Sunday, July 8, 2018

'हिलिए मिलिए'

Rakesh Tewari
Published by Rakesh TewariJuly 1 at 8:25 PM

'हिलिए मिलिए'

इस पथ पर यूंही हम आए,
नियति बनी, संग संग आए !!!
वो मधुर बहुल पल पल ऐसे,
कुछ हम पाए कुछ तुम पाए !!!!
कुछ मन भावन मृदु हास लिए,
कुछ रस भीने, परि-हास लिए !!!
जीवन यह, सम-रस ना बीते,
यह पुतला, श्याम श्वेत जैसे !!!!
कुछ भला करें, कुछ बुरा करें,
अपना बस इन पर कहा चले !!!
हमने कुछ तुमने ग़लत किए,
हम चूके, कुछ, तुम चूक गए !!!
कुछ बहियों-खातों में, मत भरिए,
कुछ सौदा सुलफ नहीं करिए !!!
छन छन प्रति फल मत गुनिए,,
कुछ जोड़ घटाना, कम करिए !!!
हम तुम कुछ गांठें क्यों बांधें,
भूलो तुम, हम कुछ. बिसराएँ !!!
कुछ, थोड़े पल यह बचे हुए,
कुछ, शिकवों में क्यों रगड़ाएं !!!!
कुछ दिन में डेरा उठ जाए ,
कुछ और तिज़ारत मत करिए !!!
जो बीत गए, वह रीत गए,
आगे बढ़ कर, हिलिए मिलिए !!!
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घुमरिया हो !!!


घुमरिया हो !!!

घेरि घूम फेरि आयीं, ये बदरिया हो !!!
फेरि झूम झूमै, निमिया दुअरिया हो !!!
फेरि फेरि, डरिया पे झुलवा झुलावै हो !!!!
फेरि आवा झूलि झूलि, झुलना झुमावै हो !!!
बहय बयार झोर, झोर, झक s झोर हो !!!!
फेरि फेरि, फेरि फेरि, फुहरा भिजाय हो !!!!
सोंधी सोंध कस फेरि नस्वाँ नसावै हो !!!!
पन-पन वारी आवै सुधियाँ सुधावै हो !!!!
फेरि बरखा बहार, फेरि फेरि आवै हो !!!
भीज भीज भीज भीजै मनवा भिजावै हो !!!!
फेरि आवा फेरि फेरि, पेंगवा लचावै हो !!!
फेरि पाके बगिया में, अमवा लूभावै हो !!!
फेरि भूल-भाल रार, फेरि फेरि आवा हो !!!
फेरि फेरि बरखा में, घुमरी घुमावा हो !!!
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'सब कहैं 'बहल्ला' जग जाना !'

'सब कहैं 'बहल्ला' जग जाना !'
एक बरस यूं बीत गवा,
करते अपने ही मन का!
आज पलट कर देख रहा
कैसे बीता कल बीत गवा।
कुछ लोग धरे दाहिना बाँया,
बिनु काजू कहे जैसन बाबा !
कहा रहै अब उरझयौ ना,
नहीं बंधे हम खूँटा मा !
कुछ मुखड़न ते परदा सरका,
कुछ बेमन का तकरार भवा।
उनक्यौ मति मा यहु ना आया,
अरझे हमहू गरियाय दिहा !
पन मान जाएं सोझै सोझा,
ऐसा अपनापन ना सूझा।
हमहू फिन हुर्रा हुमुक दिहा,
दीन हीन काहे समझा !
घर लौटा, धुर्रा पलट दिहा,
अपनै वाला गरदा चंहटा।
बोली बानी सब कुछ अपना,
अवधी अपनी अपना सगरा।
फिर लगा शनीचर पाँवन मा,
मलय देश डेरा डारा !
देखत भालत माला फेरा,
'चम्पा' का फेरा लगा !
लिखत पढ़त पल छन बीता,
मन चाहा जैसा जिउ छीजा !
कुछ लेख लिखा, थोरी कविता,
घर बैठे कुछ कुछ काशी मा !
बहु कृपा कीन्ह परचा छापा,
कुछ मान पाय कुर्सी साजा !
उई समझ रहे हमका भकुआ,
पन उंच नीच हमहूँ जाना !
कुछ मीत पुराने नए मिला,
भीत ढही कुछ नवा बना !
कुछ हम भूले कुछ वो भूला,
रिश्तन का तश्किरा मिला !
फिर विंध्य लगा कितना अपना,
अपनों से नेह मिला कितना !
गंगा-पद्मा का मेल दिखा,
सोनार देश सोना सोणा ।
मर मर कर जीने का फ़ंडा,
सबै मुबारक भर-भर हण्डा !
हम तो बस अतनै जाना,
जी-जी के मरना अच्छा !
वै उरझे अबहूँ पद पैसा,
जीवन उनको ही जीय रहा !
वै जीवै जस जीवन उनका,
हम जीय रहे अपने मनका !
कुछ दोस्त 'निठल्लन' में पावा,
फिन, शुरू भवा आना जाना !
एक संघ बना वहु अनजाना,
सब कहैं 'बहल्ला' जग जाना !
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मौसम और वक्त - बड़े बेगाने

