Monday, June 4, 2018

अफ़ग़ानिस्तान 6.4 : 'हिन्दुस्तान में पहाड़ होते हैं ?'

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.4 : 'हिन्दुस्तान में पहाड़ होते हैं ?'
(खत अभी ज़ारी है)
जब लिखना छोड़, मुड़ कर, श्याम की ओर देखा, वे पहले की तरह ही चुपचाप बैठे कसमसाते मिले। और जब, उनसे बाहर का एक चक्कर लगाने को कहा तो उनके चेहरे की रौनक लौट आयी, चहकते हुए तुरंत तैयार हो गए। यूं ही चहलकदमी करते मन्दिर के बाहर की गलियों का जायजा लेते देखते रहे - केतली से चाय पीते दस्तार साजे ऊँचे कद्दावर अफ़ग़ान, ताज़ा ताज़ा तंदूर से निकली रोटियां, लोहे की सीखों में बींध कर पकाए जा रहे गोश्त के टुकड़े जिनकी अनचाही गमक नाक में धंसी चली आती। थोड़ी देर में लौट कर मैं फिर से लिखने में लग गया और शयाम स्कूल की ओर निकल गए।
काबुल कब बसा और यहाँ सबसे पहले कौन से लोग बसे इनका ठीक ठाक पता नहीं लगता। फिर भी अपने ऋग्वेद और पश्चिम एशिया के अवेस्ता जैसी पुरानी तहरीरों में 'काबुल' या 'कुभा' नाम के दरया और शहर का ज़िक्र मिलता है। आज से तकरीबन 2700 बरस बीते काबुल घाटी पश्चिमोत्तर ईरानी हुकूमत के अधीन, फिर 2550 बरस से आगे करीब 200 बरस ईरान के ही अखमेनिद शाही घराने के राज का हिस्सा रहा। उसके बाद मकदूनिया वाले सिकंदर-ए-आली के नक़्शे कदम पर सेलुसिड और फिर मौर्य आदि राजवंशों के परचम फहराए। पुराणों में काबुल दरया का नाम कुहू मिलता है जबकि 2300 बरस पहले एरियन इसे कोफेस, उसके बाद के 300 सालों में प्लिनी ने इसका नाम कोफेन, टॉलेमी ने कोआ और और लोगों ने अपनी अपनी अपनी बोली के उच्चारण के हिसाब से लिखा। हिन्दुकुश पहाड़ से निकल कर सुलेमान पहाड़ को काट कर बहता यह दरया आगे हाटक या अटक के पहले सिंध नदी में मिल जाता है। हिंदुकुश से ही निकलने वाला दूसरा काबिले ज़िक्र दरया है हेलमंद -----------
अभी इतना ही लिख पाए थे कि दरवाज़े पर नमूदार हुए श्याम और उनके पीछे पीछे आते स्कूल के मास्टर शर्मा और उनके साथी संधू। आते ऐन ही श्याम ने ऐलान कर दिया - लिखना पढ़ना बाद में कर लेना। आज चलते हैं दर्रा-ए-पघमान, बहुत खूबसूरत जगह है, तुम्हारे मन लायक। ये लोग भी साथ चल रहे हैं। इसके बाद कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश नहीं रही। मन्दिर के बगल से ही मिली 'मिल्ली बस' में भरी सवारियों में हम भी किसी तरह अंड़स लिए ऐसे कि उनके आगे बाहर कुछ दीखता ही नहीं। 'कोटे संगी' में उतरे तब कहीं राहत मिली। आस-पास रेहड़ियों पर बिक रहा सूखा मेवा खरीद कर जेबों में भरा, और उसी दर पर आयी डब्बे जैसी अगली बस में ठुंस कर बढ़ लिए दर्रा ए पघमान की ओर।
