Sunday, June 28, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय ४. ५

पारीमल - भारीमल


चना चबैना चबाते गोठनी के शिक्षक ने जहां से खरवार कथा छोड़ी थी वहीँ से उठा ली -  

'राजा मदन शाह नामक खरवार राजा जब बुढा गए तो उनको बड़ी चिंता व्याप गई कि स्वयम तो हत-पौरुख भए और राजकुमार अभी बालक हैं, अब अरना भैंसा का बली कउन देगा।   

इसी समय द्वारपाल ने राजा को सूचना दी - कुछ बीर दुआरे पर आए हैं, कहते हैं - लोहे की तलवार तो क्या हमार रेंगवे काठे की तरवार से अरने की बली चढ़ाय दें।  

राजा ने सुना तो अचरज में पड़ गया - ऐसा चमत्कार भी कोई कर सकता है क्या ? 
उसने राजाज्ञा सुना दी - काठ की तलवार से कोई बली चढ़ाय दे तो आधो-आध राज-पाट उसके नाम औ राजकन्या दान में। औ, जो न कर पाया तो मूडी कलम।  

द्वार पर आए बीरों का जत्था आया रहा महोबा के बीर चन्देलों का। उनमें रहे दू ठे रेखिया उठान भाई परिमल ओ भारीमल, बहुतै रूपवान औ प्रतापी। इन्हीं के दम पर अनहोनी को होनी करने की ठानी गई थी।  

राजा ने बन में से एक अरना पकड़ मंगवाया।  
दूर पास के गांवों के देवी-भक्त उमड़ पड़े। कोल, गोंड,  चेरों, बैगा, धारकार, भुइंहार, आदमी-औरत का रेला लग गया। 
दोनों राजकुमार बीर बाने में महिष बध को उतावले हुए जाते।  
उधर जुटान के मन में एक्कै सवाल - काठे की तलवार से भैंसा की बली !!!!!!!!!!

बड़के कुमार ने काठ की तलवार के एक ही झटके में आशंकाओं की भारी भीत ढहा दी।  
काठ की तलवार से लोहू टपकै टप टप। अरना का मुख देवी के चरन में लोटै।  
देखै वाले देखतै रहि गए। 
रजवौ देखै हैरान।  
बनवासिन कै जयकरा से धरती असमान कंपकपाय गइल। 

पारीमल-भारीमल अगोरी-राज से आधा राज पाए और मदनशाह की कन्याएं उनसे बियाही गयीं। कुपित खरवार राजकुमारों को यह सब जमा नहीं तो बलपूर्वक उनका हीसा लेने की कोशिश की लेकिन चंदेल कुमार ओन्हनौ के मुआए देहलैं। इस तरह पूरा अगोरी राज पर चन्देल सत्ता कायम हो गइल।'


लोक परम्परा में चन्देलों के अगोरी राज पर काबिज होने की दूसरी ही कहानी साथ चल रहे पढ़े-लिखे रूदन खरवार ने सुनाई - 

'महोबा से हार कर भागे चन्देल अगोरी के राजा मदनशाह की शरन में चाकरी करने लगे। अपने साहस के बल पर ओनहन के राज दरबार में अपनी पैठ बैठाते सेना में बड़ा ओहदा पाते देर ना भई। खरवार राजकुमारियाँ पारीमल-भारीमल के रूप पर रीझ गइलीं। राजा ख़ुसी खुसी ओन कर बियाह करि देहलें। ओहर राजा बूढ़ हो के माचा धै लेहलन तो पढ़े बदे बनारस रहै वाले खरवार राज कुमारन के राज-पाट सौंपे के बोलवाए के हरकारा भेजले। 
चलाक चंदेल मौक़ा लखि के खोट कइलें। आन्हर-बहिर राजा के सामने पारीमल-भारीमल के खड़ा कै के कहि देहलें कि राजकुमार आय गइलें।  राजा अपने लइकन के धोखा में ओन कर राज तिलक कै देहलन।' 

अब तक चुप्पी लगाए ध्यान साधे सुन रहे कुंवर ने अपनी टीप लगाई - 

'हूँ ! तो ये दोनों परम्पराएं इस इलाके में सत्ता की लड़ाई में शामिल चन्देलों और खरवारों के अलग अलग पक्षों की देन हैं। असलियत दूनों के बीच कहूँ होइहै।'

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Saturday, June 27, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय ४. ४

बनराज खरवार

अगले दिन गोठानी से आगे बढ़ कर अगोरी  मुख्य द्वार तक पहुंचे तो किले के सामने से दिखे कंगूरों के बीच से गोलीबारी के लिए बनाए गए ऊर्ध्वाधर संकरे सूराख और द्वार के बगल में स्थापित महिषासुर मर्दिनी का थान। 

गोठानी से हमारे साथ आये एक शिक्षक ने बताया कि - 

'इस इलाके में पहले 'अघोर* सम्प्रदाय' का बड़ा प्रभाव रहा। 'अघोरों के बाद यहाँ खरवारों का राज स्थापित हुआ।'

साथी गिरीश बताते हैं - 'इस अघोर संप्रदाय के उपासको 'अघोरियों' का पिछले वक्त के कापालिक सम्प्रदाय से रहा है। मानव-मुण्डों की माला और मुकुट धारण करने वाले कापालिक पार्वती के घोर रूप चामुण्डा देवी को मानव-बलि और मदिरा अर्पित करते रहे। शिव की एक उपाधि 'अघोर' का अर्थ संस्कृत में अ + घोर अर्थात जो 'घोर'अथवा भयानक न हो। अघोर मत आज शैव उपासना का सबसे कुख्यात रूप माना जाता है, विंध्याचल के निकट स्थित अष्टभुजा पर्वत इस मत का एक बड़ा केंद्र रहा है। इधर अगोरी अगर अघोरों का केंद्र रहा तो उधर सोन के उस पार घोरावल रहा घोरों की धुरी।'

इससे पहले कि बात आगे बढ़ती ग्रीसम सिन्हा ने एक सवाल दाग दिया - 

'ये 'खरवार' क्या होते हैं ? इनका नाम और इस राजवंश के विषय में तो हमने कहीं पढ़ा-सुना नहीं ।'

