Friday, November 25, 2022

3. दो अक्टूबर 2022 


'बाड़ी' से थोड़ी ही दूरी पर उसी सड़क पर आगे नसीराबाद गाँव मैं यही कोई 1200-800 वर्ष  पुराने 'आस्तीकन बाबा' और 'कल्पा देवी' के ऐसे इष्टिका-मंदिर स्थित हैं जिनकी जोड़ का कोई मंदिर गंगा के उत्तरी भूभाग में कहीं नहीं । इनकी अत्यंत सुन्दर वास्तु-कला, नक्काशीदार अलंकृत ईंटों और  दीवारों पर लेपित महीन प्लास्टर पर निरूपित महीन कलाकारी के तो क्या ही कहने। लता-वल्लरियों, लघु चन्द्रशालाओं, पद्म-पत्र, घट के अंकन निरखने वालों की पलकें नहीं ढुलकतीं । देश के सबसे प्रमुख तीर्थों में सम्मिलित नैमिषारण्य, महर्षि दधीचि की तपोस्थली माने जाने वाले मिश्रिख भी बहुत दूर नहीं।    

सिधौली बस-स्टेशन का अहाता साफ़-सुथरा व्यवस्थित दिखा लेकिन परिसर के पश्चिमी दक्षिणी कोने का सूनापन साल गया। आँखें तलाशती रह गयीं कभी वहां गुलजार रहने वाली चाय-समोसे-मिठाई की दूकान जिसमें बिका करती थी इलाके की  'पलंगतोड़' नाम से मशहूर दूध की मिठाई। 'रेलवे लाइन' की तरफ वाली सड़क से लगी छप्पर-छानी वाली दुकानें भी नदारद दिखीं। 

सीतापुर जाने वाली सड़क पर अगले चौराहे से दाएं हाथ मुड़ने वाली पक्की सड़क के साइनबोर्ड़ पर मोटे हर्फों में लिखा 'बिसवां' पढ़ कर उधर मुड़ते झुरहरी छूट गयी। करीब-करीब चौवालीस बरस बाद अपनी जन्मभूमि की ओर ले जाने वाली उस सड़क पर आगे बढ़ते हुए कहने-लिखने से परे भाव जागते रहे। यहाँ से बिसवां तक की सड़क पर चलना भीतर संचित युग में पैंठते चले जाने जैसा रहा। पहले ही कदम से लगने लगा उधर की दुनिया बहुत आगे बढ़ कर बदल चुकी है।  

सड़क के दायीं ओर पूरनपुर की  गड़ही के जल-तल पर पड़ा हरे रंग का जाल। गर्दा-चहला-गड़हा वाली सड़क पर हचर-हचर चलने की जगह चमचमाती पक्की डामर वाली रोड पर आराम से चलते हुए।  नयी बनी रिहाइशी बिल्डिंगें, एटीएम, कालेज , पेट्रोल पम्प। बिलकुल ही बदली हुई दृश्यावली।  पुरानी यादों में समाए सड़क के दोनों ओर बचे रह गए छतनार पेड़ों ने  समझाया कि लखनऊ से सिधौली तक की फोरलेन रोड सूनी-सूनी सी क्यों लगती रही !!  सरपट गाड़ी दौड़ाने के लिए खासी चौड़ी जगह पर ढंग के डिवाइडरों पर सलीके से रौंपे गए झाड़-पौधों के बाद भी।  काश ! ऊंचे गझिन पेड़ों की डालों की छतरी के नीचे से गुजरने का एहसास भी पहले जैसा हो सका होता। 

छोटी-मोटी बाज़ार की दूकानें, जब तक टटोलते 'सीता रसोई' की पुरानी इमारत से आगे निकल गए। नव निर्मित तालाब, बदली राजनीति के निशान 'छीता पासी द्वार', 'अम्बेडर द्वार' देखते पार कर गए खमरिया पुल। सोचते रहे पता नहीं अब भी यहाँ रात में राहजनी  होती होगी या नहीं। आगे तकरीबन भठ चुकी नहरिया में बहता पानी याद आया। उसी से सट कर लगी बाज़ार की रौनक देख कर कभी वहां पसरा रहने वाला सन्नाटा याद आया।  सुबह की सैर पर यहाँ तक टहलने आने, टपका-जामुन बीनने के दिन याद आए।  

