Thursday, September 15, 2016

Suabarei surprise

Suabarei surprise: The ASI discovers a separate Neolithic phase for the first time in Odisha’s prehistory, followed by a clear-cut Chalcolithic horizon, in its excavations at Suabarei in Puri district. The two levels are separated by a gap of one metre that indicates 600 years of unexplained non-occupation. By T.S. SUBRAMANIAN

Monday, July 11, 2016

जाने क्या ?

जाने क्या ?

बहुत पुराने मिलने वाले, 
जाने क्या हो गया उन्हें ?


जाने माने ऊंचे ऊंचे
मिल जाते भूले भटके, 
कोरा में भर कर मिलते.


फोन कभी जो कर लेते, 
पलट काल करते रहते 
मीठी मीठी बातें करते।


सोचा कितने दिन बीत गए,
मुख दर्शन को तरस गए,
क्यूँ ना मिल बैठा जाए।


बोले कहिए कब कहाँ आएं, 
दिन ठौर ठिकाना नियत किये,
फिर, जाने क्यों वो ना आए।


एस एम एस और काल किये,
फिर भी पलट नहीं आए 
जोहते रहे वो ना आए।


पता नहीं क्या जुर्म किए, 
जाने-अनजाने कहाँ किए, 
बिना बताए सजा दिए।


कह देते क्यों खफा हुए,
चुप्पी क्यों ऐसी साध लिए, 
भीतर कैसी कुढ़न लिए।


अनचीते क्यूँ वार किए, 
अनहक ही अवसान किए, 
अपने कपाट क्यों बन्द किए।


भूले से क्या सोच लिए,
दुनिया में सरनाम हुए,
बड़े हुए जग जीत लिए।


मन में कुछ ऐसा भाव लिए 
मिलें कहीं कुछ मांग न लें, 
हाथों में भिक्षा-पात्र लिए।

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Monday, May 23, 2016

सब सपना है


सब सपना है

हमने समझा वह पगला है, 
सड़कों पर बहका करता है।


बस एक तराना जपता है, 
सब सपना है सब सपना है।


जो लगता अपना अपना है 
वो भी केवल एक सपना है।


जो बीत गया वो सपना है 
जो होता है बस सपना है।


जो आना है वो सपना है 
आता जाता बस सपना है।


ये भी कर लें वो भी पा लें 
ये सपना, वो भी सपना है।


वो हार गए, वो जीत गए 
वो भी सपना ही सपना है।


वो बड़ा हुआ, वो छोटा है,
यह भी मानो बस सपना है।


वो जीते जी भी सपना है,
जो चला गया वो सपना है।


जब आँख खुले पट उठता है,
जब बंद हुई पट गिरता है।


वह बात पते की कहता है, 
अब मान भी लो सब सपना है।

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Sunday, April 3, 2016

बवंडर


बवंडर

है किस कदर गुरूर, वो बे बात ही तनते गए,
समझे नहीं बूझे नहीं, अपनी अड़ी पे अड़ गए।


बात ही ताकत में वो, जो पा गए वो तप गए, 
जिस तरफ भी देख लें, सब ताल पोखर जल गए।


ये भी जाएँगे वहीं, जिस घाट पर सब लग गए, 
हैं तयशुदा राहें वही, जिन पर सभी चलते गए ।


बात ये समझेंगे क्यों, इस वक्त वे अकड़े हुए, 
क्यों लोग उनकी सह रहे, हालात में जकड़े हुए।


सब में है इतना दम कहाँ, लड़ते रहें लिथड़े हुए, 
चल दिए जाने कहाँ, ये टीस अन्दर ही लिए ।


भरभरा कर आस के, बलुहा घरौंदे ढह गए, 
सब ख्वाब चकनाचूर हो, बालू-चरों में बस गए।


फिर हवा घुमरी बनी, फिर से बगूले बन गए,
फिर देखते ही देखते, बन कर बवंडर उड़ गए।

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Tuesday, March 29, 2016

कमरिया

कमरिया

चाकरी में लग गए, इस मोड़ पे आ कर के हम,
सोचते फिर भी रहे, क्या मंज़िले मकसद पे हम ?