शिक्षक ने समझाया - 

' यहां बन में एक ठे गाझ हो ला जेकर नाम हौ 'खैर'। पान पर लगावै वाला कत्था एही के छाल से बना ला, ओही से पान खावै वालन के ओंठ हो जा लें लाल-लाल।'

बहुत बार सुने दिलकश गीत के बोल कानों में उतर आए - 'पान खाएं सइयां हमार ----'

शिक्षक की बात आगे बढ़ी - 'खैर से कत्था निकारै वाले बनवासी कहलाए 'खरवार'। जैसे जैसे बाढा पान खाए का चलन ओतनै बाढा खैर का व्योपार। जेतना बाढा खैर का व्योपार ओतनै धनी मानी होते गए खरवार। पैसा-दौलत बाढ़ल तो नौकर-चाकर परजा-परानी भी बाढ़े, फिर, ऊ बन गइलन बनवासी से बन के राजा। अगोरी बन गइल ओन कर रजधानी। पहलम पहल ई किल्ला ओही लोग बनवइले होइहन। तब इहाँ रहल होइहन आज से जियादा सघन बन औ सोन-ओ-रिहन्द में आज से जियादा साफ़ ओ बड़हर पानी। 

किल्ला के दुवारे की देवी खरवारन कै ईष्ट देवी रहलीं। अगोरी के राजा हर बरस बन से एक ठे अरना भैंसा पकड़ मंगववतें और तलवार के एक्कै वार में ओ कर धड़ लोटता एह बल्ले औ लोहू फेंकता सिर देवी के चरणों में।

खरवारन कै राज बढ़तै चलि गइल। उत्तर सो पार, पूरब खोड़वा के ओह लग्गे बिजयगढ, दक्खिन एक ओर सिंगरौली बलियापार, ओहर पलामू जिल्ला में गढवा-नगर उटारी, औ पच्छिम में बर्दी के आगे। चहुँ ऒर रहा बनराज खरवारन ही कै राज।'

इक्का-दुक्का चरवाह या बनवासी आते, देवी के सामने हाथ जोड़ वहीँ बैठ जाते या आगे का का पैंड़ा धर आगे बढ़ जाते। 

ढलती दो पहरी में पेट कुड़बुड़ाए तो गोठानी से लाए झोले में धरे बचे-खुचे चना-चबैना-गुड की याद जगी। 

आगे का हवाल सुनने से पहले, देवी  माथ नवां कर हम लोग पेट-पूजा में लग गए।  

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Thursday, June 25, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय ३.१२

ऐसी विदाई, कभी कहीं नहीं मिली 

राजगढ़ का सर्वेक्षण पूरा हो गया। प्रकाश में आए पुरावशेषों से साफ़ हो गया कि राजगढ़ ब्लाक में हज़ारों साल से मानव गतिविधियाँ ज़ारी रहीं आदिम आखेटकों-संग्राहकों (हंटर - गैदरर), आदिम चितेरों और खेतिहरों के बाद महाश्म (मेगालिथ) बनाने वालों के साथ या बाद में कम से कम करमा और पगिया गाँव के डीहों पर तकरीबन पच्चीस सौ बरस से काले लेपित पात्र (ब्लैक स्लिप्ड वेयर) और उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र (नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर) प्रयोग करने वाले आबाद रहे। जगह जगह मिलने वाली प्रस्तर प्रतिमाऐं, किले और मंदिर के अवशेष, पत्थर के कोल्हू, आदिवासियों और दूसरे समुदायों की बसावटें आज तक चली जा रही हैं। आम धारणा के अनुसार तीर कमान वाले आदिवासी यहाँ के मूल निवासी और बाकी सब बाहर से आकर यहां बसने वाले बहरिया* हैं।

जो नहीं मालूम हो सका वह ये कि खेती के प्रारम्भ, दूसरे इलाकों से सम्पर्क, व्यापारियों के आने-जाने की सही सही तारीखें और तवारीखें, कौन कब कहाँ से यहां आया और कब से चली आ रही हैं गुलाब जामुन की दूकानें।  

सामान बंधने लगा तब समझ में आया राजगढ़ से लगाव हो जाने का आभास, चलने का समय निकट जान मन उदास हो गया। कामगार भी भावुक हो चले। उस रात घर नहीं गए। लखनऊ जाने वाली चोपन एक्सप्रेस के आधी रात में लूसा स्टेशन पर आने तक के बकाया समय में एक ने जो खीसे और गीत सुनाए हमेशा के लिए याद हो गए - 

'बखत बखत की बात। एक ठे राजकुमार रहा, बहुतै सुन्दर औ भोला। ओकर महल बड़ा ऊंचा।  उसकी बहिन बड़ी प्यारी, बड़ी स्नेहिल।  दुन्नो हिल मिल के खेलैं।  उनके पिता सरल हृदय राजा, उनसे बड़ा प्यार करते। औ माई, तो माइयै हो ली। गाय गोरु एतने कि गिनी ना जाएं, दूध-घी एतना कि शुमार नहीं। फिन, बड़े भए तो बहिन बियाह के बिदा हो गयी दुसरे राज में।  

दिन बरस बीतत, इधर ऐसा बखत पलटा कि राज कुमार का सब राज पाट, धन-बैभव जाता रहा और बखत का मारा राजकुमार भटकता भीख माँगता कब बहिन की ससुराल में पहुँच गया उसे पता ही नहीं चला।  वह रो रो कर भीख माँगता रहा। उसकी टीस भरी आवाज़ बहिन के कान में पड़ी तो दौड़ के अपने महल की ऊंची अटारी से जा सटी। गाने वाले की आवाज़ उसे जानी पहचानी सी लगी लेकिन भीख मांगने वाला उसका भाई हो सकता है एकर तो ओके गुमानौ नहीं भया। राजकुमार गा - गा कर अपनी दुरदशा की कहानी सुनाता भीख माँगता रहा -

