Saturday, August 10, 2019

'लद्दाख: टकसाल खोलने से पहले !!'

Rakesh Tewari
Published by Rakesh Tewari14 hrs

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'लद्दाख: टकसाल खोलने से पहले !!'

पल पल रंग बदलते निहायत दिलकश नज़रों वाले सूखे पहाड़, बर्फीले शृंग, गहरे नीले आसमान में तिरते बादल, चमचमाते साफ़ पानी भरी नदियों, धाराओं और चश्मों वाली वादियों में पॉपुलर के ऊंचे दरख्त, विलो के शाख़दार झाड़, ख़ास तरह की चेरी, सिया या जंगली गुलाब, मिटटी की ईंटों से बने सपाट छत वाले मकानों से सजे गाँव, बौद्ध विहार, 'लघु चोरटेन' की कतारों जैसी कितनी ही खसूसियतों से भरे, और ऊंचे दर्रों से भरे हिमालय पार के सबसे ऊंचे और ठंढे मरू-स्थल में शामिल लद्दाख में पर्यटन और औद्योगिक टकसाल से सिक्के ढालने का ख्याल अच्छा है। लेकिन, यह सुनते ही मेरा ज़ेहन झनझनाने लगता है एक गंभीर आशंका से। इसी जद्दो-जहद में उत्तराखंड में बिना विचारे किए जा रहे अंधाधुन्द विकास से हुए विनाश के नज़ारे आँखों में डबडबाने लगते हैं।
पहले से ही बढ़ रहे लेह-लद्दाख जाने वाले पर्यटकों, बाइकर्स और ट्रेकर्स के रेले देख आमदनी की बढ़ती जा रही संभावनाओं में कोई शक नहीं। न्यूब्रा घाटी, तुरतुक, पैंगांग सो, चुमा थांग, निम्मू की जादुई खूबसूरती का सम्मोहन है ही कुछ ऐसा। मगर यह तभी तक हो सकेगा जब तक कि उस इलाके को वैसा ही बनाए रखा जा सके। और ऐसा करने के लिए वहाँ के कोनों-अतरों और सार्वजानिक स्थानों के तेज़ी से प्लास्टिक और कूड़े के ढेर में तब्दील होते जाने से निजात पाने और अच्छी तादाद में साफ़-सुथरे वाशरूम के इंतज़ामात कराने की अहम् ज़रूरत है। यहाँ आने वाला शायद ही कोई इस मसले से नावाकिफ होगा। औद्योगिक विकास की पहल के साथ इस पहलू पर और भी ज्यादा गौर करने की ज़रुरत होगी।
ऐसे में , लद्दाख के विकास की कोई भी योजना बनाने से पहले वहाँ की भू-भौतिकी, वातावरण, संस्कृति आदि की संवहन क्षमता (carrying capacity) की गहरी छानबीन और उसके मुताबिक़ नपी-तुली परियोजनाएं बनाना निहायत मुफीद होगा। आमदनी भले ही कम हो, लद्दाख की अपनीपहचान और मौलिकता से हरगिज़ समझौता नहीं होना चाहिए।
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Saturday, August 3, 2019

Friday, August 2, 2019

उसने कहा -


उसने कहा -
'ऐ बादल !
जहाँ तुम्हारा जन्म हुआ,
वह तुम्हारा घर नही !
जहाँ का अनुपम सौंदर्य 
निकलने के
सारे रास्ते
छीन ले
वहाँ है तुम्हारा घर !'
बादल बोला
एक जगह
टिक कर रहना
मेरी फितरत नहीं
मनमाना विचरता
जहाँ मोहा बरसता
किसी और मोहक
लोभ की ओर
बढता हुआ .
उसने कहा
ऐ बादल !
ठीक कहते हो, मगर
मेरा सम्मोहन
कुछ ऐसा है कि
चले जाओगे
फिर फिर आकर
इन्हीं वादियों,
घाटियों में बरसने
फुनगियों में
बसने के लिए .

पहले ,

पहले ,
आँच सुलगाते,
हवा देते, लपटाते,
तापते, लाभ लेते,
बड़वानल दहकाते हैं .
फिर, जब खुद भी
जलने लगते,
सर्वग्राही आग में,
तब लपटों को
गरियाते पछताते हैँ .

वक्त चलने का

वक्त चलने का ज्यों-ज्यों करीब आ रहा है,
ये वादी, ये मंजर, दरख्तों के घेरे,
ये पर्वत, ये दामन, ये बादल घुमेरे,
यूँ आँखों में भरने का जी कर रहा है .
Comments
  • Ashvani Kumar Very heartiestic....
    1
  • Omprakash Pareek कभी बूंदें, कभी बौछारें तो कभी बरसे बरखा / कभी धूप खिले,कभी छाए घटा तो कभी बादल गरजें / कभी बिजली चमके औरअंधेरे से लुका-छिपी खेले / अब ये कुदरत की हैं अठखेलियाँ या कोई जादू / डर है कि कहीं खो न जाऊं मैं इन्हीं में रम कर
    (पंक्तियां मेरी - प्रेरणा आपकी 
    पंक्तियां)
    2
  • Vidya Vinod Pathak सुंदर सोच।
    1
  • Prem Chand Pandey राकेश तिवारी जी, U.S.A. पहुँच कर वहाँ के वातावरण और प्रकृति के बारे में अवगत कराइएगा