Saturday, December 24, 2022

 छप गया

१.
कल शहर में फिर कहीं, जलसा मज़े का हो गया,
तहज़ीब-ओ-अहले-इलम, मौसम बमौज़ू हो गया।
२.
अल सुबह बागों में वो, सड़कों पे फेरा लग गया,
एक कुनबा गश्त पर निकला, तकाज़ा हो गया।
३.
वो कहानी, सुन, परीखाने में जा कर सो गया,
देख सुन हमने लिया, फिर वो तमाशा हो गया।

Friday, November 25, 2022

3. दो अक्टूबर 2022 


'बाड़ी' से थोड़ी ही दूरी पर उसी सड़क पर आगे नसीराबाद गाँव मैं यही कोई 1200-800 वर्ष  पुराने 'आस्तीकन बाबा' और 'कल्पा देवी' के ऐसे इष्टिका-मंदिर स्थित हैं जिनकी जोड़ का कोई मंदिर गंगा के उत्तरी भूभाग में कहीं नहीं । इनकी अत्यंत सुन्दर वास्तु-कला, नक्काशीदार अलंकृत ईंटों और  दीवारों पर लेपित महीन प्लास्टर पर निरूपित महीन कलाकारी के तो क्या ही कहने। लता-वल्लरियों, लघु चन्द्रशालाओं, पद्म-पत्र, घट के अंकन निरखने वालों की पलकें नहीं ढुलकतीं । देश के सबसे प्रमुख तीर्थों में सम्मिलित नैमिषारण्य, महर्षि दधीचि की तपोस्थली माने जाने वाले मिश्रिख भी बहुत दूर नहीं।    

सिधौली बस-स्टेशन का अहाता साफ़-सुथरा व्यवस्थित दिखा लेकिन परिसर के पश्चिमी दक्षिणी कोने का सूनापन साल गया। आँखें तलाशती रह गयीं कभी वहां गुलजार रहने वाली चाय-समोसे-मिठाई की दूकान जिसमें बिका करती थी इलाके की  'पलंगतोड़' नाम से मशहूर दूध की मिठाई। 'रेलवे लाइन' की तरफ वाली सड़क से लगी छप्पर-छानी वाली दुकानें भी नदारद दिखीं। 

सीतापुर जाने वाली सड़क पर अगले चौराहे से दाएं हाथ मुड़ने वाली पक्की सड़क के साइनबोर्ड़ पर मोटे हर्फों में लिखा 'बिसवां' पढ़ कर उधर मुड़ते झुरहरी छूट गयी। करीब-करीब चौवालीस बरस बाद अपनी जन्मभूमि की ओर ले जाने वाली उस सड़क पर आगे बढ़ते हुए कहने-लिखने से परे भाव जागते रहे। यहाँ से बिसवां तक की सड़क पर चलना भीतर संचित युग में पैंठते चले जाने जैसा रहा। पहले ही कदम से लगने लगा उधर की दुनिया बहुत आगे बढ़ कर बदल चुकी है।  

सड़क के दायीं ओर पूरनपुर की  गड़ही के जल-तल पर पड़ा हरे रंग का जाल। गर्दा-चहला-गड़हा वाली सड़क पर हचर-हचर चलने की जगह चमचमाती पक्की डामर वाली रोड पर आराम से चलते हुए।  नयी बनी रिहाइशी बिल्डिंगें, एटीएम, कालेज , पेट्रोल पम्प। बिलकुल ही बदली हुई दृश्यावली।  पुरानी यादों में समाए सड़क के दोनों ओर बचे रह गए छतनार पेड़ों ने  समझाया कि लखनऊ से सिधौली तक की फोरलेन रोड सूनी-सूनी सी क्यों लगती रही !!  सरपट गाड़ी दौड़ाने के लिए खासी चौड़ी जगह पर ढंग के डिवाइडरों पर सलीके से रौंपे गए झाड़-पौधों के बाद भी।  काश ! ऊंचे गझिन पेड़ों की डालों की छतरी के नीचे से गुजरने का एहसास भी पहले जैसा हो सका होता। 

छोटी-मोटी बाज़ार की दूकानें, जब तक टटोलते 'सीता रसोई' की पुरानी इमारत से आगे निकल गए। नव निर्मित तालाब, बदली राजनीति के निशान 'छीता पासी द्वार', 'अम्बेडर द्वार' देखते पार कर गए खमरिया पुल। सोचते रहे पता नहीं अब भी यहाँ रात में राहजनी  होती होगी या नहीं। आगे तकरीबन भठ चुकी नहरिया में बहता पानी याद आया। उसी से सट कर लगी बाज़ार की रौनक देख कर कभी वहां पसरा रहने वाला सन्नाटा याद आया।  सुबह की सैर पर यहाँ तक टहलने आने, टपका-जामुन बीनने के दिन याद आए।  

टिकरा के मंदिर के सामने की दशा देखकर एकबारगी हक्क रह गया। इत्तिर बुलंद रही एक विशाल हवेली। मेरे पिता जी के दोस्त टिकरा रियासत के तालुकेदार राजा अजय प्रताप सिंह की रिहाइश। ऊंचे फाटक वाले लकड़ी के दरवाज़े के अगल-बगल दोनों ओर चौहद्दी के किनारे बने अस्तबल की बाहरी दीवारें। बचपन में हम अक्सर अजय चाचा के बच्चों के साथ हवेली में खेलने आते । उसके सामने वाले हिस्से में राजा साहब के परिवार के लोगों द्वारा शिकार में मारे गए बाघों की भुस भरी ट्राफियों में लगी कांच की चमचमाती आँखें याद आयीं। बहुत याद आए छत से लटकते झाड़-फानूस जिनके बहुकोणीय क्रिस्टल तोड़ कर सूरज की रौशनी में सतरंगी आभा देख देख कर चकित होते रहते।  जिनके साथ खेलते उन भार्गवी दीदी, पिप्पी और पाकू राजा के चेहरे उसी तरह दिखने लगते। दिल में बसी उस चहकार जगह पर हवेली का नामो-निशान तक नहीं पा कर गहरी उदासी में सन्न रह गए। 