गइयां तो मरि गइ लीं -इ-इ ,
किदली के वन में -अ-अ-अ।  
भैसें जमुनवा के-अ-अ  
ती -अ -अ -अ र, जी -इ-इ-। 

गाएं कदली वन में और भैसें यमुना नदी के तट पर मरि गइलीं।  

घोड़वा तो मरि गइलीं - इ - इ 
कदम कै डरिया - अ -अ -अ 
हथिया लुवानिया कै -अ-अ-
डा -अ -अ -अ र, जी -इ-इ- । 

घोड़े कदम के नीचे मर गए और हाथी लुवानिया की डाल के नीचे।'  

हम सब दम साधे सुनते रहे। खीसा सुनाने वाले की वाणीं में और अधिक पीड़ा और व्यथा घुल गयी - 

'बाबू तो मरि गइलें -अ-अ 
पोखरवा भिटवा -अ-अ-अ 
माई तो मरि गइलीं - इ - इ 
महिलिया के बीच जी -इ-इ- ।

पिता पोखरा के भीटा पर मरे ओ माई महल के बीच में।  

बैला तो मरि गइलें -अ-अ
अपनी बखरिया -अ-अ-अ 
बखरी भई-इ-ई  
डहमा-अ-अ -र, जी -इ-इ- । 

बहिनी-ई-ई बियह गई,
बंसी के रजवा -अ-अ-अ 
भइया मांगत भीख-अ-अ 
दे-अ-स-अ-अ, जी -इ-इ- ।

बैल अपनी बखरी में मरि गए, बखरी सूनी हो गई। बहिन का ब्याह हो गया बंशी राजा से हो गया। और, भैया देश देश घूम घूम कर भीख मांग रहा है।'

अगली कहानी की भूमिका बनते बनते दूर से आती ट्रेन की रौशनी दिखने लगी। 

लूसा स्टेशन पर ट्रेन रुकती तो चन्द मिनट ही है लेकिन उसके रुकते ही हमारे साथी कामगारों के गाँव से आए साथियों ने हमारा सामान झटपट ट्रेन पर चढ़ा दिया। और जब तक हम ट्रेन में सवार होते उससे पहले ही उन्होंने कहीं छुपा कर रखी फूल-मालाओं से हमें लाद दिया तो हमारी आँखें बरबस भर आयीं। स्थानीय ग्रामीण कामगारों से ऐसी विदाई हमें फिर कभी कहीं नहीं मिली।

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*  इन इलाकों में अगली यात्राओं के अनुभवों के आधार पर मूल और बहरिया के मुद्दे पर अंतिम अध्याय में चर्चा होगी।   

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तीसरा अध्याय समाप्त      

पवन ऐसा डोलै : अध्याय ३.३

पशुओं-पौधों का पालतू बना आदमी 
 
पीठ पर पिठ्ठू, हाथ में गैंती, तरंगित  अंतरमन और उड़ते हुए से कदम। निकल पड़े पेशेवराना अंदाज़ में कुछ नया खोजने की चाहत समेटे।



पहले दिन पछाँह की सड़क पर चलते हुए पहुंचे लूसा गांव। गाँव में एक पेड़ के नीचे खंडित मूर्तियों और पिण्डियों के साथ पूजे जा रहे एक ख़ास तरह के पत्थर के उपकरण देखते ही काया उमग उठी। पढ़ते समय अपने विभाग के म्यूज़ियम में और फिर पलामू जिले के सर्वे के दौरान ऐसे  उपकरण पहले भी परख चुका था। गाँव वाले इन्हे दिव्य मान कर पूजने के अलावा रोग-व्याधि दूर करने के लिए इन्हे पानी से धो कर उसी पानी को पीते भी हैं।


एक ओर कुछ साथी मूर्तियों का लेखा दर्ज करने और अक्श उतारने में लगे, दूसरी ओर हमने गाँव वालों की मनौनी करके नज़र में चढ़े उपकरण झोलों में भर लिए।

फिर, गाँव की उत्तर दिशा के पथरीले इलाके में एक जगह बिखरे लघु पाषाण उपकरणों वाला ख़ित्ता देख वहीं ठहर कर उन्हें परखने और चयनित उपकरण दूसरी झोली के हवाले करने लगे तो साथ चल रहे कामगारों ने कौतुक के साथ कहा - 'ई बुढ़िया के दांत काहे  बीनत-बटोरत हौवा, पहाड़ियन पर सगरो बिखरल हवें।'  

अब तक मेरे हाव भाव पर गौर कर रहे अभय ने लौटते समय पूछा - 'सब केहू तो मूरत पहिचाने में लगल रहलें, बकी तोके ई पथरै मिलल बटोरे के। कुछ तौ खासियत होबै करी एन्हनौ में।'  

दूबे जी और दूसरे साथियों के चेहरों पर भी जिज्ञासा उभर आई।

डेरे पर चल कर आराम से बताने की कह कर साइकिल के पाईडल पर पैर दबा दिए।  

ठिकाने पर पहुँच कर हाथ पाँव धो कर तनिक थिर हो कर बैठे तो पहली झोली में बटोरे उपकरण फैलाकर अपनी जानकारी की चोटी खोलनी शुरू की -     

'पत्थर पर बनी कुल्हाड़ियों की बनावट इलाहाबाद जिले के कोल्डिहवा गाँव के पास इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के शर्मा जी द्वारा करायी गयी खुदाई में मिले उपकरणों से मिलती जुलती है जिन्हे 'स्टोन सेल्ट्स विध राउंडेड बट' का नाम दिया गया है।  लेकिन आकार में हमारे उपकरण पहली नज़र में ही उनसे कई गुना बड़े लगे। आम तौर पर ऐसे  उपकरणों को खेती के शुरूआती दौर और मोटा-मोटी सात-आठ हज़ार बरस तक पुराना माना जाता है। कहते हैं इन्हे बनाने वाले अनाज उपजाने और जानवरों को पालने के चक्कर में एक जगह रुक कर गांवों में रहने लगे थे। और यह भी, कि, इन्हे लकड़ी के हत्थों में बाँध कर जड़-मूल आदि वनस्पतियों को काटने-छीलने या दुश्मनों पर हमला करने के काम में लाया जाता रहा होगा। कालांतर में इनकी नक़ल पर ताम्बे और लोहे की ऎसी ही कुल्हाड़ियाँ बनी। इन्ही से विकसित हुआ परशु संभालने वाले परशुराम को कौन नहीं जानता।'