टिकरा के मंदिर के सामने की दशा देखकर एकबारगी हक्क रह गया। इत्तिर बुलंद रही एक विशाल हवेली। मेरे पिता जी के दोस्त टिकरा रियासत के तालुकेदार राजा अजय प्रताप सिंह की रिहाइश। ऊंचे फाटक वाले लकड़ी के दरवाज़े के अगल-बगल दोनों ओर चौहद्दी के किनारे बने अस्तबल की बाहरी दीवारें। बचपन में हम अक्सर अजय चाचा के बच्चों के साथ हवेली में खेलने आते । उसके सामने वाले हिस्से में राजा साहब के परिवार के लोगों द्वारा शिकार में मारे गए बाघों की भुस भरी ट्राफियों में लगी कांच की चमचमाती आँखें याद आयीं। बहुत याद आए छत से लटकते झाड़-फानूस जिनके बहुकोणीय क्रिस्टल तोड़ कर सूरज की रौशनी में सतरंगी आभा देख देख कर चकित होते रहते।  जिनके साथ खेलते उन भार्गवी दीदी, पिप्पी और पाकू राजा के चेहरे उसी तरह दिखने लगते। दिल में बसी उस चहकार जगह पर हवेली का नामो-निशान तक नहीं पा कर गहरी उदासी में सन्न रह गए। 

पता चला जीर्ण-शीर्ण टिकरा-हवेली की एक-एक ईंट बिक चुकी है। अब उसी जमीन पर रिहाइशी मकानों के लिए काटे जा रहे प्लाट देख कर लगा ज़मीन पर नहीं जिगर के टुकड़े कट रहे हों। मंदिर के आसपास लहराने वाले मोर भी कहीं नहीं दिखे। जिस जगह पहुँच कर हमारे चेहरे चमकने लगते उसे देख कर कभी, कितनी मनहूसियत ने घेर लिया वहीँ । सफर में आते दिलकश मुकामों तक पहुँचने की गहरी चाह, पहुँच कर ठहरने-मुग्ध होने, फिर  बिछड़ने की कलख समेटे आगे बढ़ने की नियति असल जीवन के सफर की तरह ही होती है।  

'राजा डीह' तक पसरा रहने वाला सन्नाटा तलाशते हुए याद आया एक बहुत पुराना वाकया। उस समय 'बिसवां चीनी मिल' में मुनीजरी कर रहे मेरे बाबा फैक्ट्री के काम से अक्सर इसी रस्ते लखनऊ आते-जाते रहते।  एक बार देर रात उनकी कार यहीं कहीं खराब हो गयी। थोड़ी ही देर में अँधेरे से प्रकट हुए कुछ लोगों ने कार को घेर लिया। अपने मूल स्वाभाव के मुतबिक बिना सोचे-समझे बाबा उन पर डपट पड़े - 'इतनी रात में तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो !! चोर-डकैत हो क्या !!' अब रहे तो सांचौ  वे लोग डकैत ही मगर बाबा की आवाज सुन कर उन्हें पहचान गए।  स्थानीय लोगों पर बाबा की बात ब्योहार के रसूख के चलते बस इतना ही बोले 'रात बिरात ऐसे न चला करौ बप्पा !!' उसके बाद बाबा उन्हें गरियाते रहे और वे चुपचाप उनकी कार को ढकेल कर बिसवां की 'रेलवे क्रासिंग' को क्रास करा कर वापस लौट गए। सोचता रहा क्या  ऐसे डकैत अब भी होते हैं यहाँ !! 

'रेलवे क्रासिंग' के पार बाएं हाथ का 'रेलवे स्टेशन', दाएं हाथ गन्ना गाड़ियों की तौल के लिए ले जाने वाली कतारों के पीछे वाला दाख्खिन क्वार्टर जैसे छोड़ गए थे वहां से नदारद मिले। सामने की चुंगी-चौकी और बैरियर भी गायब। बरसात में बगल की 'रेलवे पुलिया' के नीचे से आगे खलार में आने वाली बहिया में जहाँ मछलिया उलीचने का खेल चलता वो भी नयी दुकानों के तले पूरी तरह से दब गयी । कुछ ही मीटर चल कर घूम गए दाएं हाथ फ़ैक्ट्री के फाटक की ओर, अपने जन्मस्थान के दर्शन की ललक लिए।  