पता चला जीर्ण-शीर्ण टिकरा-हवेली की एक-एक ईंट बिक चुकी है। अब उसी जमीन पर रिहाइशी मकानों के लिए काटे जा रहे प्लाट देख कर लगा ज़मीन पर नहीं जिगर के टुकड़े कट रहे हों। मंदिर के आसपास लहराने वाले मोर भी कहीं नहीं दिखे। जिस जगह पहुँच कर हमारे चेहरे चमकने लगते उसे देख कर कभी, कितनी मनहूसियत ने घेर लिया वहीँ । सफर में आते दिलकश मुकामों तक पहुँचने की गहरी चाह, पहुँच कर ठहरने-मुग्ध होने, फिर  बिछड़ने की कलख समेटे आगे बढ़ने की नियति असल जीवन के सफर की तरह ही होती है।  

'राजा डीह' तक पसरा रहने वाला सन्नाटा तलाशते हुए याद आया एक बहुत पुराना वाकया। उस समय 'बिसवां चीनी मिल' में मुनीजरी कर रहे मेरे बाबा फैक्ट्री के काम से अक्सर इसी रस्ते लखनऊ आते-जाते रहते।  एक बार देर रात उनकी कार यहीं कहीं खराब हो गयी। थोड़ी ही देर में अँधेरे से प्रकट हुए कुछ लोगों ने कार को घेर लिया। अपने मूल स्वाभाव के मुतबिक बिना सोचे-समझे बाबा उन पर डपट पड़े - 'इतनी रात में तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो !! चोर-डकैत हो क्या !!' अब रहे तो सांचौ  वे लोग डकैत ही मगर बाबा की आवाज सुन कर उन्हें पहचान गए।  स्थानीय लोगों पर बाबा की बात ब्योहार के रसूख के चलते बस इतना ही बोले 'रात बिरात ऐसे न चला करौ बप्पा !!' उसके बाद बाबा उन्हें गरियाते रहे और वे चुपचाप उनकी कार को ढकेल कर बिसवां की 'रेलवे क्रासिंग' को क्रास करा कर वापस लौट गए। सोचता रहा क्या  ऐसे डकैत अब भी होते हैं यहाँ !! 

'रेलवे क्रासिंग' के पार बाएं हाथ का 'रेलवे स्टेशन', दाएं हाथ गन्ना गाड़ियों की तौल के लिए ले जाने वाली कतारों के पीछे वाला दाख्खिन क्वार्टर जैसे छोड़ गए थे वहां से नदारद मिले। सामने की चुंगी-चौकी और बैरियर भी गायब। बरसात में बगल की 'रेलवे पुलिया' के नीचे से आगे खलार में आने वाली बहिया में जहाँ मछलिया उलीचने का खेल चलता वो भी नयी दुकानों के तले पूरी तरह से दब गयी । कुछ ही मीटर चल कर घूम गए दाएं हाथ फ़ैक्ट्री के फाटक की ओर, अपने जन्मस्थान के दर्शन की ललक लिए।  

जिस मकान में 1974 में 'साइकिल यात्रा' के दौरान अपने परिवार के साथ ठहरे थे बाहर से ही उसका दर्शन करके सबर करना पड़ा। अपने जन्म के अनन्तर जहाँ बचपन सहित सत्ताईस बरस आवास रहा हो उसे चौआलीस साल बाद वो भी बाहर से ही देख कर सबर करने की विवशता लिखने कहने से परे। दादी-बाबा माता-पिता के इस दुनिया में न रहने का शून्य बड़ी जोर से अकुलाने लगा। परिवारी-जनों, पड़ोसियों, संगी-साथियों बिन सब सून। बचपन के खेल, घटनाएं याद आ आ कर टीस भरी हुमुक में ढल कर सताने लगीं। फैक्ट्री के फाटक से आवासीय परिसर तक के जर्रे-जर्रे में भरी सुधियाँ ही सुधियाँ। कहाँ तक लिखें। फिर भी कुछ को साझा किए बिना रहा नहीं जाता।   

फैक्ट्री के 'प्राइमरी स्कूल' में पढ़ाने वाले 'अचारी जी'  खासी लम्बी चोटी रखते। अक्सर बच्चों को पहाड़ा रटने में लगा देते। एक तरफ मॉनीटर साहब के साथ बच्चे दो की दो, दो दुन्ना चार, दो तियांई छे ----- की सम पर मूड़ी हिला-हिला कर रट्टा लगाने लगते, उधर अचारी जी  पाँव पसारे कुर्सी की टेक लगा कर खर्राटे भरने लगते।  खुराफात में अग्रणी हमरे बड़के भइया ने एक दिन उनके साथ भी खेल कर दिया। अचारी जी के खर्राटे शुरू करते ही दबे पाँव उनकी चुटिया कुर्सी के पिछली टेक में बाँध आए। ये कारस्तानी देख कर भी मुस्कुराते हुए बच्चे पहाड़ा रटते अनजान जैसे बने रह कर आगामी घटना का इन्तिज़ार करने लगे। थोड़ी ही देर में अचारी जी की झपकी टूटने पर सर उठाते ही करारे झटके से खिंची चोटी की पीड़ा से पहले तो बहुत जोर से कराहे, फिर माजरा समझ में आते ही चिल्लाए - 'मा - s - (र) डारिस हत्यारु। यू बदमाशी ई ----- के अलावा  और कोई करि ही नहीं सकत। रहि जाओ, अबहिनै 
बताइत है पंडित जी से तुम्हार करनी । या तो तुमहे पढिहौ हिंया या फिर हमही स्कूल छाँड़ि दयाब।'  हंसी रोकने की जबरन कोशिश में  बच्चों का बुरा हाल हो गया।   