त्रिकोणीय और अर्ध चंद्राकार या अंगूठे जैसे सिरे वाले उपकरणों को छांट कर समझाने लगा - 'अरे ये, ये तो पत्थर की  कुल्हाड़ियों से भी हज़ारों बरस पहले बनने शुरू हुए। इनकी बनावट की बिना पर इन्हे कहते हैं - ट्राइएंगल, ट्रैपीज़, ल्यूनेट, और एंड स्क्रेपर वगैरह वगैरह। इनसे संयुक्त या कम्पोजिट टूल बनाए जाते थे।' 



अजाने तकनीकी 'जारगन' की भरमार से ऊब कर अभय कसमसाए - 'अब जियादा गियान ना बघारत जा। ई बताया कि एतना छोट-छोट पथरे के औजार कौने काम आवत रहे ?'

बहुत पोथी पढ़ चुके थे ऐसे उपकरणों की बनावट और उनसे जुड़ी सभ्यताओं पर लेकिन अभय, दूबे जी और कान लगाए सुन रहे दूसरे स्रोताओं को कैसे समझाया जाय यह सोचने में थोड़ा अटक गया। फिर किसी तरह अटक अटक कर इस तरह बताया कि -

'कम्पोजिट  बनाने के लिए अर्धसचन्द्राकार अस्थियों या लकड़ी के भीतरी हिस्से में हल्का खांचा खरोंच कर उसमें  पेड़ का लासा या गोंद भर कर उसमें नन्हे त्रिकोण उपकरण इस तरह फंसा दिए जाते थे कि पूरी किनारी आरी जैसी दााँतेदर बन जाती। और इस तरह बन जाती अनाज काटने वाली हंसिया। और अगर इन्ही उपकरणों को सीधी बांस की नोकीली डंडी में कायदे से फंसा दिया और डंडी के पीछे खांचा काट कर बाँध दिए चिड़िया के पंख, तो बन गए तीर, फिर क्या, बांस और तांत या रस्सी की डोरी से बने कमान पर चढा कर हेरने-मारने लगे आखेट । 
और, ये एक सिरे पर दांतेदार एंड स्क्रैपर खुरचनी की तरह इस्तेमाल किये जाते रहे होंगे - पेड़ की छाल निकालने या खाल काटने जैसे कामों के लिए।'

इस विवरण के बाद भी सुनने वालों को समझ नहीं आया तो रेखा-चित्र बना कर और साथ लायी किताबों में छपे फोटो दिखा कर समझाया, तब समझे तो सब के सब अचरज में पड़ गए।   



अभय ने चुप्पी तोड़ी - 'तब तो बड़ा कारीगर रहे ओह ज़माने के मनइयौ। अउरौ कुछ बतावा ओन्हन के बारे में।'

'उस ज़माने तक के आदमी आज यहां कल वहाँ डेरा डालते, फंदा गोफना  तीर-कमान से चिरई-अहेर मारते, फल फूल बटोरते भूंजते-खाते, नदी-नाला खोह-कंदरा में घूमते परम स्वतंत्र रहे।  इन्हे 'हंटर-गैदरर स्टेज'  की सभ्यता के आखिरी पायदान पर चल रहे परम निर्द्वंद होमो सापियन (आधुनिक मानव) माना जाता है।  फिर. अनाज उपजाने और जानवर पालने की जानकारी पाने के बाद सालो-साल बीज बोने, उगाने, फसल रखाने-काटने-दवाने, सिरज-संभाल कर रखने, गाय गोरु चराने और गोठ बना कर रखने के गोरखधंधे में ऐसा उलझे कि अपनी सारी आज़ादी गंवा कर एक जगह खूंटा गाड़ कर गाँव बसा कर रहने लगे। इस तरह उनकी महीन तकनीकी कारीगरी और ज्ञान की बढ़ोत्तरी ने जहां उन्हें आगे बढ़ाया वहीं उनके पैरों में बेड़ियां भी डाल दीं।'

ध्यान से सुन रहे अभय ने अपना निष्कर्ष निकाला - 'अइसन कहा कि मनई अपने के चाहे जेतना अकलमंद समझले होई आखिर में तो जउने पगहा से गाय-गोरु कूकुर बन्हलस ओही में अपनौ बंधाय गइल, पेड़-पौधा बोवै बचावै में अपनौ अज़ादी बंधक भइल।'

मतलब आदमी ने पौधों और पशुओं को पालतू बनाया और उसी प्रक्रिया में स्वयं भी पशुओं और पौधों का पालतू बन गया।  
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कल की कल

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २. ८

May 30, 2015 at 9:44pm
पढ़ने को मिला तो यही विषय

बरसाती बयार के झकोरों और फोहारों के लहरे में जगतगंज ओ बड़की पियरी की खांटी बनारसी मण्डली - अभय, अजय, प्रकाश, दीदी, चच्चा ओ मम्मा, ओ जाने के, के, कुल नाम तो अब यादो नहीं रहा - कपारे पर गमछा, गले में माला, मुंह में पान गुलगुलाते, चल पड़े जरगो बंधे पर मौज मनावै। 

