तुला के पलड़े कभी इधर कभी उधर डोलते रहे,
बार बार अपनी ही ओर इंगित करते झुकते रहे।
बार बार अपनी ही ओर इंगित करते झुकते रहे।
भारी भरकम बटखरे अपने ही पलड़े पर धरते रहे,
घूम घाम अपने आपको ही दोषी साबित करते रहे।
आठों पहर जागते सोते लांछित करते मथते रहे,
फिर, फिर-फिर पलटते दोनों तरफ झूलते रहे।
आखिर तोलन दंड की जद्दोजहद से पार हो गए,
सत-असत गुण-दोष के गुम्फन कटते चले गए।
दोष-भाव से मुक्त, हार जीत की अर्गलाओं से परे,
मानो तप-तपस्या से मुक्त हुए सिद्धार्थ बुद्ध हो गए।
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