था नहीं मालूम हमको, ठौर किस ठहरेंगे हम,  
था नहीं आभास यह कि, इस कदर जकड़ेंगे हम।

जो जो हुआ देखा किए, इस दौर में नत्थी हैं हम,
ये गौर से समझा किए, बे ताब की हस्ती हैं हम। 

चुपचाप जो सुनते रहे, उस राज़ के हमराज हम,
अहमक़ हमें समझा किए, उनके लिए बस खाक हम। 

फिर क्या हुआ, कैसे कहें, गुनते रहे अपने में हम,
क्या फैसला कैसे करें, दिन-रात थे उलझन में हम।

जोड़ा घटाया कर लिया, हासिल जमा हैं हम ही हम,  
है डेरा ये भी उठ गया, हैं अब नहीं गफलत में हम। 

क्या करेंगे अब भला, टूटी हुई लकुटी का हम,
अपनी कमरिया भी संभालो, चैन से पसरेंगे हम।

माने नहीं आली मगर, कहने लगे ऐसे ही चल,
करिया कमरिया’ ओढ़ कर, चलते रहो देखेंगे हम।
   
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Thursday, January 21, 2016

लरिकाईं

लरिकाईं

May 9, 2012 at 8:52pm



लरिकाईं  उर  में  अटीं, अंगनाई  के  छोर, 
इक  दिन  भोरहि  उड़  चलीं,  सँग  लिए  हिय  मोर. 

कितनउ  थिरके  गगन  में, खींचै  बांधे  डोर,   
वहि  सुवास,  सिहरन  भरी, चितवन  चारिहु  ओर.

Sunday, January 17, 2016

'हाफ ब्वाएल्ड'

'हाफ ब्वाएल्ड' 
http://www.telegraphindia.com/1141125/jsp/nation/story_19084385.jsp#.VHmmGjGUcW9

काशी से भभूत रमाए जौनपुर जाते हुए सोचता रहा इस भूषा में अटाला मस्जिद का दौरा कैसा लगेगा, लोग क्या सोचेंगे, फिर सोचा   जिसको जो सोचना है सोचे,  पहली पहली बार तो भभूत लपेटी है अब जैसे हैं वैसे ही रहेंगे, यह सोच और अगर मगर भी फ़िज़ूल में दिमाग मथे रहती है।  

मौके पर पहुंचे तो जौनपुर के किले के दरवाज़े पर  अपने महकमे के  और  लोगों  के साथ  काले मुहर्रमी  लिबास  में जमाल साहब को गुलदस्ता थामे अगवानी में  पाया तो याद आया वे भी दिल्ली से मुहर्रम मनाने घर आए हैं। मिलते ही उनकी गर्मजोशी ने दिल जीत लिया।  बढ़-बढ़ कर आगे-आगे किले के बारे में बताने  लगे।  

जमाल साहब का घर किले के ठीक सामने है। उनकी 'नार' भी वहीं कहीं गड़ी होगी। पढ़ लिख कर  बड़े  हो कर  रोज़ी - रोटी के लिए बाहर चले गए लेकिन हर साल मोहर्रम का वक्त आने पर  वहीं दबी सोई 'नार' जाग कर बरबएस उन्हें वहाँ खींच ले जाती है। फिर वे कुछ दिनों के लिए वहाँ बिताए वक्त की यादों के साए में लौट जाते हैं।  

हमारा छोटा सा हुजूम आहिस्ता - आहिस्ता  बढ़ता गया और वे अपने बचपन में खोए जज़्बाती हुए जाते  - 



"यहाँ जो भीतर का मैदान है, कभी हमारा फ़ुटबाल का ग्राउंड हुआ करता था।  एक बार देशपांडे जी आए और हमें खेलता देखा तो बुला कर पूछा - यहां क्यों खेलते हो ? हमने बताया बाक़ी के मैदान बहुत दूर हैं, यह घर के नज़दीक है।  सुन कर पीठ ठोंक कर बोले अच्छा जाओ खेलो। खेलते खेलते जमाल साहब एक दिन फ़ुटबाल टीम के कप्तान हो गए ."

हम टर्किश हम्माम की बारीकियां और खूबियां  समझते  रहे और जमाल साहब अपने बचपन में मगन -

"यहां हम छुपम - छुपाई खेलते , पानी वाले सूराख में घुस कर कभी इधर से और कभी उधार से निकल कर गुम हो जाते।  हम इसे भूल भुलइया कहा करते। "

आगे बढे , सामने से आई पैड पर तस्वीर उतारते नौजवान से तोअरोफ़  कराया  - "छोटा भाई  है - माज़िद। " उसने भी मुस्कुराते हुए गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया।  जमाल साहब बताते रहे -