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.6: मौसम और वक्त - बड़े बेगाने
(खत का आखिरी सफा)
फिर से बादल बरसने लगते इसके पहले ही हमने पघमान का एक फेरा लगा लेना बेहतर समझा। सामने नज़र आ रहे करीने से सँवारे गए बाग़ के साथ विलायती अंदाज़ में बना ऊंचे गेट, के आगे फीर (सनोबर; देवदार), पॉपुलर और अखरोट के दरख्त। सामने ऊपर उठती वादी, उससे ऊपर ऊंचे पहाड़। बाएं बाज़ू हरहराता हुआ नीचे उतरता दरया-इ-पघमान।
दरअसल हिन्दूकुश की छाँव में इस नायाब मुकाम पर पहलम पहल बसा एक छोटा सा गाँव सदियों तक अपने ही पुरसुकून माहौल में जीता रहा। यहाँ की असल आबादी में शामिल रहे ज्यादा पश्तून और उनसे कुछ कम तादाद में ताज़िक मूल के बासिन्दे। फिर, युरोपियन तांबे दारी या तहज़ीब के असर से उनकी नक़ल का जो दौर चला उससे यह मुल्क भी अछूता नहीं रह पाया। भले ही जंग के मैदान में अफ़ग़ानियों ने अंग्रेज़ों से जमकर कटमजुज्झ किए हों, 1919 में उन्हें हारने के बाद जब उस फतह की यादगार तामीर कराने की बात आयी तो 1928 में बेग़म सहित विलायत से पलटे अमनउल्ला खान ने यह काम अपने साथ लाए विलायती हुनरमन्दों के हवाले कर दिया, जिन्होंने पेरिस के आर्च ऑफ़ विक्टरी की नक़ल करते हुए पघमान का यह दरवाज़ा तामीर कराया। इस तरह यहाँ के खांटी देशी मंज़र पर युरोपियन छाप चस्पा हो गयी। इसके बाद सैलानियों की बढ़ती आमदरफ्त के साथ यह जगह देशी विदेशी शौकीनों की सैरगाह में तब्दील होता गया।
तीन-तीन अफगानी किराया चुका कर हम अगली बस में कोटे संगी के लिए सवार हो कर जिस रास्ते से आए थे उसी पर लौट पड़े। खिड़की से बाहर साथ साथ बेतहाशा उतरते दरया की रवानी पर नज़र गड़ाए खामोश अपने आप में डूबते ही तुम्हारी याद आने लगी।
अफ़ग़ानिस्तान में पघमान जैसी हरी-भरी वादियां और खलभलाते पानी वाले दरया गिनती के और कम दरमियानी ही हैं। जितनी दूर बहता है खूबसूरती बिखेरता हुआ दरया-इ-पघमान नीचे उतर कर काबुल-दरया में समा जाता है।
शर्मा जी और संधू से तुसी-मुसी करते और चुहलबाज़ी में मस्त श्याम जी ने बातो बातों में पता पा लिया अमृतसर से काबुल आने वाली उड़ानों में पंजाब और हिन्द के दूसरे सूबों से आने वाली ठसम-ठस सवारियों का सबब। सबका एक ही मकसद होता है - परदेश जा कर पैसा कमाना। अफ़ग़ानिस्तान का वीसा तो हवाई अड्डे पर उतरते ही फौरी हासिल हो जाता है लेकिन आगे ईरान और पश्चिम एशियाई देशों की गाडी अटक जाती है। अपने यहाँ के कुछ एजेंट पैसे वसूल कर नौकरी के लालच में फंसा कर यहां तक तो ले आते हैं उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर रफू चक्कर होने के लिए। कोई कोई तो आगे के जाली वीसा भी थमा देते हैं। इसके बाद इन्हें अपनी समझ, बलबूते और स्थानीय हिन्दुओं और सिखों, मंदिर-गुरुद्वारों के सहारे ही आगे का रास्ता बनाना पड़ता है।
