Sunday, November 29, 2020

मुददतों के बाद

 गुज़रे हैं उन्हीं राहों से, कई कई बार 
पहचान पाए हैं मगर, मुददतों के बाद !! 

#पुस्तक_समीक्षा

 मलय शंकर is with Rakesh Tewari.

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#पुस्तक_समीक्षा
#पवन_ऐसा_डोलै
'रश्मि प्रकाशन' लखनऊ द्वारा 2018 मे मुद्रित पुस्तक ‘"पवन ऐसा डोलै...‘" RakeshTewari जी का संस्मरण है या कहें जीवन की 35 वर्षों की अनवरत यात्रा का पुराविद द्वारा परत दर परत उत्खनन है।
वहीं ""सफर एक डोंगी मे डगमग"' के जीवट सृजनहार डां राकेश तिवारी।

विन्ध्य के पठारों, वनों, कन्दराओं और झरनों के संगीत-सौन्दर्य-रोमांच ने लेखक को ऐसा सम्मोहित किया कि वह अपनी तरूणाई से लेकर 35 वर्षों की जीवन यात्रा मे घूम घूम कर यही आते रहे।

पुस्तक लेखक द्वारा बीस बरस की उमर में की गयी विंध्य-क्षेत्र की पहली यात्रा वृत्तांत से शुरू हो और लगभग अगले चार दशकों तक विंध्य क्षेत्र के आकर्षण मे डूबे एक पुराविद की प्रेम गाथा है।

इस पुस्तक मे बेयर ग्रिल्स के थ्रिल्स, एक पुराविद का आत्कथ्य या उत्खनन डायरी, एक मन मौज की आनंद की खोज सब कुछ समाहित है।

पुस्तक लेखक की यात्रा आदिम शैलाश्रयों से शुरू हो, उत्खनन से बाहर आये नये तथ्यों से स्थापित मानदंडों को चुनौती और सभ्यता के व्यतिक्रम से इतिहास के संरक्षण के संघर्ष का दस्तावेज है। साथ चलती है जतन से पिरोयी लोरिक चंदा, नल दमयंती, भरथरी और आल्हा उदल की दंतकथा, लोककथा, पुराण कथाओं के साथ प्राचीन शिलालेख, प्रस्तर खंडो और उनका संबंध। लोक गीत, कबीर , तुलसी का यथा स्थान प्रयोग रचना को सुरुचिपूर्ण बनाता है।

डां साहब ने अवधी, बनारसी, बैसवारे और पूर्वांचली बोलियों के संवादो का प्रयोग करने मे कोई दुराग्रह नहीं रखा है। देशज शब्दों का सुंदर प्रयोग इस पुस्तक के प्रसार मे भले ही बाधक हो लेकिन निशाखातिर रहीये भाषा प्रवाह मे आप बह चलेंगे। आदरणीय अमृत लाल नागर के स्नेहपात्र रहे डां साहब के लेखन मे उनके वरदहस्त की अनभूति अवश्य महसूस करेंगे।

पुरातत्व जैसा विषय को इतने शानदार ठंग से प्रस्तुति किया जा सकता है।पाठक यह पढ कर ही समझ सकते है।

कार्यस्थल पर तेदुए, जंगली बराह, नील गाय आदि से मुठभेड़, नक्सली प्रकोप, असन्न घटनाओं की अनभूति का बहुत ही रोचक वर्णन है।

एक व्यक्ति का कार्य के प्रति उसका अनुराग और निष्ठा हर पृष्ठ पर देखने को मिलेगी, कैसा बिना भोजन भूखे रह कर, जंगल और कंदराओं मे रात्रि विश्राम, मीलों पैदल यात्रा, पगडंडियों पर साइकिल भ्रमण, शैल चित्रों के लिए खतरनाक पहाड़ीयो का मर्दन, एक एक मूर्ति मंदिर चित्र शिला प्रस्तर खंड का स्वयं अवलोकन। आप अनभूति करेंगे लेखक की निष्ठा और मेहनत देख जैसे इतिहास ने स्वयं ही इनके समक्ष अनावृत होने के लिए प्रस्तुत किया है।

