Wednesday, April 1, 2020

यूं ही, 'चला जाएगा'

"यूं ही, 'चला जाएगा' !!" 01.04. 20 

ले-दे के,
एक ही. तो है,
अपना अंतर्मन।
और वह भी,
बेलाग बहा जाता है।
कभी यहाँ, कभी वहां,
बहकता।
पगिया पर, डाँड़ों में,
वन-वादी, कंदरा,
पर्वत-प्रपातों में,
घने- घने गाछों में,
झुरमुट में।
बंजारे डेरों,
लुटेरी निगाहों,
रहजन बटमारों में।
उजली रातों,
तारों भरे,
गहरे नील-गगन
दरो दर, सरायों में,
असल और ख्यालों में,
टुकड़ा टुकड़ा बसता।
मुकाम आते,
अटकते, छूटते,
चलते जाते।
सुजनों सुकृतियों में,
मीठी खटमिट्ठी,
बतियों में
रमते बंटते, बटोरते,
थोड़ा सा ही
बचा रह गया है।
पता नहीं !!
कभी कहीं
टिक भी पाएगा,
मुकम्मल !!
या फिर,
बोरसी में ढांपी,
छुपी छुपाई झांपी,'
सझाने की, चाहत भिनाए,
यूं ही, 'चला जाएगा' !!!
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