फाटक के बाएं बगल वाली फकिरवा की मिठाई की दूकान की नदारगी बहुत अखरी। बरसों से सुधियों में धड़क रहा एक और अहम अंग बुरी तरह आहत हो गया। फकिरवा के यहाँ मिलते थे चार आने में चार पेड़े, निखालिस दूध-खोए के स्वाद वाले। बाबा से जिद्दियाते पेड़ा दिलाने के लिए, वे फकिरवा की दुकान के लिए पर्ची पर लिख देते 1/2 पाव। हम उछलते हुए दौड़ जाते उसकी दूकान पर पेड़ा खाने। महीने के आखीर में फकिरवा सब पर्चियां बाबा के सामने रख कर सारा भुगतान एक साथ ले जाता। एक बार ऐसा हुआ कि पर्चियों का टोटल देख कर बाबा उखड़ गए - 'अबे फकिरवा !! इतना पेमेंट कैसे हुआ !! इतना पेमेंट कैसे हो गया रे। चोर-बेईमान। फर्जी पर्ची बना लाया है।  हमें बेवकूफ समझता है क्या। मार मार के उत्तू बना दूंगा।' ऐसे में वैसे भी बाबा के गुस्से और धारा-प्रवाह गालियों के आगे  फकिरवा बेचारा क्या बोलता ! चुपचाप सुनने के अलावा। बाबा का क्रोध उतरा तो एक-एक पर्ची उठा-उठा कर ठीक से देख कर सहज भाव से बोले  - 'दस्खतवा तो हमरै है !! केतना पेड़ा खा गए ई लउंडवे !' और फकिरवा का पूरा भुगतान कर दिए। असल में इस कारस्तानी के पीछे भी बड़कन्नु ही रहे। बाबा पर्ची पर लिखते 1/2 पाव और बड़कन्नु आधा के आगे एक बढ़ा कर कर देते एक सही एक बटा दो (1-1/2) पाव, कुछ पर्चियों पर तो बाबा का दस्तखत भी बना देते। पर्चियां देख कर बाबा समझ तो सब माज़रा गए मगर चुप लगा गए, बड़कन्नु खानदान के बड़े लरिका और उनके दुलरवा जो रहे।

और भी बहुत कुछ याद आता रहा। बहुत याद आए मंदिर स्कूल के प्रिंसिपल सौम्य सरल श्री कृष्ण स्वरुप अग्रवाल, श्री गजराज सिंह यादव, मुंशी जानकी प्रसाद, चंद्र किशोर अवस्थी  और श्री हरद्वारी लाल वर्मा। कस्बे में गुरु पड़रिया, बाबू कृपा दयाल श्रीवास्तव, जगन बाबू, बबुआ चाचा, अब्दुला बाबा, झक्खड़ी महाराज, हवलदार शीतला प्रसाद सिंह, अजुधिया बाबा, पंडित राम उजागिर।  एक-एक व्यक्ति एक-एक अध्याय समेटे। लिखने लगें तो एक अलग किताब बन जाए।  

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Thursday, November 24, 2022

2. दो अक्टूबर 2022

'पहियों के इर्द गिर्द': 'कीढा पासी': ' नरोत्तम दास - सीस पगा'

साइकिल पर सवार हम तीन दोस्त 1974 में लखनऊ से चले काठमांडू के लिए। तब हमार उमर रही कुल बीस बरस। पहला पड़ाव सीतापुर जिले में बिसवां स्थित अपने जन्म-स्थान पर ही डाला था। उस पर लिखी किताब - पहियों के इर्द गिर्द - पहला संस्करण भी जन्मदिन की तारीख भी २ अक्टूबर १९७६ रही। उस दिन तेइसवें वर्ष की आयु में कदम रखा था।