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ उद्दहरण

तनिक सोच कर देखिए हम इस जीवन में पाना क्या चाहते हैं केवल और केवल मन की शांति । ‘‘कैसा उल्टा खेल चल रहा है, एक असंतुष्ट, असभ्य व्यवस्था परम संतुष्ट वनवासियों को सभ्य बनाने चली है।"

नदी के बहते पानी जैसी होती हैं संस्कृति। नदियां सदैव गतिमान प्रभावित रहती हैं। नए शुद्ध जल से परिपूर्ण नए नए रंग बदल कर आगे बढ़ती हुई। उसी तरह संस्कृतियों का प्रवाह भी चलता है नए जमाने, परिस्थितियों और आबोहवा के साथ नए चलन और जरूरतों के हिसाब से नए रूप धरता हुआ।

‘‘डगर, कु-डगर, बे-डगर डोलने-भटकने ... क्या पाने चले, किस दिशा में, क्या पाये, कहाँ पहुँचेंगे, क्या चाहा, नियति कहाँ ले आयी, अब किधर ले जाएगी? हर्ष-राग-विषाद के एक गुम्फन से निकलते दूजे में उलझ जाते।‘

Image may contain: Rakesh Tewari, text

Tuesday, November 24, 2020

पुरखों की भूम

पुरखों की भूमि 

 जल ही जल औ कीच मोरे रामा ! 
चारियुं लंग फूलल हौ काँस मोरे रामा ! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा ! 

 जहां ले निगाह जाए हरियर लखात बा 
 सरपत बुड़ाव बँसवारी मोरे रामा ! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा ! 

 सरजू कै धारा ओ करार मोरे रामा! 
 तूरत चलत ह अरार मोरे रामा! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा! 

 बीच में दियारा ओ धारा में नइया 
 गोरु ओ गोरुआर देखा गौंवा में रामा! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा! 

 घुटना ले धोती बांधे गोजी वाले भईया 
 गज भर छाती सोहे कैसन मोरे रामा! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा ! 

 एहीं एक डीह रहल सरजू किनारे 
 कहैं लोगन कटि कै कगार बहल रामा! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा ! 

 एक ओर सरजू के साथ साथ चलत रहलन 
 पढे लिखे जात रहे इहाँ से अजुधिया 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा !

 यहीं कहीं रहल होइहन पुरखा हमार हो 
 दूनो हाथ जोड़ परनाम करों रामा ! 
 चन्दा चढ़ल बा अकाश मोरे रामा !!

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Friday, November 20, 2020

मौजों पे बहा करती है।'

मौजों पे बहा करती है।'


अजीब फितरत है ज़िंदगी की भी, 
हर एक सफ़हे पे रंग बदलती है।  

जैसा सोचिए वैसे ही नहीं चलती, 
हर कदम पे हैरान किए रहती है।  

समझते हैं पूरी हो चली अब तो, 
एक कहानी नयी शुरू करती है। 

तजुरबे काम नहीं आते इसके आगे,
जिधर चाहे  मौजों पे बहा करती है।  

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Wednesday, November 18, 2020

दरिया का पानी

 आकुल तट तोड़ बहा दरिया का पानी। 
खेत पात मेड बाड़ पार बहा पानी।। 

वर्षा ऋतू बीत गयी ठहर गया पानी।  
खेतों में छोड़ गया उर्वर चक माटी।।    

Monday, November 2, 2020

'सिद्धार्थ बुद्ध हो गए'

 
तुला के पलड़े कभी इधर कभी उधर डोलते रहे,  
बार बार अपनी ही ओर इंगित करते झुकते रहे।  

भारी भरकम बटखरे अपने ही पलड़े पर धरते रहे,   
घूम घाम अपने आपको ही दोषी साबित करते रहे।  

आठों पहर जागते सोते लांछित करते मथते रहे,  
फिर, फिर-फिर पलटते दोनों तरफ झूलते रहे।  

आखिर तोलन दंड की जद्दोजहद से पार हो गए, 
सत-असत गुण-दोष के गुम्फन कटते चले गए। 

दोष-भाव से मुक्त, हार जीत की अर्गलाओं से परे, 
मानो तप-तपस्या से मुक्त हुए सिद्धार्थ बुद्ध हो गए।   

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