अपने राम भी सब के साथ वैन में सवार हो लिए उनके साथ। छोटे बड़े सबके अपने अपने गोल बन गए। हमारे ग्रुप में बी एच यूं में पढ़ रहे साथी और हमारी टोली के एक परिवार की दूसरे शहर से बी एच यूं में इंजीरिंग पढ़ने आयी रिश्तेदार, - बनारसियों के लहजे-लटके अंदाज़ती मेरे ही गैर बनारसी होने की पहचान कर बगल में आ बैठीं। बातों का सिलसिला चला तो कैम्पस, लाइब्रेरी, मधुबन और कैफ़ेटेरिआ, लड़के लड़कियों की हरकतों पर चटपटी चर्चा करते उनकी कौतूहल भरी आँखों में सहसा उठती चमक, सुन्दर-सौम्य चेहरे की दमक और हाव भाव ने ऐसा लुंभाया कि कब पार हुए नारायनपुर से आगे, कब बढे चुनार की राह पर, कब जमुनी बाजार से बाएं मुड़ कर नहर की पटरी पर चलते ४५ किलोमीटर का रास्ता तय कर के कब जरगो बंधे पर जा रुके, पता ही नहीं चला।    


कुछ साथी कमर में गमछा लपेटे बंधे में कूद दूर तक तैरते चले गए, कुछ किनारे पर ही पानी पटकने लगे, उधर दीदी की टोली ने बाटी चोखा का जुगाड़ बैठा कर राम भण्डार की मिठाई का डब्बा खोल सबको बांटने में लग गई।

बंधे के पास ही 'लोरिका का दरना' और 'सीताजी की कोहबर' की चर्चा सुन कर कुछ लोगों के साथ हम सब उधर निकल गए।  वहाँ जा कर घूम कर देखे  - छायादार शिलाओं की भीतरी सतह पर मानव आकृतियों और अल्पना डिज़ाइनों के आरेखन।  गयारों ने बताया - 'एह खोहे में लोरिका रहत रहा, ओ दुसरके में बियाहे के बाद सीता जी का कोहबर बनल रहा।' 


वहाँ से लौटे तो एक किनारे बैठ कर इंजीनियर साहिबा को अपनी पुरातत्त्व के पढ़ाई और पुरानी सैरों का ब्योरा सुनाते सुनाते प्रोफ़ेसर पंत के इस इलाके में फील्ड वर्क के दौरान घटा एक वाकया भी सुनाया -  

१९६२-६३ की बात रही होगी। तब यहाँ आस पास के जंगल ज़्यादा घने और भालू और तेंदुए जैसे जानवरों की तादाद भी काफी रही। उन दिनों वे सूरज निकलते चुनार की तरफ से इस बंधे के दख्खिन-पच्छिम में बड़ागाँव के आगे जंगल महाल में पुरातात्त्विक शोध के लिए साइकिल से जाते और साँझ ढले लौट पड़ते।  ऐसी ही एक शाम दिन भर के दमतोड़ काम से थक कर वे अपने एक चेले, शायद लालचन्द सिंह के साथ, लौट रहे थे। अन्धेरा घिरने लगा था।  ढलान पर आए तो पत्थरों में खड़खड़ाती साइकिलों ने रफ़्तार पकड़ ली, पसीने से तर चेहरे और बदन पर ठंढी हवा लगी तो काया मगन हो गयी।  तभी उन्हें आगे रास्ते के बीचोबीच  पीली त्वचा पर काले धब्बों वाला एक खूबसूरत एक बड़ा सा तेंदुआ आराम फ़रमाता दिखा।  जब तक कुछ सोचते सँभलते उसके इतना नज़दीक पहुँच गए कि अब कुछ भी कर पाना उनके बस में रहा भी नहीं।' 
इतना बता कर थोड़ा ठहरते ही, इंजीनियर साहिबा  के मुंह से बरबस निकल गया - फिर क्या हुआ ? 
'फिर उनकी साइकिल सीधे उस तेंदुए से टकरा गई।'
उनकी सांस हलक में अटक गई - 
'गुरु-चेले दोनों ने समझा आज तो गए जान से, डर के मारे उसी झोंके में आगे उतरते चले गए, बिना पीछे मुड़ कर देखे।"
फिर क्या तेंदुए ने क्या किया ? उन्होंने पूछा।  
'गुरु जी बताए रहे कि ये तो वह भी नहीं जानते। वो तो तब तक नीचे उतरते गए जब तक नीचे नहीं पहुँच गए।  शायद, अचानक उनकी साइकिल टकराने से वह भी अदबदा कर भाग ख़ड़ा हुआ।' 
कुछ घड़ी थम कर उसने बड़ी मासूमियत से कहा - 'ऐसे फील्ड वर्क में तो बड़ा ख़तरा है, तुमको भी पढ़ने को मिला तो यही विषय।'    
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दूसरा अध्याय समाप्त हुआ 

Thursday, June 18, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २. ७

जियरै जानै 


विंध्य में डोलने के किस्से हमारे एक संहरिया की बड़े शहर में रहने वाली मंगेतर के भाई ने सुने तो उसका मन भी हमारे साथ-साथ डोलने को डोल गया। हमने सोचा एक बार उसे भी अपने साथ किसी खोह- कन्दरा वाले वन्य प्रदेश में घुमा कर क्यों ना अपना सिक्का मनवा लिया जाए। एक बार जब उनके पटना जाने की जानकारी मिली तो उन्हें रास्ते में ही मुगलसराय से उतार कर बनारस उठा लाए।  

हम तीनों एक खटारा स्कूटर पर लद कर खड़खड़ाते हुए निकल दिए राजदरी की ओर। रामनगर, जमालपुर फिर चकिया के आगे पहाड़ी चढ़ाई, लगभग सत्तर किलोमीटर का रास्ता तीन घंटे में पार करके दोपहर बाद ठिकाने पर पहुंचे। 


आस-पास जंगल की सांय सांय में केवल धारा की कल कल और झरने की झझकोर सुन पड़ती।  सितमबर में सधा-संयत बहाव नीचे हरे कुण्ड में उतरता मनोरम दृश्य बनाता दिखा।  बरसात में उमड़ता इसका अथाह मटमैला बहाव दूसरा ही रूप दिखलाता है।  एक हिसाब के मुताबिक़ इस इलाके के इस सबसे ऊंचे प्रपात की ऊंचाई पैसठ मीटर से भी अधिक और कुण्ड की गहराई - वही - सात माचा की डोरी औ सात बरातिन पगहा, ओ थाह नाहीं बा । 