वो यात्रा पूरी हो कर भी पिछले अड़तालीस साल से अंतर्मन में चलती चल रही है उन्हीं रास्तों और मुकामों पर। इस बीच दुनिया बदल चुकी है मानसिक और भौतिक दोनों रूपों में। जवानी के वो दिन कब के पार कर चुके हैं सीनियर सिटीज़न के मुकाम से आगे भी नौ बरस आगे बढ़ आए हैं। इस वे में बचपन की सुधियाँ कुछ ज्यादा ही सताती हैं इस उम्र में। विधाता के विधान बड़े विचित्र हैं, कुल 80-85 किमी की दूरी पर लखनऊ में रह कर भी भी बिसवाँ जाने का प्रोग्राम जाने क्यों बार-बार बन-बन कर टलता रहा। लेकिन इस बार पहुँच ही गए उसी दर पर ।
उनचास साल पहले और अब की दोनों यात्राएं एक ही जगह से, एक ही भूभाग पर, बहुधा उसी रास्ते से तय की गईं। मगर इस बार का सफर अलहदा तजुर्बों से गुजरा। तब चले दो पहिया साइकिल से, इस बार चौपहिया कार से। तब जवानी की तरानी और ताकत से भरपूर, इस बार भी हौंसले वैसे ही मगर तन की सीमाएं। तब, जब मन चाहा निकल पड़े, आगा पीछा ज्यादा सोचे समझे बिना ही। साइकिल पर झोले लटकाए, कुछ रूपए जेब में रख लिए बस। इस बार सालों खुरखोदने के बाद पूरी प्लानिंग से पूरे साजो सामान के साथ मतलब भर धन का जुगाड़ करके निकले।
तब तीसरे पहर के बाद चल कर आधी रात में पहुँच सके थे पहले पड़ाव तक। सीधे रास्ता नापने की धुन में । तब आम तौर पर अगल बगल से बेखबर जाने-पहचाने रास्ते पर पैडिल दबाते जल्दी जल्दी बढ़ते हुए। फिर भी लग गए करीब छे-सात घंटे। अबकी बार फर्राटा भरती कार में उतनी ही दूरी तय कर ली कुल डेढ़ घंटे में ही मगर उतनी ही देर में उतनई ही दूरी वाले रास्ते में पहली बार से कहीं ज्यादा देखा और उससे कई गुना ज्यादा दूरी का सफर तय किया अंतर्मन में बसे युगों लम्बे सुधियों के पथ पर। उन्हीं जगहों को चकर-मकर ताकते पूरी तरह बदल चुके पहलुओं में खोए हुए। गुजरे पांच दशकों से ज्यादा वक्त में जुटी जानकारियों के परिप्रेक्ष्य में आंकते हुए।
लखनऊ से बक्शी तालाब तक का तब का सूनसान रास्ता चहल-पहल से भरा झट से पार हो गया। सिविल डिफेंस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के पूरब में एनसीसी कैम्प वाला निर्जन इलाके में बैनेट-फाइटिंग और मशीन गन चलाने की तालीम पाने के दिन याद आए मगर वो जगह नई बानी ऊंची इमारतों की आड़ में कब निकल गयी इसका आभास एक नहीं मिला।
आँखे तलाशती रहीं सड़क के किनारे वाला वो कुंआ। नयी बानी दुकानों में गायब हो गया या छुप गया। वो बात अब तक बीत गयी। पचपन बरस से भी वाली सुधियों में से उभर आए पुराने वाकये। बिसवां से लखनऊ तक अपने बाबा के साथ जीप से आने वाले दिन। रिटायर्ड फौजी बड़ी बड़ी मूंछों वाले बैसवारी ठाकुर साहब बगल में दोनाली बन्दूक रख कर स्टेरिंग संभालते। सिधौली तक गड्ढे वाली 28-29 किलोमीटर कच्ची और उसके आगे की 35 किमी पक्की मगर खस्ता हाल सड़क पर बख्शी का तालाब तक धूल के गुबार में पूरी तरह धूसरित हो जाते। ठाकुर साहब स्टेशन के पास वाले कुंए से लगी सड़क के किनारे रुकते। लोटा डोर लेकर कुंए से पानी निकल कर अपने हाथ मुंह धोते, फिर हमें भी तरोताज़ा करवाते। दिल ढूंढता रह गया फिर वही दिन।
इटौंजा के पेड़े वाला मुकाम निकल गया सर्र से पार हो गया बजरिए फ्लाई ओवर। फोर लेन वाली सड़क के डिवाइडर पर मंझले पेड़ों की पौध के बीच शिद्दत से याद आये कीढा पासी। पास ही में कुम्हरावां गाँव के पास जहाँ अब अग्रज इंद्र भूषण सिंह का फॉर्म-हाउस देखने जाते हैं। उसी गाँव के समाजवादी नेता राम सागर मिश्र के नाम पर लखनऊ की जिस बसावट का नाम रखा गया उसे ही नाम पलट वाली राजनीति के चलते बाद में इंद्रा नगर कर दिया गया। हो सकता है आगे उसी का नाम कुछ और धरा दिया जाए। राम सागर मिश्र जी की याद के साथ याद आने लगे उनके अग्रज लम्बे छरहरे धनुही सांठा धारी ऊँचे कद वाले पंडित बद्री बिशाल मिश्र जी की ऐंठी हुई धवल मूंछें। उन दिनों मेरे पिता जी वहां एक ऐग्रिकल्चर-फॉर्म की देख रेख के सिलसिले में उनके साथ वहां जाते रहते। लखनऊ युनिवर्सिटी में हमारे समय में कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता रहे इसी गाँव के निवासी और मिश्र जी के भतीजे श्री अशोक मिश्र भी याद आते रहे। उन्हीं दिनों इन्हीं लोगों में किसी से सुनी 'कीढा पासी' की कहानी तबकी सामजिक बुनावट की बानगी बखानती है।
'उस ज़माने के नामी डकैतों में गिने जाने वाले कीढ़ा पासी ने अपने वसूलों के चलते बड़ा नाम कमाया। एक बारअंधेरिया रात में बाराबंकी के किसी गांव में डाका डालने के इरादे से किसी घर की छत पर घात लगा कर बैठ गए। वहीँ से उन्होंने आहट पा कर घर में चल रही औरतों की बातकही सुनी। उन बातों से उन्हें पता चला इस घर में तो उनके गांव की बिटिया ब्याही है। ये जानते ही उन्होंने उस घर में डाका डालने का इरादा रद्द करके दल-बल सहित लौट आए। कुम्हरावां पहुँच कर बिटिया के बाप से सारा मामला बयान करते हुए माफ़ी मांगते हुए बोले - 'बड़ा भरी पाप करै से बचि गएन दादा !! अपनेन गाँव की बिटिया केरे हिंया डकैती डारै पर लगा पाप अगल्यौ जनम तक नाहीं छूटत। रामै जी की किरिपा तेने बचि गेन।'
सही ही कहा गया है जब तक जहाँ रहिए उस इलाके की वकत समझ में नहीं आती। वही जगह लम्बे वक्त तक कहीं और प्रवास करने पर बहुत अपनी अपनी लगने लगती है। वहीँ रहते हुए सामान्य सी लगने वाले उसी इलाके की विशेषताएं ज्यादा उजियार दिखने लगती हैं। बरसों इसी रास्ते पर चलते समय जिधर कभी ध्यान नहीं गया उनको संजोने लगा। आम तौर पर नखलउआ वालन की नज़र के फोकस से बाहर रहै वाले इस इलाके की महत्ता कहाँ जान पाएंगे जब वहीँ के जन्मे बाढ़े हमही कभी एकवट नहीं सोचे।
सिधौली से नैमिषारण्य जाने वाली सड़क का साइनबोर्ड पर लिखा 'बाड़ी' नाम पढ़ते ही गुनगुनाने लगे -
'सीस पगा न झगा तन पै, प्रभू! जानै को आहि! बसै केहि ग्रामा। धोती फटी-सी लटी-दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहिं सामा॥द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सों बसुधा अभिरामा। पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
आगे-पीछे खोपड़ी हिला हिला कर बचपन में रटने सुनाने की आदत के मुताबिक़ अब भी आपोआप हिलने लगे। पत्नी के आग्रह पर बालसखा श्री कृष्ण से मिलने उनके महल के द्वार पर पहुंचे दरिद्र ब्राह्मण सुदामा की दशा के चित्रण वाला ये सवैया रचा है सोलहवीं शताब्दी में बाड़ी ग्राम के निवासी नरोत्तम दास ने सुदामा चरित जैसे अमर काव्य में। हिंदी साहित्य का ककहरा भी पढ़ने वाला अथवा लोक परम्परा में तनिक भी दखल रखने वाला कौन नहीं जनता उनका नाम।