साथ की सवारियों में से अंग्रेजी का जानकार अंग्रेजी में बात करता रहा। अफ़ग़ानिस्तान में छह-सात महीने से रह कर काम चलाऊ पश्तो-दरी बोलने का रियाज़ कर चुके मास्टर शर्मा और सन्धू बकिया के अफगानों से मुखातिब हो कर एक आध जुमला टपका कर बतियाने लगे। उनमें से एक ने जानना चाहा -
"शुमा मुस्लिम अस्त ?"
"नहीं हिन्दी", शर्मा ने जवाब दिया। सवाल करने वाले के चेहरे का रंग बदलता दिखा। फिर आगे की बातें यूं चली।
"हिन्दी ---- हिन्द ---- हिन्दुस्तानी !!!"
"हाँ हिन्दुस्तानी !!!"
"हिन्दुस्तान - अफ़ग़ान दोस्त, बिशियार खूब !!"
इतना बोलने के बाद दोनों तरफ के बोल खलास हो गए। वे अपने में और मास्टर शर्मा बताने लगे - अमृतसर के नामचीन 'सिंगरों' में शुमार होता है उनका नाम। 'इण्डिया' में होने वाले उनके 'कॉन्सर्टस' में साठ-सत्तर हज़ार लोग तो जुट ही जाते हैं। अफ़ग़ानिस्तान का सबसे मशहूर 'सिंगर' उनका यार बन गया है और उसके 'कॉन्सर्टस' में भी जब वे गाते हैं तो भीड़ सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के गाने की फरमाइश ज़ोर ज़ोर से शोर मचा कर उठाती है। इतना ही नहीं मुकेश से भी उनकी खासी दोस्ती -------------------- और, तलत महमूद उनका अज़ीज़ रहा ------ ।
इतनी लम्बी ढील से अपनी सब्र का बाँध टूटने लगा लेकिन श्याम उन्हें बढ़ावा दे दे कर मज़े लेते रहे।
तब तक मास्टर ने मज़मून बदल कर अगला पैतरा मारा - उनके बाप पंजाब के मशहूर क्रांतिकारी हैं और 'ऑल इण्डिया फ्रीडम फाइटर्स असोसिएशन' के फॉर्मर जनरल सेक्रेटरी भी -------।
सड़क धीरे धीरे ऊँचाई की ओर चढ़ती रही और बाएँ बाज़ू की वादी फैलती गयी। पीछे काबुल नीचे दिखने लगा। कुछ कुछ हरियाली और पथरीले पाट पर खलभलाता छलछलाता दरिया का पानी। सामने की पहाड़ी पर चचमाती बर्फ की और लमहां-लमहा बढ़ती हमारी बस।
उसी बीच मिलीजुली उर्दू बोल लेने वाले अभी अभी बने शर्मा के दोस्त ने दरयाफ़्ती सवाल करने शुरू कर दिए -
'क्या हिन्दुस्तान में पहाड़ होते हैं ?'
'क्या हिन्दुस्तान में अंगूर और अखरोट होते हैं ?'
'क्या कश्मीर यहाँ से ज्यादा खूबसूरत है ?'
बेशक किसी भी मुल्क के बाशिंदे के लिए उसका मादरे वतन दुनिया के किसी भी कोने से ज्यादा खूबसूरत होता है और उसके सामने किसी और देश की खूबसूरती बयान करना बेअदबी होती। बोली से मार खा गए वरना तफसील से समझाते उसे - 'सारे जहाँ से अच्छा दिखता वतन हमारा', यह जुमला भी सुनाते - 'खूबसूरती बसती है देखने वालों के नज़रिए और आँखों में, और इस बिना पर कुदरत का जर्रा-जर्रा, हर कोना, पहाड़-मैदान, जंगल और रेगिस्तान-मैदान सब बराबर के खूबसूरत होते हैं। लेकिन, ऐसी कुदरती खूबसूरती भी होती है जो पहली नज़र में हर किसी की आँखों में उतर कर वहीँ बस जाए, और जो देश-काल की सरहदें, सारी दिशाएं, पढ़े-लिखे और अनपढ़ की सीमाएं पार कर एक सा असरदार हो।
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(खत अभी ज़ारी है। )