हमारे अलावा वहाँ और किसी के ना होने के निरल्लेपन का अलग ही आनंद पाया। थोड़ा थिर हो कर बैठे तो याद आया कि जल्दी जल्दी में पीने का पानी साथ लाना भूल गए हैं और दरी का पानी पीने लायक नहीं। लौट पड़े नीचे के रास्ते के एक सोते से पानी लाने।  


दरी वाले वन विभाग के बंगले पर वापस आए तो चौकीदार नदारद, कुछ देर के इन्तिज़ार के बाद प्रकट हुआ तो वहीं रात बिताने  के हमारे इरादे से अचरज में पड़ा लेकिन दक्षिणा पाते ही मगन मन कमरे खोल दिए। सब जर-जुगाड़ बैठते शाम ढल चली।  साथ लायी दाल-सब्ज़ी चुरने चढ़ा कर हम आस-पास टहलने लगे।  

टहल घूम कर  प्रपात के सामने वाली शिला पर जम कर देर तक गप्प मारते रहे।  तब तक ऊपर उठ आए चाँद की रोशनी ने सामने की दृश्यावली का एक नया ही रूप रच दिया। गीली शिलाओं और धारा ने रुपहली चादर ओढ़ ली। साथी ने अपने ज्ञान का सिक्का ठनकाते हुए मंगेतर के भाई को समझाया - 

'अब समझ में आइल कि कवनो सुधी प्रकृति-प्रेमी अइसनै कवनो राती में इहां डेरा जमवले होई औ चांदनी कै अइसनै परभा कितौ छटा निहार के एह धारा ओ नद्दी के 'चंद्रपरभा' (चंद्रप्रभा) नाम धरवले होई।  उप्पर की पहडियन से निकली एही धारा पर बंधा बंधा 'चंद्रपरभा डैम' और अगले बगले कै जंगल 'चंद्रपरभा आरछित बन' के नाम से जानल जा ला। रचिकौ और समय निकार कै आवा तो कइयो दिन हफ्ता निकर जाय ओ देखतै जावा जा।  
जउने राह हम सब बनारस से अइली ओही राह आगे बढ़ा तो एक ठे औरो बरियार दरी बा - देव दरी।  
ओही राह पर सीधे जा  नौगढ़  किल्ला हौ, करमनासा के एह पल्ले।  ना जाने केतना खिस्सा-कहानी जुड़ल बा ओसे, देवी प्रसाद खत्री के लिखल चंद्रकानता संतति में एकर जिकिर घूम घूम आवा ला, अइसन अइसन ऐय्यारन के बखान बा कि कहाँ ले बताई, बकी तू त ई कुल पढ़ले ना होब्या, मौक़ा निकाल के एक बारी ज़रूरे पढ़ा। ---------------------------- '

हूँ-हाँ करते मंगेतर के भाई ने जब आगे जंगल में जंगली कुत्तों के झुंड के झुण्ड और तेनुआ-भालू की चर्चा सुनी तो उन के चेहरे पर उतरा संशय साफ़ नज़र आया। 

कमरे में गरम लगा तो बाहर बरामदे में चारपाइयां डाल लीं।  हम तो थके हारे सो गए लेकिन मंगेतर-भाई  की आँखें लगीं या नहीं, पता नहीं। 

अगली सुबह खुले मैदान में नित्य क्रिया से निवृत्त हो हम सब बनारस लौट कर रात मुगलसराय से उन्हें रेल गाडी पर चढ़ा आए।  

चन्द्रमा की छटा, चन्द्र परभा, राज दरी, हमारे विशुद्ध बनारसी अंदाज़, निपटै-नहाए और बनारसी बोल ने उन पर कितना सिक्का जमाया या जमा जमाया भी उचार दिया - ओन कर जियरै जानै।   

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Photo D.C. KUMAR from internet

कल की कल 

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २. ६

६. कचौड़ी गली सून कइला, हो बलमू - अ -अ


पहाड़ी ढलान पर घूमती ऊपर चढ़ती सड़क जलेबिया मोड़ की चकरिया पार होते नीचे का मनोरम नज़ारा दूर तक उभर आया। नीला छितिज, भूरे पहाड़, रुपहला जल-विस्तार, हरियाली सतह के बीच छितरे भूरे ललछट खेत, छोटे दीखते मकानों वाली बसावट, ऊपर छाए बादल, भीना-झीना ओदा-ओदा माहौल। घूम टहल कर देर तक देखते रहे प्रकृति के रम्य रूप। सोचते रहे कुदरत भी कैसे कैसे सुंदर रूप धरती और बदलती रहती है, सुबह-ओ-शाम, रात-ओ-दिन, जाते-आते मौसम के साथ। यही वादी जाड़ों में कोहरे में  झांकती दिखती है, कंपकपी जगाती, गर्मियों में ताप से तपती सूखी भूरी लाल सतह के बीच आँखें जुड़ाते चमचम करते बंधे का जल तल पर तारी तरल गुलाबी परत।  


चढ़ाई के ऊपर औसतन सपाट सतह पर अगल बगल के छितरे गाछ वाले वनों  बीच से गुजरते सुकुरुत नामक ठिकाने पर लगी वाहनों  की कतार में हमारा वाहन भी ठहर गया। सामने की छप्पर छायी दुकानों में चाय-समोसा और सबसे बढ़ कर गुलाब-जामुन की मांग सुन पड़ी। महाजनों के रास्ते चल कर हमने भी दो चार उदरस्थ किये तो चैतन्य काया आस-पास तजबीजने लगा।  लबे सड़क लगे नाम-पट्ट पर लिखे जगह के नाम पर निगाह पड़ी तो पता चला इस ठीहे का असल नाम, 'सुकुरुत' नहीं, 'सुकृत' अर्थात सुन्दर रचित - जिसे सुंदरता से रचा गया हो। यथा नामे तथा गुणे को साछात कराता यह नाम इस जगह के लिए जिसने भी चुना वह भी शायद हमारी तरह यहां के प्राकृतिक सौंदर्य पर रीझ गया होगा।  