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1. दो अक्टूबर 2022 

 'कई आसमां हैं, इस आसमां से आगे --'

जन्मस्थान पर बीते बचपन किशोर वय की यादों की ललक खींच ले गई पिछले जन्मदिन दो अक्तूबर को वहीं । साढ़े बयालीस बरस बाद । उससे भी दो साल पहले साईकिल से वहां जाने का रास्ता भी फिर से देखने की जिज्ञासा जागी ।



पहुंच कर भावुक मन लिए जीने लगे दिल में संजोई मीठी खट मिट्ठी टीसती हूकती सुधियों में । वही आवास जिसके कोने वाले कमरे में जन्मे । सामने का लान, पेड़ पौधे, झूला, सुधियोँ में बसी छवियों में ढूंढने लगे।

खेलते-कूदते, पेंगें मारने या चुपचाप बैठ कर बुनते सपनों वाले वे दिन । तब की संवेदनाओं के हिलोरें। थिर तालाब के जल तल पर हल्की हवा की सिहरन सी ।
अपने आंगन में पाले परिंदों की फड़फड़ाहट, चोटिल कबूतर के सीने से रिस रहा खून पोंछ कर मलहम लगाने, बंदरों के उत्पात । हमजोलियों के साथ खेलने, रूठने, मनौनियों वाली बातें। किसी की मुस्कुराहट पर दिल आ जाने, घंटो बेमशरफ जाने क्या क्या बतियाने वाले दिन । कॉपी में चुपके से लिखी कविताएं नेह पातियां चुपचाप अकेले में खुद ही पढ़ कर रख लेने वाले बोल सुन पड़ने लगे । गुदगुदाने लगे ।
सबसे ज्यादा याद आए रातों में खुले आंगन में बिछी चारपाइयों पर लेटे लेटे आसमान में टिमटिमाते तारे । बाबा बताते उनके नाम और बताते कई आसमां हैं इस आसमां के आगे । सोचने लगता - चलें उड़ के चलें, उड़ते रहें उन्हीं में कहीं । '
उसी आवास के बाहर खड़े भर आए मन से सोचते रहे अब तो सचमुच आगे के आसमां में अकेले उड़ जाने के दिन आ रहे। आज देख लें मिल लें जी भर के । न जाने कब उड़ चलें ।
दो महीने बीतने को आए तबसे, जी रहा हूं बरसाती सोतों की तरह फूट रही उन्हीं उनीदी संवेदनाओं में। पलट पलट कर डायरी और सुधियों के पन्ने, नए सिरे से भर भर कर शब्दों में भर लेने लिख लेने को आतुर, सिमट ही नहीं रहे।
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Monday, November 14, 2022

 इधर न उधर, 

अधर में, 
व्याकुल व्यथित,
सौरमंडल में, 
भारहीन तिरता, 
तलाश रहा है, 
धरित्री से नाते की, 
असल डोर,  
जहां भी जैसी भी है।  

Wednesday, October 12, 2022

 

Rakesh Tewari  10 Oct 2022

Favorites  
लद्दाख : HIAAS #
बेशक बार बार आने की चाहत होती है हिमालय पार लद्दाख: 'नील गगन के तले' - रणबीरपुर स्थित सेंटर फॉर 'हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी एंड एलाइड साइंसेज' के मनमोहक परिसर में।
पारम्परिक लद्दाखी निवास के सामने पसरे रेगिस्तानी पठार, पॉपलर के ऊँचे दरख्तों और विलो के मंझले झाड़ों के बीच से झांकते गहरे नीले आसमान में बहकते बादलों के नज़ारे देखते को किस रसिक का मन नहीं ललचाएगा !!!
करीब ही हैं पूर्व-बौद्ध युग (बॉन) के सुरगामती महल के खंडहर, थिकसे और स्टाकना के प्रसिद्ध और सदियों पुराने मठ, बर्फ से ढके राजसी पहाड़ों के मनोरम दृश्य, ओक की परतों से ढकी लुढ़कती पहाड़ियाँ, बेहद खूबसूरत शाम के नज़ारे दिखाती सिंधु नदी, सेब के बगीचे और हरियाली घास के बीच सेंटर के शांत माहौल में रहते हुए, तारों जड़े रात का आकाश निहारने केआनंद वही समझ सकता है जो कुछ दिन वहां गुज़ार कर समझे। हाल ही में दूसरी बार हमने ये सुख पाया।
गंभीर शोध पर चर्चा और मौज मस्ती में बहकने के लिए अति उत्तम स्थान है यह सेंटर। चमचमाती हुई पॉपलर की शाखों और विलो की टहनियों से बनी छत निहारते हुए पारम्परिक सभा-कक्षों में लदाखी अंदाज़ में ज़मीन पर सजे आसनों पर विराजने, गुड़-गुड़ चाय ढुलकाते हुए डूब कर ने मन चाहे अंदाज़ में बतियाने का मन करे वो यहाँ जरूर बैठ सकते हैं।
खाना रहना सादा-सस्ता-दुरुस्त। छोटे वर्क शॉप के लिए बहुत बेहतर। इसीलिए हमसे पहले बीएचयू के प्रोफ़े ज्ञानेश्वर चौबे के नेतृत्व में एक ग्रुप ने यहाँ डेरा डाला। 2019 में हमने डॉ सोनम स्पलजिन (HIAAS), डॉ नीरज राय (BSIP), डॉ. मानसा राघवन (University of Chicago) के सौजन्य से आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में भाग लेने का सुअवसर पाया। हमारे बाद चित्रकारों के वर्कशॉप और स्थानीय क्राफ्ट पर किसी आयोजन की भी खबर रही।
डॉ तासी और डॉ विराफ मेहता से बात हुई है, फिर आएँगे, बार बार आएँगे, उनसे मिलने लद्दाख में, जल्दी ही।
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अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें इस लिंक पर : https://www.facebook.com/photo/?fbid=144502540711811&set=a.104728828022516

Friday, October 7, 2022

अच्छा किया !