"ये जो छतरी सी बनी है ना, यहां लोग वर्ज़िश और मालिश किया करते थे , अब कम दीखते हैं वैसे लोग।  और यहां से देखिए, पूरा जौनपुर शहर दीखता है यहां से, सामने गोमती पर तना  मेहराबदार  शाही  पुल अकबर का बनवाया है।



जिस दीवार की मरम्मत  अभी की जा रही  है। एक बार यहां काम कराने के दरमियान दीवार में से गाहड़वालों के वक्त की कुछ मूर्तियां निकलीं तो स्टोर में रखवा दीं, अभी आप को दिखलाते हैं।

सिन्हा साहब के फादर यहां सी. ए. की पोस्ट पर थे तो हम उनके साथ बचपन में यहीं खेला करते।  हम तो यहां के एक एक कोने से वाकिफ हैं।  

आप देख रहे हैं वो  सामने जो ऊंची बुर्जी है वहाँ बैठ कर पढ़ने आया करता था।  चलिए आप को दिखाता  हूँ यहां घंटो बिताता।  बड़ी खुशगवार हवा बहती थी यहां जैसे आज बह रही है।"

बोलते बोलते जमाल साहब की आँखों में उनका बचपन जुग्ग जुग्ग चमक उठता।



किले के ऊंचे टीले और उसके बाहर चारों और बनी खंदक का ज़िक्र करते करते उन्हें अपने बुज़ुर्ग याद आए जिनका घोड़ा कभी उन्हें लिए दिए उसमें फांद गया था जिसके चलते उनका पैर टूटा तो आगे सीधा नहीं हुआ।

लंब-ए-सड़क अपना मकान, उससे लगी कद्दावर भतीजे की घड़ी की और उससे सटी बन्दूक की दूकान दिखाई, बड़े भाई से मिलवाया,   सड़क पर सीवर की खुदाई के दौरान मिली चमक दार पॉटरी (एन. बी. पी.) और उस बिना पर यहां की बसावट के हज़ारों बरस से वहीं बसे होने का दवा किया। इस जानकारी ने हमें उकसाया और जानने देखने को। उनसे कहा कि क्या कहीं हमें भी दिखा सकते हैं जहां यह पॉटरी मिलती हो।

वो और जोश में भर कर अपने साथ बगल की गली में लिवा ले गए।  अपने दादा का बनवाया लंबा चौड़ा मकान दिखाया।  बोले ये है मेरा 'ददिहाल'और आगे यहां रहे थे हमारे मामू, ये रहा हमारा ननिहाल। अगल बगल के घरों पर मुहर्रम के काले झंडे लहराते दीखते और मातम के बोल सुन पड़ते। ननिहाल के पास ही वे हमें अपने पुश्तैनी कब्रिस्तान में लिवा ले गए। बुज़ुर्गों की कब्रें दिखलाईं जिनके आस-पास पुराने ठीकरे देखते ही हमारे दस्ते ने फ़टाफ़ट एन बी पी और ग्रे वेयर के टुकड़े और एक टेराकोटा हेड बीन लिया।  'हाथ कंगन को आरसी क्या ? पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या ?' सब ने जमाल साहब का दावा मान लिया।

अब सब इस जुगाड़ में लग गए कि अगर कहीं खंती लग सके तो यहां की तवारीख का सही सही पता लगे।  जमाल साहब फिर आगे आए -

"अरे इसमें क्या है।  चाहें तो यहीं कब्रिस्तान के कोने में लग सकती है,  नहीं तो दादा के मकान के पास वाला खाली प्लाट तो है ही। "


अगला ठिकाना अटाला मस्जिद देखा। वहाँ भी जमाल साहब के फुटबाली ज़माने के साथियों ने तहे दिल से हाथो हाथ लिया। जमाल साहब ने इस बात पर बड़ा रंज़ जताया:

" है तो यह मस्जिद बहुत ज़माने से अपने प्रोटेक्शन में लेकिन कोई खैर खबर नहीं ली गई।  अनजाने में देख रेख करने वालों ने जगह जगह सीमेंट से मरम्मत प्लास्टर कर बदनुमा कर दिया।"

फिर अंदर के खुले हिस्से के एक और इशारा कर के तस्दीक कराई -

"इसी जगह हम सब तख्ती पर इमला लिखा करते थे।  यहीं हमने शुरुआती तालीम पाई। इसी मदरसा-ए-दीनो दुनिया में।"

फिर ले गए मस्जिद की ओर।  दूर से देख रहे मौलवी ने आवाज़ लागई - "जूते वहीं उतार दीजिए।"
हमें देर लगी तो इत्मीनान दिलाया "बेफिक्र रहिए,  कोई ले नहीं जाएगा। " 