इस तरह यहाँ आ कर अटक कर गली-कूचों में भटकने वालों की दुर्दशा देख हमें बड़ा अफ़सोस हुआ। पैजामा, कमीज और हवाई चप्पल में भटकते ऐसे लोग आसानी से पहचाने जाते हैं। यहां के बासिन्दे - अफगानी - हिन्दू दोनों, और अपनी सफारत के लोग इन्हें शाबाशी की निगाहों से नहीं देखते। इनमें भी सबसे आसानी से पहचाने जाते हैं पग्गड़-दाढ़ी वाले सिख साहबान, इसलिए कुछ ज्यादा ही होशियार बन्दे काबुल में उतरते ही अपनी पहचान से निजात पाना बेहतर समझते हैं, संधू जी से पता चला कि वे भी उन्हीं में से एक हैं । हाँ दाढ़ी मूंछों वाले कद्दावर 'मोने' और दूसरे पठानों से मिलती जुलती शक्ल-ओ-सूरत वालों केलोकल लोगों में आसानी से खपने में देर नहीं लगती। यहाँ तक कि बढ़ी हुई दाढ़ी और उर्दू बसी लखनवी जुबां की वजह से अक्सर लोग मुझे भी पाकिस्तानी पठान समझने की गलती कर बैठते हैं।
नीचे कोटे संगी का मौसम पघमान घाटी से उलट गरम और खिली हुई धूप और उधर ऊपर के पहाड़ सफ़ेद लिहाफ जैसी ताज़ा गिरी बरफ की परत से ढके दीखते। यह मौसम और वक्त भी बड़े बेगाने हैं। जब तक दिलकश वादियों में मन रमा, बरफीली बारिश का दौर चल पड़ा, और जब वहाँ से दूर आ गया तो अपने सलोने सुनहले रूप दिखला कर पास बुला रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे यहाँ आने के फेर और बदलते हालात में तेरे पास इत्मीनान से बैठ न सका, और दूर आ कर फिर से मिलने के मनसूबे बाँध रहा हूँ। देखते हैं फिर कब वैसा ही वक्त मिलता है।
काबुल से कहीं बाहर निकलने की सोच रहा हूँ। श्याम जी यहीं काबुल में रहेंगे, उन्हें ज्यादा कूद फांद में दिलचस्पी नहीं इसलिए अकेले जी जाऊंगा। जहां कभी भी गया, अगला खत वहां से लिखूंगा। बहुत रात निकल चुकी है यह खत यहीं ख़त्म करता हूँ। इसके साथ पघमान का एक ग्रीटिंग कार्ड भी है। कल एम्बेसी के डाक वाले थैले से भेजने का जुगाड़ बैठाएंगे। उम्मीद है तुम तक जल्दी पहुंच जाएगा। मिलने पर अपना हाल लिख भेजना। इन्तिज़ार रहेगा।
आगे जहां कभी भी जाऊंगा, अगला खत वहां से लिखूंगा।
हमेशा तेरा
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(पहला खत पूरा हुआ )
फोटो : 1. ग्रीटिंग कार्ड से
२. source: http//www.worldbanknotescoins.com/2015/06/afghanistan-20-afghanis-banknote-1977
३. A street scene in downtown Kabul, 1977. Credit Bill Borders/ The New York Times