 बात कर लेते अगर, सोते रहते बे-ख्याली में,  
अच्छा किया ! नहीं बोले, जगाया गलत-फहमी से।   

Thursday, October 6, 2022

कल एक पुरनिया से बात क्या हुई !!
कांटे सी चुभी, चुभी ही रह गई !!

सचमुच, हमारे बीच बहुत गहरी है खाई, 
जाति-पाँति से परे कसौटी नहीं रही 'सांई' !!

Monday, August 22, 2022

 क्या संकेत छुपे हैं !!!

देखा, विचित्र,
देख कर भूल जाने वाली
खास सीढ़ियों पर चढ़ते,
जहाज से लखनऊ के लिए उड़ते,
लैंड करते करते,गोता लगा कर
ज़मीन छूने से पहले
फिर उड़ गया जहाज।


उतारा रेलवे स्टेशन पर,
आते जाते लोगों के बीच,
हैरान-परेशान पटरियां पार करके
पहुँचा उस पार के छोटे प्लेटफॉर्म पर।
देखा स्टेशन का नाम 'डिहरी'
चला तो लखनऊ के लिए,
यहाँ कैसे आ गया !!
क्या गड़बड़ हो गयी,
सोचा, सामने के पुलिस कार्यालय में पता करते हैं।

तभी वो सपना टूट गया,
मगर पहले की तरह भूला नहीं।
लोग कहते हैं सपने
भावी का संकेत करते हैं।
बार बार जेहन में घूम रहा है,
बार बार जेहन में घूम रहा है,
घूम रहा है जाने क्या कहा गया !
उस  सपने में !!! !!
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Thursday, August 18, 2022

अपराध बोध

नहीं, वैसा कभी नहीं कर सकता,
किसी की इक्षाएं नकार कर, 
ललचा कर, किसी भी तरह, सीमाएं लाँघ कर, 
इतना भरोसा है अपने आप पर।  

मगर मन की बहकन का क्या करूँ, 
मनमाना है भटक जाता है, 
लालच, आसक्ति, नेह, द्वेष से, 
करें या कहें नहीं, तो भी, अपराध बोध से भर देता है। 

Sunday, July 31, 2022

मंज़ूर-ए-खुदा न हुआ

समझा फ़साना ख़त्म होने को आया, 
इक नई कहानी का पन्ना खुल गया।  

सोचा किनारा पा लिया है अब तो,
ढह कर किनारा धार में बहने लगा।  

जो जो सोचा बहुत पूरा हुआ,
नहीं हुआ जो मंज़ूर-ए-खुदा न हुआ।   

Friday, July 29, 2022

पाने-खोने की कलख से बढ़ कर, 
पा कर, संजोने की फ़िक्र होती है।  

Monday, July 25, 2022

कितने बहुरंगी --- !!

'कितने बहुरंगी --- !!' 

कभी देखते ही वितृष्णा, 
कभी रीझ जाते हैं  !!
कभी कुछ पढ़ कर ही,
आंसू छलकने लगते हैं,
और कभी पथरा कर,
पसीजते भी नहीं।  
कभी उदार-कंजूस,
नरम-गरम,
एक साथ ही,
कितने अजीब !!
हम, कितने बहुरंगी होते हैं !!

Monday, July 18, 2022

'सटकही स्लीपर'

 'सटकही स्लीपर'


सुबह की सैर पर चलते चलते घिसे तलुए वाली सटकती स्लीपर पर बार-बार सटकते देख सलाह मिली - ' फेंक दीजिए इसे !' फिर इस बाबत दरियाफ्त-मनुहार भी होती रही। सोचते रहे बात तो सही कही मगर बिना चोट खाए छूट जाए वो आदत ही कैसी।

दो दिन से एक 'घौलर-हवा वानर' छत पर उत्पात मचाने लगा। गमलों में लगे पौधे-भिंडी तहस नहस करने लगा। और तो और हिमाकत इतनी कि उनकी छाया में आराम भी फरमाने लगा। देख कर क्रोध में आकर आव देखा न ताव उसे भगाने लपका, भूल से वही वाली स्लीपर पहन कर।

आसन्न संकट से सजग ऊ तो छलांग लगा कर जा रहा इस छज्जे से उस छज्जे पर --- और इधर अपने राम दो ही कदम में फिसल कर ऐसा भहराए कि जगह-जगह धूस उठे, छटक कर दूर गिरी ऐनक का फ्रेम टेढ़ा हो गया, देह अब तक पिरा रही है सो अलग। भला भया जो बुढ़ापे में हाथ-पैर नहीं टूटे, बची-खुची कुदक्कई भी छूट जाती।

तब जा कर दोनों कान पकड़ कर सीख पाया - चिंता करने वालों की बात मान लेनी चाहिए। अब कैसे कहें कि इसी मूढ़-मंद-बुद्धि के चलते स्कूल में बहुतै संटी खाए हैं।

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Monday, July 11, 2022

तीन खिलाड़ी

Rakesh Tewari

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तीन खिलाड़ी: भारतीय धान की हरियाली हसीना