नाश्ता-पानी के  बाद  कुछ दूर लिखनिया वाले रास्ते पर लौट कर  छातो के पास से बाएं पैंडे पर घूम गए। कुछ ही फासले पर चट्टानों के बीच भलभलाती भल्दरिया दरी की धारा के आर-पार भी लिखनिया और विंढम जैसा सैलानियों का हंगामा। मंदिर के पास डेरा जमाया, हमारी टोली की भी दाल-बाटी चुरने-पकने लगी।  कुछ साथी गाने बजाने में और कुछ गमछा लपेटे मगन हो गए नहाने में।  


थोड़ी मेहनत के बाद आखिर चढ़ ही गए उस खोह तक।  खोह की अंदरुनी सतह पर गेरू से उकेरित आखेटकों द्वारा चारों ओर से घेर कर मारा जा रहा आहात विशाल वराह, दरद के मारे खुले उसके मुंह में दीखते दांत, उसके नीचे एक हरिण के सामने से उसके सीने में भाला घोंपते आखेटक का चित्रण, आस पास छोटी छोटी अनेक मानव आकृतियाँ।  सबसे नीचे एक सिरे पर गेरुए रंग से बड़े बड़े अंग्रेजी आखर में लिखा नाम - J. Cockburn । अभय ने देखते ही पूछा - ई केकर नाम हौ हो ? 
हमारे दूसरे साथी ने कहा कि यह नाम भी अपने आप में बड़ी कहानी छुपाए है तो वे एका एक अविश्वास से देखते रहे फिर बोले - 'तोके कैसे मालुम ? ओ मलुमै हौ तो बतावा।' 


दूबे जी तफ़सील से बताने लगे - 'इसके बारे में हमने यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में पढ़ा है। अँगरेज़वन में और तो जो रहा हो एक बहुत बड़ी खूबी रही। दुनिया वहाँ की एक एक बात सोरे में हलि के ओकरे बिसय में जानै में कवनो कोर कसर नाहीं रखलें। चाणक्य के चेलवा चन्द्रगुप्त और ओकर राजधानी पाटलिपुत्र के नाम रहा हो या चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक से लगायत चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लेख, हज़ारन बरस बाद चीन्ह-परख  कै के पढ़ै के बूता ओनहिन कै रहा। काकबरनवौ अइसनै एक ठे अँगरेज़ रहा, मुलाजिम तो रहा अफीम महकमे में, ना जाने कवने काज से १८८१ में मिर्ज़ापुर के इलाइके में आइल तौ इहां कै खोह-कंदरा के ई कुल लेखा-लेखानी देखत गुनत अपनौ नाम इहां लिख देहलस, अब एतना बरस बाद एके एक ऐतिहासिक दस्तावेजै गइल हौ।'

दूबे जी के ज्ञान का लोहा हम सब मानते रहे सो उन्होंने जो कुछ बताया हमने ब्रह्म ब्रह्म वचन सम ग्रहण किया।  

खोह से उतर कर मंदिर वाले ठिकाने पर पहुंचे तो सब भोजन-पानी तर तयार मिला। इत्मीनान से खा पीकर, हांडी पटकी एक ओर, पत्तल फटके एक कोने, और मस्ती में लौट पड़े बनारस की ओर। 

उधर टेप रिकॉर्डर पर एक लोक गायिका के सुर लहराने लगे -

कचौड़ी गली सून कइला, हो बलमू - अ -अ ,
ओ -अ-अ, मिरज़ापुर गुलजार कइला-अ-अ, हो बलमू-अ-अ-अ -----


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कल की कल  

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २. ५

५. भांति भांति बन बिरवा महकैं, कुंजन बसै सुवास 

Photo D. C. Kumar 

बरखा का फुहरा घूम घूम बरसने लगा, विंध्य की सूखी धरती हरिया गई, सूखी-सोई धाराएं जाग कर चमाचम लहकीं और पाखल-पाखल मचलती उतरती, झरने बनाती अनुपम दृश्यावलियां पिरोने लगीं, वन-लता-कुञ्ज-गाछ मह्माहए, चिरई चुनमुन-मनई-जनावर सबकै जियरा भीज गइल, इधर खांटी बनारसियों-मिर्ज़ापुरियों-इलाहाबादियों के मन मचलने लगे - गोठरी-गमछा थामे जंगल पहाड़ की सैर पर निकलने को। रिमझिम में भीजते मस्ती में कजरी-बिरहा के बोल लहराते जिधर देखो उधर देशी सैलानियों के रेले, अपने अपने हद्द-ओ-हिसाब से पैदल या दीगर सवारियों पर सवार। 

अपने  महाल के संगरियन संग हम भी निकल पड़े लिखनिया-भल्दरिया दरी की ओर। नारायनपुर से आगे घनी होती हरियाली के बीच से बढ़ते, घिरते उड़ते बादल और रह रह कर पड़ती हलकी और तेज़ बरसात के बीच टेप-रेकॉर्डर से उठते गिरिजा देवी के बोल बड़े मौजू लगे -

बरसन लागी बदरिया रू-अ-अ-म झू-अ-अ-म के
बरसन लागी बदरिया रू-अ-अ-म झू-अ-अ-म के
बरसन लागी बदरिया रू-अ-अ-म झू-अ-अ-अ-अ-म के 

ब-अ-रसन लागी बदरिया ---- हाँ बरसन लागि बदरिया-अ-अ-अ 
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बोलन लागी कोयलिया रू-अ-अ-म झू-अ-अ-म के
बोलन लागी कोयलिया रू-अ-अ-म झू-अ-अ-म के

बाएं बगल अहरौरा की बसावट छोड़ आगे बंधे के लहरा मारते जल के किनारे ऊंची-नीची ज़मीन पर दीखते पुराने किले के खण्डहर पर नज़र डालते गरई नदी की मशहूर लिखनिया-दरी पर कुछ देर के लिए ठहर गए। सामने की धार में मौज मनाते सैलानियों की मस्ती दिखी। 