अफ़ग़ानिस्तान 6.5: 'आइडियल कम्पोजीशन'

Rakesh Tewari
Published by Rakesh TewariJune 3
अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.5: 'आइडियल कम्पोजीशन'
(खत अभी जारी है )
मंज़िल से पहले ही हम बस से उतर कर अगल बगल आमने सामने का जायजा लेने की नीयत से, पैदल ही चल पड़े। नया मुल्क, नयी सरजमीं, नए उत्साह से भरे, बदलते मौसम के साथ।
अभी-अभी पिघल कर सरक चुकी बरफ से उबरे ठूंठ जैसे दरख्तों की खूबसूरत कतारें। नयी बहारों की दस्तक दे रहे खिलते फूल और कुछ शाखों पर फूटती नयी नरम नन्हीं कोपलें। काले-नीले-भूरे सपाट पहाड़ों पर कहीं कहीं बड़े बड़े मोती के मोटे मोटे मनकों या शीशे की झालरों जैसी लटकती बची खुश बरफ दिख जाती। बगल से हरहराता हुआ, पत्थरों में उलझता उछलता, दूधिया झाग उठाता, दोनों किनारों की हरियाली को गूंथता, तेज़ धार बहता उमगता दरिया का पानी। ढलान की हरियाली के बीच बीच से बह कर आती चमचमाती पतली धाराएं दरिया में समाती। बला का दिलकश नज़ारा । एक बाग़ में दिखती बुलन्द इमारतें, गाँव में बने ऊंचे नीचे मुकामी मकानात। लाल लाल सेब जैसे गालों वाले मासूम बच्चे। लम्बे चौड़े कद्दावर अफ़ग़ान, बाज वक्त दरया से पानी भरती मोहतरमाएँ। बाकी पसरा हुआ सन्नाटा।
पहाड़ी ढलान पर लपटती, ऊंची होती डगर पर गधों का कारवाँ। हम भी उसी रास्ते लग लिए। शर्मा मास्टर ने कारवाँ के साथ चल रहे अफ़ग़ान से जाने क्या तोड़ मोड़ कर बोला। उसने जवाब दिया - 'दर्रा-ई-पघमान'।
पहाड़ पर पड़ी बरफ अपनी ओर बुलाती लुभाती लगी। लगा थोड़ी ही देर में छु लूंगा, ठीक उसी तरह जैसे दूर ऊपर भेड़ चराने वाला बाचा उससे खेलता दिखा।
पहाड़ की चोटी पर अब भी दिख रही सख्त बरफ। काले भूरे घनेरे बादल रह रह कर घेरने लगे। बीच बीच में झीने होते तो खिलती धूप से उन पर रुपहली सुनहली चादर सज जाती। मन करता चलते जाओ, चलते जाओ, बेफिकिर, यहाँ के खानाबदोशों की माफ़िक।
तब तक बादल टपा-टप टप-टपाने लगे। कहीं मुंह छुपाने की जगह नहीं। शर्मा मास्टर और सन्धू की पश्तो काम ना आयी। अफ़ग़ानों ने खारिजी (विदेशी) लोगों को दहलीज़ पार करने की इज़ाज़त नहीं दी, अंगुली उठा कर पघमान का रास्ता दिखा दिया। उधर बढ़ते हुए रास्ते के बगल के एक शेड के नीचे पनाह मिली जिसकी दीवार पर तफरीहन वहाँ आने वाले सैलानियों के कोयले से लिखे नाम दिखे। फाहे जैसी बरफ पत्ताते हुए धरती पर बिछने लगी।
थम कर बैठते ही तुम्हारी याद घुमड़ने लगी, साथ होते तो बताते काबुल क्यों बुझा बुझा लगता रहा और वहां की कुदरती खूबसूरती की गोद क्यों दीवाना बनाने लगी। सांसारिक सामजिक बंधन भी कैसे ----- कोई समझता क्यों नहीं हमारे मन के भाव ---- हमारे ज़ज़्बातों को ------ ।
