर कराया। इस तरह यहाँ के खांटी देशी मंज़र पर युरोपियन छाप चस्पा हो गयी। इसके बाद सैलानियों की बढ़ती आमदरफ्त के साथ यह जगह देशी विदेशी शौकीनों की सैरगाह में तब्दील होता गया।
तीन-तीन अफगानी किराया चुका कर हम अगली बस में कोटे संगी के लिए सवार हो कर जिस रास्ते से आए थे उसी पर लौट पड़े। खिड़की से बाहर साथ साथ बेतहाशा उतरते दरया की रवानी पर नज़र गड़ाए खामोश अपने आप में डूबते ही तुम्हारी याद आने लगी।
अफ़ग़ानिस्तान में पघमान जैसी हरी-भरी वादियां और खलभलाते पानी वाले दरया गिनती के और कम दरमियानी ही हैं। जितनी दूर बहता है खूबसूरती बिखेरता हुआ दरया-इ-पघमान नीचे उतर कर काबुल-दरया में समा जाता है।
शर्मा जी और संधू से तुसी-मुसी करते और चुहलबाज़ी में मस्त श्याम जी ने बातो बातों में पता पा लिया अमृतसर से काबुल आने वाली उड़ानों में पंजाब और हिन्द के दूसरे सूबों से आने वाली ठसम-ठस सवारियों का सबब। सबका एक ही मकसद होता है - परदेश जा कर पैसा कमाना। अफ़ग़ानिस्तान का वीसा तो हवाई अड्डे पर उतरते ही फौरी हासिल हो जाता है लेकिन आगे ईरान और पश्चिम एशियाई देशों की गाडी अटक जाती है। अपने यहाँ के कुछ एजेंट पैसे वसूल कर नौकरी के लालच में फंसा कर यहां तक तो ले आते हैं उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर रफू चक्कर होने के लिए। कोई कोई तो आगे के जाली वीसा भी थमा देते हैं। इसके बाद इन्हें अपनी समझ, बलबूते और स्थानीय हिन्दुओं और सिखों, मंदिर-गुरुद्वारों के सहारे ही आगे का रास्ता बनाना पड़ता है।
इस तरह यहाँ आ कर अटक कर गली-कूचों में भटकने वालों की दुर्दशा देख हमें बड़ा अफ़सोस हुआ। पैजामा, कमीज और हवाई चप्पल में भटकते ऐसे लोग आसानी से पहचाने जाते हैं। यहां के बासिन्दे - अफगानी - हिन्दू दोनों, और अपनी सफारत के लोग इन्हें शाबाशी की निगाहों से नहीं देखते। इनमें भी सबसे आसानी से पहचाने जाते हैं पग्गड़-दाढ़ी वाले सिख साहबान, इसलिए कुछ ज्यादा ही होशियार बन्दे काबुल में उतरते ही अपनी पहचान से निजात पाना बेहतर समझते हैं, संधू जी से पता चला कि वे भी उन्हीं में से एक हैं । हाँ दाढ़ी मूंछों वाले कद्दावर 'मोने' और दूसरे पठानों से मिलती जुलती शक्ल-ओ-सूरत वालों केलोकल लोगों में आसानी से खपने में देर नहीं लगती। यहाँ तक कि बढ़ी हुई दाढ़ी और उर्दू बसी लखनवी जुबां की वजह से अक्सर लोग मुझे भी पाकिस्तानी पठान समझने की गलती कर बैठते हैं।
नीचे कोटे संगी का मौसम पघमान घाटी से उलट गरम और खिली हुई धूप और उधर ऊपर के पहाड़ सफ़ेद लिहाफ जैसी ताज़ा गिरी बरफ की परत से ढके दीखते। यह मौसम और वक्त भी बड़े बेगाने हैं। जब तक दिलकश वादियों में मन रमा, बरफीली बारिश का दौर चल पड़ा, और जब वहाँ से दूर आ गया तो अपने सलोने सुनहले रूप दिखला कर पास बुला रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे यहाँ आने के फेर और बदलते हालात में तेरे पास इत्मीनान से बैठ न सका, और दूर आ कर फिर से मिलने के मनसूबे बाँध रहा हूँ। देखते हैं फिर कब वैसा ही वक्त मिलता है।
काबुल से कहीं बाहर निकलने की सोच रहा हूँ। श्याम जी यहीं काबुल में रहेंगे, उन्हें ज्यादा कूद फांद में दिलचस्पी नहीं इसलिए अकेले जी जाऊंगा। जहां कभी भी गया, अगला खत वहां से लिखूंगा। बहुत रात निकल चुकी है यह खत यहीं ख़त्म करता हूँ। इसके साथ पघमान का एक ग्रीटिंग कार्ड भी है। कल एम्बेसी के डाक वाले थैले से भेजने का जुगाड़ बैठाएंगे। उम्मीद है तुम तक जल्दी पहुंच जाएगा। मिलने पर अपना हाल लिख भेजना। इन्तिज़ार रहेगा।
आगे जहां कभी भी जाऊंगा, अगला खत वहां से लिखूंगा।
हमेशा तेरा
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(पहला खत पूरा हुआ )
फोटो : 1. ग्रीटिंग कार्ड से
२. source: http//www.worldbanknotescoins.com/2015/06/afghanistan-20-afghanis-banknote-1977
३. A street scene in downtown Kabul, 1977. Credit Bill Borders/ The New York Times