अफ़ग़ानिस्तान 6.3 : '---- मुग़ल बनि आए, ---'

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.3 : '---- मुग़ल बनि आए, ---'
(खत अभी ज़ारी है)
'बस इनकी यही आदत अच्छी नहीं लगती। एम्बेसी वालों ने भी जाने क्या क्या थमा दिया आते ही। अब बस यहाँ भी पढ़ना, जाने क्या क्या सोचना, फिर उसे खत लिखना। इसी कमरे में घुसे रहना है और उसी के बारे में सोचना, तो यहाँ आए ही क्यों।' श्याम जी भुनभुनाते हुए चले गए। घूम-घाम कर आए थे गपियाने। मुझे लिखता देख कुछ देर इधर-उधर का जायजा लिया लेकिन कितनी देर मुंह बांधे रहते भला।
"काबुल के बारे में इससे पहले कभी कायदे से सोचा या पढ़ा नहीं था। लोग-बाग कभी-कभी किसी पढ़े-लिखे की बेवकूफी पर हंस कर बोलते - 'काबुल में भी गधे होते हैं' - तब भी नहीं। अब यहां आने पर इसके ज्यादा पहलुओं पर ध्यान जाना वाजिब हो गया। पढ़-पढ़ कर जो कुछ जुटाया खत का मज़मून बन कर तुम्हारे लिए हाज़िर है। ज़मीन पर बिछाने वाली 'दरी' का नाम ज़रूर सुना होगा, विंध्य के पठारों में झरने बनाते हुए बहने वाली धाराओं के लिए भल्दरिया दरी, देव दरी, पहती दरी जैसे नामों से हम खूब वाकिफ रहे, लेकिन फ़ारसी भाषा से निकली इस नाम की कोई भाषा-बोली अफ़ग़ानिस्तान में आम लोग बहुतायत में बोलते होंगे, यह यहीं आ कर जाना। इतना जान कर माथे में 'दर' और उससे जुड़े तमाम लफ्ज घूमने लगे। 'दर' के मायने होते हैं - जगह या द्वार और उसी से बने हैं दरवाज़ा, रास्ता बनाते हुए बहने वाला दरया, पहाड़ों के बीच का रास्ता - दर्रा, दरार, दर-दर वगैरह और फिर यह भी कि कितना कुछ यूं ही जान लेते हैं हम ऐसे ही दर-दर भटकते हुए।
वैसे अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े खित्ते में बराबर का दरजा रखती है 'पश्तो' भी जिसे बोलते हैं पश्तून लोग पूर्वी अफगानिस्तान से पश्चिमी पाकिस्तान तक आर पार। दरी और पश्तो दोनों को सरकारी ज़बान की हैसियत हासिल है। इनके अलावा यहाँ के अलग अलग इलाकों में अलहदा ज़बानें भी बोली जाती हैं जैसे दक्खिन में बलोचिस्तान वाले बोलते हैं 'बलोच', उत्तर-पूरब के छोटे हिस्से वाले नूरिस्तानी और बड़े फैलाव में ताज़िक, बीचोबीच हज़ारा, मग़रिब (पश्चिम) में ऐमाक, और धुर उत्तर-पश्चिमी पट्टी में तुर्कमेन। यह सब जान कर एक बार फिर अहसास हुआ कि अपने इलाके में रहते हुए बिना गहरी तफ्तीश के ही बनायी गयी हमारी धारणाएं कितना गच्चा खिला सकती हैं। इतनी बोलियों के चलते अलग-अलग लोग अपनी बोली के मुताबिक़ 'काबुल' को 'काबेल', कबोल, कबूल, कॉबुल भी पुकारा जाता है।
हमारे अवध में पास-पड़ोस में जब कोई ज्यादा बढ़ चढ़ कर मॉडर्न बनने लगता तो जब-तब लोगों को एक कहावत कहते सुनते रहे - "काबुल गए मुग़ल बनि आए, बोलैं मुगली बानी, आब आब कहि भइया मरि गे सिरहाने रक्खा पानी।" मतलबु यहु आय कि - भइया गए काबुल और वहां से मुग़ल भाषा सीख कर आ गए। जब वे बीमार हो कर खटिया पर पड़ गए और उन्हें बहुत ज़ोर की प्यास लगी तो काबुल में पड़ी मुग़ल भाषा में बोलने की आदत के मुताबिक़ 'आब' - 'आब' चिल्लाने लगे, सुनै वाले समुझै ना पाए की पानी (आब) मांग रहे हैं, औ ऐसे ही चिल्लाते-चिल्लाते भइया क्यार जिउ निकरि गवा, जबकी सिरहाने (सिर के पास) ही पानी रक्खा रहा। ये कहावत सुनते सुनते हम समझते रहे कि काबुल में 'मुग़लई बानी' (उज़्बेकी) बोली जाती रही होगी लेकिन जब यहाँ की बोलियों का सिजरा मिला तब पता चला यहौ मामले मा कितने भकुआ आन हम सबै - यहाँ ना तो मुग़लों का कोई मान है और ना उनकी असली 'ज़बान' ही चलती है। उज़्बेकी बोलने वाले बसते हैं हिन्दुस्तान के उस पार 'आमू दरया' के आस-पास वाले उज़्बेकिस्तान से लगे हिस्से में। एक बार हिन्द में आ कर वहीँ के हो कर रह जाने वाले मुगलिया शहनशाह बाबर और उसके खानदानी असल में उज़्बेकिस्तान से भाग कर पूर्वी ईरान और काबुल के रास्ते आते समय अपने साथ 'फ़ारसी दरी', 'पश्तो' और 'उज़्बेकी' की खिचड़ी ज़बान भी लाए थे, इसलिए अगर 'मुग़ली बानी' का मतलब उससे लगा लिया जाय तो हमारे अंदाज़ा का खटका बिलकुल सटीक बैठ सकता है।"
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(खत अभी ज़ारी है)

Sunday, June 3, 2018

अफ़ग़ानिस्तान 6.5: 'आइडियल कम्पोजीशन'

अप्रैल 1977

अफ़ग़ानिस्तान 6.5: 'आइडियल कम्पोजीशन' 
(खत अभी जारी है )