बरफ थमने के बाद भी बूँदाबादी और चमचमाती बिजली की कड़कड़ाहट जारी रही। हम बरसते पानी में ही चल चले। मास्टर शर्मा जी यूं तो डर को कुछ नहीं समझते लेकिन घर परिवार की फिकिर में बिजली की कड़क के साथ सहम जाते। सन्धू चुप, बाकी सब भी चुप, इतनी चुप्पी हमारे चुहलबाज श्याम जी को तनिक भी रास नहीं आयी सो उन्होंने मनहूसियत भगाने की गरज़ से शर्मा जी से गाने की फरमाइश कर डाली। हमने भी इसरार किया। फिर शर्मा जी ने पूरे तरन्नुम में, वो बोल उठाए जो सारे हिन्द, अफ़ग़ानिस्तान, रूस और मध्य एशियाई मुल्कों के अलावा दूर दूर तक के लोग ज्जहूम झूम कर गाते हैं: -
"चलते जाएं हम सैलानी, जैसे इस दरिया का पानी।"
इन बोलों के लहराते ही सारी चुप्पी वाला माहौल हवा हो गया। अगली कड़ी के साथ हम सब ने भी उनके सुर में सुर मिलाया -
"खुली सड़क पर निकल पड़े हैं अपना सीना ताने।"
उत्साह से भर कर शर्मा जी और ऊंचे बोल में स्टाईलिश अंदाज़ में गाने लगे -
"मंज़िल कहाँ कहाँ जाना है ऊपर वाला जाने।"
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"मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंग्लिश्तानी,
सर पे लाल टोपी रूसी -----------------------"
तब तक ऐसी जोरदार आवाज़ के साथ बिजली कड़की, मानो पूरा पहाड़ ही टूट पड़ा हो। सकपकाए हुए शर्मा मास्टर के बोल उसी में डूब गए, चेहरे पर सफेदी तैर गयी। सन्धू हंस पड़े तो शर्मा जी समझाने लगे - 'मेरे को अपनी नहीं तेरी फिकर है सन्धू, तेरे बाप से तेरी सलामती का वादा करके तुझे साथ जो लाया हूँ। फिर घर वालों की भी चिंता है, मुझे कुछ हो गया तो उनका क्या होगा।' फिर बताने लगे - 'एक बार ग्वालियर के पास लगे एन सी सी कैम्प में घुस आए तेंदुए को घेर कर स्टेन-गन से शूट कर चुका हूँ।"
हैं ना शर्मा जी मज़ेदार चीज़ !!!!!!
बातों बातों में बरसात थम गयी। पघमान करीब आने लगा। श्याम जी ने यादगारी तस्वीर उतारने के लिए झोले से कैमरा निकालते हुए हमें एक किनारे कतार में खड़े होने को कहा। मैंने अपनी जैकेट झटक कर दोबारा पहनी, शर्मा मास्टर ने अपनी टाई संभाल कर कोट की ऊपर वाली जेब में रूमाल सजाई और धूप वाली ऐनक चढ़ा कर दोनों जेबों में हाथ डाल कर पोज़ बनाया, श्याम जी ने बगल से गुज़र रहे दो दस्तारबन्द अफ़ग़ानों को इशारों से बुला कर दोनों बगल खड़ा कर के 'आइडियल कम्पोजीशन' तैयार कर लिया ।
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(खत अभी जारी है )