जिस मकान में 1974 में 'साइकिल यात्रा' के दौरान अपने परिवार के साथ ठहरे थे बाहर से ही उसका दर्शन करके सबर करना पड़ा। अपने जन्म के अनन्तर जहाँ बचपन सहित सत्ताईस बरस आवास रहा हो उसे चौआलीस साल बाद वो भी बाहर से ही देख कर सबर करने की विवशता लिखने कहने से परे। दादी-बाबा माता-पिता के इस दुनिया में न रहने का शून्य बड़ी जोर से अकुलाने लगा। परिवारी-जनों, पड़ोसियों, संगी-साथियों बिन सब सून। बचपन के खेल, घटनाएं याद आ आ कर टीस भरी हुमुक में ढल कर सताने लगीं। फैक्ट्री के फाटक से आवासीय परिसर तक के जर्रे-जर्रे में भरी सुधियाँ ही सुधियाँ। कहाँ तक लिखें। फिर भी कुछ को साझा किए बिना रहा नहीं जाता।   

फैक्ट्री के 'प्राइमरी स्कूल' में पढ़ाने वाले 'अचारी जी'  खासी लम्बी चोटी रखते। अक्सर बच्चों को पहाड़ा रटने में लगा देते। एक तरफ मॉनीटर साहब के साथ बच्चे दो की दो, दो दुन्ना चार, दो तियांई छे ----- की सम पर मूड़ी हिला-हिला कर रट्टा लगाने लगते, उधर अचारी जी  पाँव पसारे कुर्सी की टेक लगा कर खर्राटे भरने लगते।  खुराफात में अग्रणी हमरे बड़के भइया ने एक दिन उनके साथ भी खेल कर दिया। अचारी जी के खर्राटे शुरू करते ही दबे पाँव उनकी चुटिया कुर्सी के पिछली टेक में बाँध आए। ये कारस्तानी देख कर भी मुस्कुराते हुए बच्चे पहाड़ा रटते अनजान जैसे बने रह कर आगामी घटना का इन्तिज़ार करने लगे। थोड़ी ही देर में अचारी जी की झपकी टूटने पर सर उठाते ही करारे झटके से खिंची चोटी की पीड़ा से पहले तो बहुत जोर से कराहे, फिर माजरा समझ में आते ही चिल्लाए - 'मा - s - (र) डारिस हत्यारु। यू बदमाशी ई ----- के अलावा  और कोई करि ही नहीं सकत। रहि जाओ, अबहिनै 
बताइत है पंडित जी से तुम्हार करनी । या तो तुमहे पढिहौ हिंया या फिर हमही स्कूल छाँड़ि दयाब।'  हंसी रोकने की जबरन कोशिश में  बच्चों का बुरा हाल हो गया।   

फाटक के बाएं बगल वाली फकिरवा की मिठाई की दूकान की नदारगी बहुत अखरी। बरसों से सुधियों में धड़क रहा एक और अहम अंग बुरी तरह आहत हो गया। फकिरवा के यहाँ मिलते थे चार आने में चार पेड़े, निखालिस दूध-खोए के स्वाद वाले। बाबा से जिद्दियाते पेड़ा दिलाने के लिए, वे फकिरवा की दुकान के लिए पर्ची पर लिख देते 1/2 पाव। हम उछलते हुए दौड़ जाते उसकी दूकान पर पेड़ा खाने। महीने के आखीर में फकिरवा सब पर्चियां बाबा के सामने रख कर सारा भुगतान एक साथ ले जाता। एक बार ऐसा हुआ कि पर्चियों का टोटल देख कर बाबा उखड़ गए - 'अबे फकिरवा !! इतना पेमेंट कैसे हुआ !! इतना पेमेंट कैसे हो गया रे। चोर-बेईमान। फर्जी पर्ची बना लाया है।  हमें बेवकूफ समझता है क्या। मार मार के उत्तू बना दूंगा।' ऐसे में वैसे भी बाबा के गुस्से और धारा-प्रवाह गालियों के आगे  फकिरवा बेचारा क्या बोलता ! चुपचाप सुनने के अलावा। बाबा का क्रोध उतरा तो एक-एक पर्ची उठा-उठा कर ठीक से देख कर सहज भाव से बोले  - 'दस्खतवा तो हमरै है !! केतना पेड़ा खा गए ई लउंडवे !' और फकिरवा का पूरा भुगतान कर दिए। असल में इस कारस्तानी के पीछे भी बड़कन्नु ही रहे। बाबा पर्ची पर लिखते 1/2 पाव और बड़कन्नु आधा के आगे एक बढ़ा कर कर देते एक सही एक बटा दो (1-1/2) पाव, कुछ पर्चियों पर तो बाबा का दस्तखत भी बना देते। पर्चियां देख कर बाबा समझ तो सब माज़रा गए मगर चुप लगा गए, बड़कन्नु खानदान के बड़े लरिका और उनके दुलरवा जो रहे।