'एक हसीना तीन खिलाड़ी' फिल्म की याद आने लगी भारत में धान की खेती की शुरुआत के बारे में जेनिफर बेटस का टटका प्रकाशित लेख पढ़ते पढ़ते। इस खेल के भी कुछ वैसे हाल नज़र आ रहे हैं।
1. भारतीय खिलाड़ी:
धान की खेती वाले खेल की शुरुवात हुई 1975 में उत्तरी विंध्य के पठार पर बहने वाली बेलन किनारे के चोपनी मांडो, कोल्डिहवा, महगारा के प्युरास्थलों के उत्खनन से। गोवर्धन राय शर्मा की टीम ने दावा किया इस इलाके में धान के दानों के साथ सम्बद्ध किए गए कोयले की रेडियो कार्बन तिथियों के आधार पर लगभग 7000 ईसा पूर्व में इनकी खेती शुरू होने का। कुछ भारतीय पुराविदों को छोड़कर ज्यादातर ने इस दावे को अनेक कारणों से नकार दिया।
2003 > मध्य गंगा के मैदान में झील के किनारे स्थित लहुरादेवा के टीले से मिले जले हुए धान के अवशेष की रेडियो कार्बन तिथि और धान की बनावट के आधार पर डॉ. कृपा शंकर सारस्वत ने वहां लगभग 7000 ईसा पूर्व में धान की खेती का दावा किया। इसके बाद गंगा किनारे झूंसी और हेतापट्टी के टीलों से भी उतने ही प्राचीन खेती से उपजे धान मिलने का दावा डॉ. विद्या धर मिश्र एवं जगन्नाथ पाल आदि ने किया।
2. लन्दन वाले खिलाड़ी
2008 > लन्दन वाले डॉ. डोरियन फुलर आदि ने दावा किया कि धान की खेती चीन की यांग्तजी घाटी में शुरू हुई। साथ ही यह "परिकल्पना" व्यक्त की कि ' गंगा घाटी में खेती से उपजाए बताए जा रहे धान के अवशेष वास्तव में जंगली प्रजाति के हैं। और, कालांतर में, लगभग 2000-1500 ईसा पूर्व में चीन से गंगा घाटी में आए खेती से उपजाए गए धान (जपोनिका धान) के संकरण (हाइब्रिड) से यहाँ के वन्य धान का खेती वाला (पालतू: डोमेस्टिकेटेड) संस्करण उतपन्न हो स्का।
3. कैम्ब्रिज पलट खिलाड़ी
2017 > डॉ. - जेनिफर बेटस एवं अन्य ने दावा किया 'सिंधु घाटी' (पश्चिमी दक्षिण एशिया) में लगभग 3200 ईसा पूर्व में स्वतंत्र रूप से भारतीय धान की खेती प्रारम्भ होने का दावा किया। फुलर साहब ने इसे भी नकार कर कहा कि नहीं इस इलाके में भी खेती से उपजाए चीनी धान के पहुँचने के बाद लगभग 2000-1500 ईसा पूर्व में संकरण के माध्यम से खेती वाले भारतीय धान के संस्करण की प्रजाति को जन्म दिया। बेटस महोदया उनकी इस "परिकल्पना" को "परिकल्पना" मानने से भी पूरी तरह मना करके अपने निष्कर्ष पर मज़बूती से अड़ी हुई हैं। न केवल इतना, उनका यह भी कहना है कि डोरियन साहब की "परिकल्पना" के आधार बहुत उलझाऊ हैं।
बेटस महोदया आगे कहती हैं कि सिंधु घाटी में आया प्रारम्भिक धान गंगा घाटी के अपने प्राकृतिक परिक्षेत्र से वन्य या अर्द्ध वन्य प्रजाति के रूप में आने की सम्भावना है। मतलब गंगा घाटी में 7000 ईसा पूर्व के आस-पास इस्तेमाल किया ज्जा रहा धान अगले चार हजार वर्ष तक (लगभग 3200 ईसा पूर्व तक) वन्य/अर्ध्द वन्य-अर्द्ध खेती से उपजाया हुआ ही लगता है। और, डोरियन साहब के हिसाब-किताब से तो पांच हजार वर्ष तक (यानी 2000 ईसा पूर्व तक) जंगली/वन्य प्रजाति के रूप में ही इस्तेमाल होता रहा, इस इलाके के लोग इस मामले में स्टेटिक या यथावत रहे, इसकी खेती वाली प्रजाति पैदा करने की अपनी स्वतंत्र तकनीक नहीं विकसित कर सके।

गंगा-घाटी के निवासियों ने अपने इलाके के प्राकृतिक वन्य धान का 7000 ईसा पूर्व से उपयोग करना और उपजाना सीखने का दावा सही है !! या,

चीन से 2000 ईसा पूर्व के बाद आए चीनी धान से संकरण से गंगा-घाटी के धान की "परिकल्पना" सही है ?? या,
गंगा-घाटी का वन्य/अर्द्ध वन्य धान 3200 ईसा पूर्व के पूर्व सिंधु-घाटी पहुंचा, वहां उसकी खेती की प्रविधियाँ पनपी जिससे उपजा धान और उक्त प्रविधि कालांतर में वहां से गंगा घाटी में पहुंची।
और तब, 2000 ईस्वी पूर्व में चीनी धान के आगमन से संकरण से विकसित (हाइब्रिड) प्रजाति से क्रमशः आधुनिक धान का विकास हुआ।
भारतीय धान के सन्दर्भ में व्यक्त किए जा रहे उपर्युक्त अभिमतों और परिकल्पनाओं को सम्यक कसौटियों पर कस कर सम्यक निष्कर्षों तक पहुँचने की बड़ी चुनौती है नयी पीढ़ी के शोध कर्त्ताओं (पुराविदों/ पुरवास्पति शास्त्रियों) के लिए। देखें कौन कौन उठता है इन चुनौतियों का 'बीड़ा'। फिर देखिए खेती से उपजे भारतीय धान की हरियाली हसीना के जन्म का श्रेय किसे हासिल होता है - मध्य गंगा-घाटी, सिंधु-घाटी या यांग्त्ज़ी-घाटी को !!!!!!
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Monday, May 9, 2022

 (1) ' दिल हुमकता है ' 


सामने स्पंदित कल्पनातीत कुदरती स्वप्नलोक के सम्मोहन में मन्त्र-मुग्ध रह गया। घने कुहासे-तिरते बादलों में से झांकती तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी लबालब झिलमिल झील। तट पर चढ़ती चली आ रही छपछपाती लहरों पर नाचती पाल सजी, चप्पुओं से चंचल और किनारे पर थरथराती कतार लगाए रंग-बिरंगी नावें। पाहड़ों की हरियाली के बीच ढुके हुए से मकान-होटल। भीगे भीगे मुलायम मौसम में मुग्ध तरुण हृदय में आप्लावित होते कोमल भावोद्वेग। 