पहले भी यहां मौज मनाने आ चुके साथी धारा के बाएं किनारे की करार की खोह में निरूपित हरबा-हथियार सहित हाथी-घोड़ों पर सवार और पैदल योद्धाओं के चित्र दिखाने लगे। विषय-वस्तु को देखते हुए इन्हे तकरीबन ५००-६०० बरस के आस पास का बताया गया, हांलाकि उनके नीचे के धुंधले हो चुके चित्र और ज़्यादा पुराने हो सकते हैं।  गाँव वाले इन्हे पथरा पर लेखानी कहते हैं।  इसी तर्ज़ पर इस झरने को 'लिखनिया दरी' या 'लेखनिया दरी नाम दिया गया है। आस-पास के  इस रास्ते से गुजरने वाले जाने कब से इन्हे इस नाम से पुकारते रहे कुछ पता नहीं।  


'दरी' का मतलब हम तो घर में फैला कर बिछाई जाने वाली दरी  से समझते रहे इसलिए पहली बार यहां के झरनों से जुड़ा यह शब्द सूना तो अचकचाया।  फिर अंदाज़ा लगाया कि जहां धारा चट्टानों पर बिछती हुई बहती है वहाँ उसे 'दरी -पथ' नाम मिला होगा। विज्ञजनों ने 'दरी' के मायने ऐसे पथ से बताए जो गुफाओं  के बीच से हो कर गुज़रता है। विंध्य की धाराएं जहां-जहां गुफाओं के बीच या आस-पास से गुज़र कर प्रपात बनाती हैं वहाँ उनके नाम के साथ 'दरी' शब्द जुड़ा मिलता है। 

हमारे कुछ साथी यहां से टोली बना कर बगल की पगिया पर 'चूना दरी' की ओर टहल दिए और हम आगे 'भल्दरिया दरी' की और बढे। लौटती पारी यहीं सबके मिल कर वापस लौटने तय हुआ।  

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कल की कल 

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २:३

३. जगदीश गुप्त 


बातों ही बातों में कब बरकछा निकला, कब जलेबिया मोड़ घूमे, कब विंढम कलां गाँव का मोड़ पार किया और कब हमारी सवारी विंढम फाल के डाक-बंगले पर रुकी, पता ही नहीं चला।  
सामने बरसाती धारा और झरने के आर पार पास-पड़ोस के गांवों से साइकिल-मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर-ट्राली या पैदल ही आ जुटे सैकड़ों देशी सैलानियों का जुटान देखते ही बनता।  

आने वाले अपने साथ लाए थे माटी की हांड़ी, दाल और बाटी और गोबर का गोइंठा (कंडा)। पहुँचते ही बरसात में उफनाती धारा या झरने के किनारे घने गाझ-झाड़ की हरियाली छाया में किसी पाखल- खोह का ठिकाना संभाल कर जमते जाते।  जवान और बच्चे अरबरा कर कपडे फेंक कर धारा और झरने में उछलने नहाने एक दूसरे पर पानी उछालते कूदे पड़ते। एक ओर धारा और झरने का उफान दूसरी ओर उछाह, कौतूहल, आनन्द और जवानी का उद्दाम।  

औरतें और उमरदार लोग तीन पत्थर का चूल्हा बना कर उस पर दाल की हांडी चढाने और  गोइंठे में आलू-भंटा और बाटी ठूंसने लगे। फिर, कुछ लोग एक चाक्ल पाथल धो-पोंछ कर उस पर लोढ़ा जैसे गोल छोटे पथ्थर से विजया भवानी पीसने घोंटने में मगन हो गए । 

चूल्हों से उठता धुँआ गोल या तिरछा हिलता डोलता ऊपर उठता, करीब से गुज़रने पर  हांडी की बुदबुदाहट सुन पड़ती, धारा की और सैलानियों की रोर और पत्थर पर धारा के थपेड़ों के शोर में कुछ और ना सुन पड़ता।  


सैलानियों की एक टोली धारा के ओ पार के बड़े बड़े पाखलो की ओट में कुछ तलाशती दिखी। हम भी उत्सुकता वश उनके पीछे लग लिए।  थोड़ी ही देर में वे जो खोज रहे थे पा गए, खोह की अंदरुनी सतह पर गेरू से चित्रित आदमी-औरत, पशु और आखेट के कुछ दृश्य सामने थे। पहली बार इन्हे दुनिया की नज़र में लाने वाले  इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाने वाले कवि और चित्रकार डाक्टर जगदीश गुप्त। 

इकसठ बरस बीते डाक्टर गुप्त १९५४ में यहां पिकनिक मनाने आये तो उनकी निगाह यहाँ निरूपित इन आखेट और दीगर दृश्यों पर पड़ी।  पहली ही नज़र में वे इन पर ऐसा मुग्ध हुए कि तब की लोकप्रिय पत्रिका आज कल के जून महीने के अंक में 'भारतीय प्रागैतिहासिक चित्रकला एक अध्ययन' नामंक लेख में विंढम फाल के इन चित्रों का सचित्र विवरण दे कर ही अघाए नहीं, वरन अक्खा इंडिया में जहां कहीं भी ऐसे चित्र तब तक प्रकाशित हुए थे सबका अध्ययन मनन किया, दुनिया भर में ज्ञात ऐसे दृश्यों को पढ़-समझ कर, १९६६ में भारत में इस विषय पर अपनी तरह का पहला विस्तृत ग्रन्थ प्रागैतिहासिक भारतीय चित्र कला प्रकाशित कराने का कीर्तिमान भी कायम कर के एक बार फिर साबित कर दिया कि प्रतिभा विषयों के बाड़ों को कैसे लांघती चलती है।

हिंदी के कवि और तूलिका के धनी डाक्टर गुप्त की कलम से निकला यह ग्रन्थ भारतीय प्रागैतिहासिक कला के अध्ययन के छेत्र  अनोखी देन है। डॉक्टर के. एस. शुक्ल द्वारा हिंदी से अनूदित इस ग्रन्थ का अंग्रेजी पाठ, 'नार्थ जोन कल्चरल सेंटर', इलाहाबाद द्वारा, १९९६ में प्रकाशित कराया गया है।      

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कल की कल