और भी बहुत कुछ याद आता रहा। बहुत याद आए मंदिर स्कूल के प्रिंसिपल सौम्य सरल श्री कृष्ण स्वरुप अग्रवाल, श्री गजराज सिंह यादव, मुंशी जानकी प्रसाद, चंद्र किशोर अवस्थी  और श्री हरद्वारी लाल वर्मा। कस्बे में गुरु पड़रिया, बाबू कृपा दयाल श्रीवास्तव, जगन बाबू, बबुआ चाचा, अब्दुला बाबा, झक्खड़ी महाराज, हवलदार शीतला प्रसाद सिंह, अजुधिया बाबा, पंडित राम उजागिर।  एक-एक व्यक्ति एक-एक अध्याय समेटे। लिखने लगें तो एक अलग किताब बन जाए।  

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Thursday, November 24, 2022

2. दो अक्टूबर 2022

'पहियों के इर्द गिर्द': 'कीढा पासी': ' नरोत्तम दास - सीस पगा'

साइकिल पर सवार हम तीन दोस्त 1974 में लखनऊ से चले काठमांडू के लिए। तब हमार उमर रही कुल बीस बरस। पहला पड़ाव सीतापुर जिले में बिसवां स्थित अपने जन्म-स्थान पर ही डाला था। उस पर लिखी किताब - पहियों के इर्द गिर्द - पहला संस्करण भी जन्मदिन की तारीख भी २ अक्टूबर १९७६ रही। उस दिन तेइसवें वर्ष की आयु में कदम रखा था।