पहली पहली बार ट्रेन की खिड़कियों से पहाड़ दीखते ही हम झांक-झांक कर कूद कर उन पर चढ़ जाने को लालायित हुए जाते। काठगोदाम से आगे टैक्सी में बढ़ते नीचे बहती धारा, बाएं बाजू  जगह-जगह पहाड़ से झरझराती धाराएं, धीरे धीरे घूमती चढ़ती चकरियादार सड़क के नज़ारे निरखते चकित हुए जाते। मगर  टैक्सी स्टैंड पर पहुँचते ही उससे भी अद्भुत कुदरती जादू में बंध कर रह गए। आँखों में बसी उस दौर के नैनीताल की वैसी भावरंग भीनी  अलौकिक छवि उसके बाद एक बार फिर से देख पाने को जीवन भर तरसते ही रह गए।  

बावन बरस से कुछ ऊपर बीते। इंटर में पढ़ते थे। कलकत्ता से आए सेठ साहब के कम-उम्र साले साहब का नैनीताल घूमने का मन कर गया। अब उसे अकेले कैसे भेजा जाता।  तय हुआ उनके साथ फैक्ट्री मैनेजर साहब के पोतों यानी मुझे और बड़े भैया को भी उनके साथ भेजने का। इस तरह हमारी किस्मत का छींका फूट कर बहा ले गया हिमालय की पहली झांकी दिखाने। गुदगुदाते, तरंगित, रह रह कर उछलते मेरे कोरे-कोरे अंतर्मन के हाल कैसा रहा होगा वही समझ सकता है जिसने उस उम्र  में वैसा मौका पाया हो।  

झील से सटे दाएं बाजू थोड़ी सी चढ़ाई चढ़ कर एक होटल में डेरा डाला।  कौतुक भरी आँखों में भर-भर कर भरते रहे झील से सटी अंग्रेजी माल-रोड, उसके नीचे हिन्दुस्तानियों  के चलने के लिए बनी निचली ठंढी सड़क के नज़ारे। चंक्रमण कर आए चीना पीक, स्नो व्यू, किलबरी, गवर्नर हाउस, नैना देवी मंदिर, बोत क्लब, शेरवुड कॉलेज ले जाती पगियों पर।  उन दिनों नाव चलाने में महारत हासिल करने की  चाहत पूरी कर लेने की नीयत से मौके का फायदा उठा कर एक नाव वाले से दोस्ती कर ली। फिर तो अक्सर उसे नाव में एक किनारे बैठा कर मल्ली-ताल से तल्ली-ताल और तल्ली-ताल से मल्ली-ताल तक चप्पू चलाते फेरी लगाता उसकी सवारियां उतरने लगा। बैठे-ठाले उसकी मौज हो गयी और अपने हाथ सधते गए।  

श्रेष्ठि-पुत्र और भैया जब बाज़ार की टहल पर निकलते और मेरा मन वहां जाने का नहीं करता तो अपने होटल के पोर्टिको में बैठ कर चुपचाप ताका करता। वहीँ ठहरा एक हम-उम्र लड़का भी वहीँ आ जाता। जब-तब दिख जाती बगल के कमरे में रह-रहे स्थानीय परिवार के साथ रह रही एक सुन्दर सी मासूम लड़की। आते जाते उसकी झलक पाने के लालच में अधिक से अधिक समय वहीँ बिताने का राज उस लड़के ने थोड़ा भरोसा होने पर साझा किया । एक दिन एक गिलास पानी मांगने के बहाने उससे बात करके देर तक मगन रहा। लेकिन होटल के कर्मचारी से लड़की के ब्वाय-फ्रेंड की जानकारी मिलने पर मन मार कर मायूस हो गया। 

बड़ी हसरत से दिल हुमकता है जब-तब तब से अब तक - काश ! सोलह वर्ष की उम्र वाली उस सैर की छवियों और भावों में एक बार फिर से जी पाते। 

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Sunday, April 3, 2022

बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !!

'बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !! '


किसी ठिकाने ठौर न पावे, 
पता नहीं क्या मंजिल आगे, 
कहाँ टिकेगा सांझ सकारे,  
बन बन यूंही भटकन वारे,
बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !!  

मनमोहन ये कूल किनारे, 
गमक भरे ये उपवन न्यारे, 
भर-भर नेह लुटाने वाले, 
छूटेंगे पग पग पर प्यारे,  
बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !!  

मिला कहाँ क्या छूटा कैसे,
हुई खता क्या रूठे कैसे, 
गगरी ये वो फूटी भरके, , 
मन मायामय बहु भरमाये,
बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !!

अनचीते की तीती बातें,   
सिरजे तीखे मीठे नाते,  
जो पावै सो ही गंठियाये,
चला-चला चल यूं भिन्सारे, 
बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !! 

बिसरि बसाए कसक सिराए, 
भरि-भरि माथे उफन बहाए,  
घाट-घाट कै पानी परसै
सर सागर सरजमीं मंझारे, 
बाँध बिछौना बढ़ बनजारे !! 
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Monday, February 14, 2022

 जबसे तय किया ! वहाँ जाना नहीं है,
मुकम्मल तौर पर वहीँ रहने लगा है।


Thursday, February 10, 2022

अच्छा हो !

 कितना अच्छा हो !
गर शाम ही न हो !!

Tuesday, February 8, 2022

जैसे हवा

समायी जाती है ऐसे आके हौले से,   
फ़ैलती आती हो जैसे हवा सूने में !  

Sunday, January 30, 2022

 "I swear you will make a fantastic lecturer with long and successful lectures to your credit." 

August 1977    

Wednesday, January 19, 2022

"When you told me to do less studies but nicely I really liked it. Usually I don't talk to people a lot about myself and my ideas, But I spoke to you may be because I thought I could get some good advise from you rather than criticizm well that is that. Now you must write about your ---------------------- as you had said in Hindi of course, let me learn something from you. I will always remember it. This will be something that you have not given any one.  If they all can have your calendar I will have a collection of letters on different subjects from you."