मस्जिद के अंदर की नफीश नक्काशी दिखा कर जमाल साहब ने बताया ऎसी लाज़वाब कारीगरी देखने को नहीं मिलती।



अटाला मस्जिद से चार अंगुली मस्जिद की ओर निकले।  जमाल साहब ने कहा - "मुहर्रम तक रुकिए तो देखिए यहां की रौनक।  ज़ंजीरों और चाकू छुरियों से ऐसा मातम होता है कि समूची सडक खून से रंग जाती है, और देखने वालों की इतनी तादाद कि तिल रखने को जगह ना रहे। "

गलियों में बड़ी गाड़ियों के लिए मुश्किल से जगह बनाते लंबा रुट लिया।  रास्ते में बिक रहे गन्ने देख कार्तिक एकादशी और इक्ष्वाकु राजवंश, कुदरती गन्ने की चर्चा के बाद जौनपुरी मूली और मशहूर इमरतियों की बात हुई। कर्बले के नज़दीक से निकले तो जमाल साहब ने अपने दादा और अब्बू को हसरत से याद किया, दादा की ज़मींदारी और नेकदिली और ज़मींदारी ख़त्म होते ही लगान ना वसूलने के ईमान की बात बताई, मज़लिश में उनके बोलने का अंदाज़ बताया, उस जगह पर हज़ारों ताजियों दफनाने का ज़िक्र किया।

जमाल साहब अपनी रौ में कुछ और बोलते कि तभी ओटा जी ने शरारत से टोक दिया  -

"आप भी तो हज़ कर आए हैं, पहले के सब पाप कट गए होंगे।  अब आप भी मज़लिश में बोल सकते हैं हाजी साहब।  "

जमाल साहब हौले से मुस्कुरा कर बोले - "अमां यार क्या बात करते है आप भी।  भला मैं कहाँ ऐसा कर सकता हूँ। सरकारी नौकरी में सच बोलने का दावा भला कौन कर सकता है ? और नहीं तो इतना झूठ तो बोलना ही पड़ता है, बाज बाज, बहुत फोन आएं तो कह दो नहीं हैं। " यह सुन कर सबने उनकी साफ़दिली की तारीफ़ की।

चार अंगुल मस्जिद की एक मेहराब मशहूर है अपनी इस खासियत के लिए कि छोटा बड़ा जो नापे उसकी माप चआर अंगुल ही निकलेगी।  जमाल साहब के ज़ेहन में यहां की यह शोहरत बचपन से कब्ज़ा जमाए रही लेकिन हमें दिखाते वक्त ढूंढने के बाद भी उसकी शिनाख्त नहीं करा सके।

फिर से ताजिए पर लौटे।  असल में हिन्द से बहुत दूर ईराक में कर्बला जा कर मातम मनाना सबके बूते की बात तो है नहीं, शायद इसी लिए हिन्द के शिया लोगों ने यहां के तकरीबन हर ख़ास शहर - कसबे में अपने अपने कर्बले बना लिए।  हर बरस मुहर्रम के मौके पर कर्बला की ज़ंग की याद में, जिसमें इमाम हुसैन साहब क़त्ल किए गए थे, छोटे बड़े ताज़िए (मकबरे) उठा कर जुलूस निकाल कर ज़ंग के वाकयों को फिर से जीते हुए अभिनीत करने और आखीर में इन ताजियों को कर्बला में दफनाने लगे।    

तभी किसी साथी ने कह दिया कि हाँ हाँ उनके फलां दोस्त भी ऐसा ही बता रहे थे और जमाल साहब सुनते ही तुनक गए - "अमा यार उसे क्या आता है ? एक बार पूंछ दिया था - ताजिए में दो छोटी छोटी हरे  लाल  तुरबत क्यों बनाए जाते हैं ? बस मुंह खोल दिए, इतना भी नहीं बता पाए कि हसन - हुसैन की याद में बनते हैं।  छोड़िए उनकी बातें ठीक से नमाज़ तक तो पढ़ नहीं पाते। ' हाफ ब्वाएल्ड' समझिए उनको ' हाफ ब्वाएल्ड'।"

पहले तो समझ नहीं आया क्या कह गए।  फिर समझ में आया तो देर तक हँसता रहा -  'हाफ ब्वाएल्ड', ,मतलब अधपका अण्डा, मतलब अधकचरा।

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