वो यात्रा पूरी हो कर भी पिछले अड़तालीस साल से अंतर्मन में चलती चल रही है उन्हीं रास्तों और मुकामों पर। इस बीच दुनिया बदल चुकी है मानसिक और भौतिक दोनों रूपों में। जवानी के वो दिन कब के पार कर चुके हैं सीनियर सिटीज़न के मुकाम से आगे भी नौ बरस आगे बढ़ आए हैं। इस वे में बचपन की सुधियाँ कुछ ज्यादा ही सताती हैं इस उम्र में। विधाता के विधान बड़े विचित्र हैं, कुल 80-85 किमी की दूरी पर लखनऊ में रह कर भी भी बिसवाँ जाने का प्रोग्राम जाने क्यों बार-बार बन-बन कर टलता रहा। लेकिन इस बार पहुँच ही गए उसी दर पर ।
उनचास साल पहले और अब की दोनों यात्राएं एक ही जगह से, एक ही भूभाग पर, बहुधा उसी रास्ते से तय की गईं। मगर इस बार का सफर अलहदा तजुर्बों से गुजरा। तब चले दो पहिया साइकिल से, इस बार चौपहिया कार से। तब जवानी की तरानी और ताकत से भरपूर, इस बार भी हौंसले वैसे ही मगर तन की सीमाएं। तब, जब मन चाहा निकल पड़े, आगा पीछा ज्यादा सोचे समझे बिना ही। साइकिल पर झोले लटकाए, कुछ रूपए जेब में रख लिए बस। इस बार सालों खुरखोदने के बाद पूरी प्लानिंग से पूरे साजो सामान के साथ मतलब भर धन का जुगाड़ करके निकले।
तब तीसरे पहर के बाद चल कर आधी रात में पहुँच सके थे पहले पड़ाव तक। सीधे रास्ता नापने की धुन में । तब आम तौर पर अगल बगल से बेखबर जाने-पहचाने रास्ते पर पैडिल दबाते जल्दी जल्दी बढ़ते हुए। फिर भी लग गए करीब छे-सात घंटे। अबकी बार फर्राटा भरती कार में उतनी ही दूरी तय कर ली कुल डेढ़ घंटे में ही मगर उतनी ही देर में उतनई ही दूरी वाले रास्ते में पहली बार से कहीं ज्यादा देखा और उससे कई गुना ज्यादा दूरी का सफर तय किया अंतर्मन में बसे युगों लम्बे सुधियों के पथ पर। उन्हीं जगहों को चकर-मकर ताकते पूरी तरह बदल चुके पहलुओं में खोए हुए। गुजरे पांच दशकों से ज्यादा वक्त में जुटी जानकारियों के परिप्रेक्ष्य में आंकते हुए।
लखनऊ से बक्शी तालाब तक का तब का सूनसान रास्ता चहल-पहल से भरा झट से पार हो गया। सिविल डिफेंस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के पूरब में एनसीसी कैम्प वाला निर्जन इलाके में बैनेट-फाइटिंग और मशीन गन चलाने की तालीम पाने के दिन याद आए मगर वो जगह नई बानी ऊंची इमारतों की आड़ में कब निकल गयी इसका आभास एक नहीं मिला।
आँखे तलाशती रहीं सड़क के किनारे वाला वो कुंआ। नयी बानी दुकानों में गायब हो गया या छुप गया। वो बात अब तक बीत गयी। पचपन बरस से भी वाली सुधियों में से उभर आए पुराने वाकये। बिसवां से लखनऊ तक अपने बाबा के साथ जीप से आने वाले दिन। रिटायर्ड फौजी बड़ी बड़ी मूंछों वाले बैसवारी ठाकुर साहब बगल में दोनाली बन्दूक रख कर स्टेरिंग संभालते। सिधौली तक गड्ढे वाली 28-29 किलोमीटर कच्ची और उसके आगे की 35 किमी पक्की मगर खस्ता हाल सड़क पर बख्शी का तालाब तक धूल के गुबार में पूरी तरह धूसरित हो जाते। ठाकुर साहब स्टेशन के पास वाले कुंए से लगी सड़क के किनारे रुकते। लोटा डोर लेकर कुंए से पानी निकल कर अपने हाथ मुंह धोते, फिर हमें भी तरोताज़ा करवाते। दिल ढूंढता रह गया फिर वही दिन।
इटौंजा के पेड़े वाला मुकाम निकल गया सर्र से पार हो गया बजरिए फ्लाई ओवर। फोर लेन वाली सड़क के डिवाइडर पर मंझले पेड़ों की पौध के बीच शिद्दत से याद आये कीढा पासी। पास ही में कुम्हरावां गाँव के पास जहाँ अब अग्रज इंद्र भूषण सिंह का फॉर्म-हाउस देखने जाते हैं। उसी गाँव के समाजवादी नेता राम सागर मिश्र के नाम पर लखनऊ की जिस बसावट का नाम रखा गया उसे ही नाम पलट वाली राजनीति के चलते बाद में इंद्रा नगर कर दिया गया। हो सकता है आगे उसी का नाम कुछ और धरा दिया जाए। राम सागर मिश्र जी की याद के साथ याद आने लगे उनके अग्रज लम्बे छरहरे धनुही सांठा धारी ऊँचे कद वाले पंडित बद्री बिशाल मिश्र जी की ऐंठी हुई धवल मूंछें। उन दिनों मेरे पिता जी वहां एक ऐग्रिकल्चर-फॉर्म की देख रेख के सिलसिले में उनके साथ वहां जाते रहते। लखनऊ युनिवर्सिटी में हमारे समय में कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता रहे इसी गाँव के निवासी और मिश्र जी के भतीजे श्री अशोक मिश्र भी याद आते रहे। उन्हीं दिनों इन्हीं लोगों में किसी से सुनी 'कीढा पासी' की कहानी तबकी सामजिक बुनावट की बानगी बखानती है।
'उस ज़माने के नामी डकैतों में गिने जाने वाले कीढ़ा पासी ने अपने वसूलों के चलते बड़ा नाम कमाया। एक बारअंधेरिया रात में बाराबंकी के किसी गांव में डाका डालने के इरादे से किसी घर की छत पर घात लगा कर बैठ गए। वहीँ से उन्होंने आहट पा कर घर में चल रही औरतों की बातकही सुनी। उन बातों से उन्हें पता चला इस घर में तो उनके गांव की बिटिया ब्याही है। ये जानते ही उन्होंने उस घर में डाका डालने का इरादा रद्द करके दल-बल सहित लौट आए। कुम्हरावां पहुँच कर बिटिया के बाप से सारा मामला बयान करते हुए माफ़ी मांगते हुए बोले - 'बड़ा भरी पाप करै से बचि गएन दादा !! अपनेन गाँव की बिटिया केरे हिंया डकैती डारै पर लगा पाप अगल्यौ जनम तक नाहीं छूटत। रामै जी की किरिपा तेने बचि गेन।'
सही ही कहा गया है जब तक जहाँ रहिए उस इलाके की वकत समझ में नहीं आती। वही जगह लम्बे वक्त तक कहीं और प्रवास करने पर बहुत अपनी अपनी लगने लगती है। वहीँ रहते हुए सामान्य सी लगने वाले उसी इलाके की विशेषताएं ज्यादा उजियार दिखने लगती हैं। बरसों इसी रास्ते पर चलते समय जिधर कभी ध्यान नहीं गया उनको संजोने लगा। आम तौर पर नखलउआ वालन की नज़र के फोकस से बाहर रहै वाले इस इलाके की महत्ता कहाँ जान पाएंगे जब वहीँ के जन्मे बाढ़े हमही कभी एकवट नहीं सोचे।
सिधौली से नैमिषारण्य जाने वाली सड़क का साइनबोर्ड पर लिखा 'बाड़ी' नाम पढ़ते ही गुनगुनाने लगे -
'सीस पगा न झगा तन पै, प्रभू! जानै को आहि! बसै केहि ग्रामा। धोती फटी-सी लटी-दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहिं सामा॥द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सों बसुधा अभिरामा। पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
आगे-पीछे खोपड़ी हिला हिला कर बचपन में रटने सुनाने की आदत के मुताबिक़ अब भी आपोआप हिलने लगे। पत्नी के आग्रह पर बालसखा श्री कृष्ण से मिलने उनके महल के द्वार पर पहुंचे दरिद्र ब्राह्मण सुदामा की दशा के चित्रण वाला ये सवैया रचा है सोलहवीं शताब्दी में बाड़ी ग्राम के निवासी नरोत्तम दास ने सुदामा चरित जैसे अमर काव्य में। हिंदी साहित्य का ककहरा भी पढ़ने वाला अथवा लोक परम्परा में तनिक भी दखल रखने वाला कौन नहीं जनता उनका नाम।

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1. दो अक्टूबर 2022 

 'कई आसमां हैं, इस आसमां से आगे --'

जन्मस्थान पर बीते बचपन किशोर वय की यादों की ललक खींच ले गई पिछले जन्मदिन दो अक्तूबर को वहीं । साढ़े बयालीस बरस बाद । उससे भी दो साल पहले साईकिल से वहां जाने का रास्ता भी फिर से देखने की जिज्ञासा जागी ।



पहुंच कर भावुक मन लिए जीने लगे दिल में संजोई मीठी खट मिट्ठी टीसती हूकती सुधियों में । वही आवास जिसके कोने वाले कमरे में जन्मे । सामने का लान, पेड़ पौधे, झूला, सुधियोँ में बसी छवियों में ढूंढने लगे।

खेलते-कूदते, पेंगें मारने या चुपचाप बैठ कर बुनते सपनों वाले वे दिन । तब की संवेदनाओं के हिलोरें। थिर तालाब के जल तल पर हल्की हवा की सिहरन सी ।
अपने आंगन में पाले परिंदों की फड़फड़ाहट, चोटिल कबूतर के सीने से रिस रहा खून पोंछ कर मलहम लगाने, बंदरों के उत्पात । हमजोलियों के साथ खेलने, रूठने, मनौनियों वाली बातें। किसी की मुस्कुराहट पर दिल आ जाने, घंटो बेमशरफ जाने क्या क्या बतियाने वाले दिन । कॉपी में चुपके से लिखी कविताएं नेह पातियां चुपचाप अकेले में खुद ही पढ़ कर रख लेने वाले बोल सुन पड़ने लगे । गुदगुदाने लगे ।
सबसे ज्यादा याद आए रातों में खुले आंगन में बिछी चारपाइयों पर लेटे लेटे आसमान में टिमटिमाते तारे । बाबा बताते उनके नाम और बताते कई आसमां हैं इस आसमां के आगे । सोचने लगता - चलें उड़ के चलें, उड़ते रहें उन्हीं में कहीं । '
उसी आवास के बाहर खड़े भर आए मन से सोचते रहे अब तो सचमुच आगे के आसमां में अकेले उड़ जाने के दिन आ रहे। आज देख लें मिल लें जी भर के । न जाने कब उड़ चलें ।
दो महीने बीतने को आए तबसे, जी रहा हूं बरसाती सोतों की तरह फूट रही उन्हीं उनीदी संवेदनाओं में। पलट पलट कर डायरी और सुधियों के पन्ने, नए सिरे से भर भर कर शब्दों में भर लेने लिख लेने को आतुर, सिमट ही नहीं रहे।
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Monday, November 14, 2022

 इधर न उधर, 

अधर में, 
व्याकुल व्यथित,
सौरमंडल में, 
भारहीन तिरता, 
तलाश रहा है, 
धरित्री से नाते की, 
असल डोर,  
जहां भी जैसी भी है।