मंज़िल से पहले ही हम बस से उतर कर अगल बगल आमने सामने का जायजा लेने की नीयत से। पैदल ही चल पड़े। नया मुल्क, नयी सरजमीं, नए उत्साह से भरे, बदलते मौसम के साथ।
अभी-अभी पिघल कर सरक चुकी बरफ से उबरे ठूंठ जैसे दरख्तों की खूबसूरत कतारें। नयी बहारों की दस्तक दे रहे खिलते फूल और कुछ शाखों पर फूटती नयी नरम नन्हीं कोपलें। काले-नीले-भूरे सपाट पहाड़ों पर कहीं कहीं बड़े बड़े मोती के मोटे मोटे मनकों या शीशे की झालरों जैसी लटकती बची खुश बरफ दिख जाती। बगल से हरहराता हुआ, पत्थरों में उलझता उछलता, दूधिया झाग उठाता, दोनों किनारों की हरियाली को गूंथता, तेज़ धार बहता उमगता दरिया का पानी। ढलान की हरियाली के बीच बीच से बह कर आती चमचमाती पतली धाराएं दरिया में समाती। बला का दिलकश नज़ारा । एक बाग़ में दिखती बुलन्द इमारतें, गाँव में बने ऊंचे नीचे मुकामी मकानात। लाल लाल सेब जैसे गालों वाले मासूम बच्चे। लम्बे चौड़े कद्दावर अफ़ग़ान, बाज वक्त दरया से पानी भरती मोहतरमाएँ। बाकी पसरा हुआ सन्नाटा।
पहाड़ी ढलान पर लपटती, ऊंची होती डगर पर गधों का कारवाँ। हम भी उसी रास्ते लग लिए। शर्मा मास्टर ने कारवाँ के साथ चल रहे अफ़ग़ान से जाने क्या तोड़ मोड़ कर बोला। उसने जवाब दिया - 'दर्रा-ई-पघमान'।
पहाड़ पर पड़ी बरफ अपनी ओर बुलाती लुभाती लगी। लगा थोड़ी ही देर में छु लूंगा, ठीक उसी तरह जैसे दूर ऊपर भेड़ चराने वाला बाचा उससे खेलता दिखा।
पहाड़ की चोटी पर अब भी दिख रही सख्त बरफ। काले भूरे घनेरे बादल रह रह कर घेरने लगे। बीच बीच में झीने होते तो खिलती धूप से उन पर रुपहली सुनहली चादर सज जाती। मन करता चलते जाओ, चलते जाओ, बेफिकिर, यहाँ के खानाबदोशों की माफ़िक।
तब तक बादल टपा-टप टप-टपाने लगे। कहीं मुंह छुपाने की जगह नहीं। शर्मा मास्टर और सन्धू की पश्तो काम ना आयी। अफ़ग़ानों ने खारिजी (विदेशी) लोगों को दहलीज़ पार करने की इज़ाज़त नहीं दी, अंगुली उठा कर पघमान का रास्ता दिखा दिया। उधर बढ़ते हुए रास्ते के बगल के एक शेड के नीचे पनाह मिली जिसकी दीवार पर तफरीहन वहाँ आने वाले सैलानियों के कोयले से लिखे नाम दिखे। फाहे जैसी बरफ पत्ताते हुए धरती पर बिछने लगी।
थम कर बैठते ही तुम्हारी याद घुमड़ने लगी, साथ होते तो बताते काबुल क्यों बुझा बुझा लगता रहा और वहां की कुदरती खूबसूरती की गोद क्यों दीवाना बनाने लगी। सांसारिक सामजिक बंधन भी कैसे ----- कोई समझता क्यों नहीं हमारे मन के भाव ---- हमारे ज़ज़्बातों को ------ ।
बरफ थमने के बाद भी बूँदाबादी और चमचमाती बिजली की कड़कड़ाहट जारी रही। हम बरसते पानी में ही चल चले। मास्टर शर्मा जी यूं तो डर को कुछ नहीं समझते लेकिन घर परिवार की फिकिर में बिजली की कड़क के साथ सहम जाते। सन्धू चुप, बाकी सब भी चुप, इतनी चुप्पी हमारे चुहलबाज श्याम जी को तनिक भी रास नहीं आयी सो उन्होंने मनहूसियत भगाने की गरज़ से शर्मा जी से गाने की फरमाइश कर डाली। हमने भी इसरार किया। फिर शर्मा जी ने पूरे तरन्नुम में, वो बोल उठाए जो सारे हिन्द, अफ़ग़ानिस्तान, रूस और मध्य एशियाई मुल्कों के अलावा दूर दूर तक के लोग ज्जहूम झूम कर गाते हैं: -
"चलते जाएं हम सैलानी, जैसे इस दरिया का पानी।"
इन बोलों के लहराते ही सारी चुप्पी वाला माहौल हवा हो गया। अगली कड़ी के साथ हम सब ने भी उनके सुर में सुर मिलाया -
"खुली सड़क पर निकल पड़े हैं अपना सीना ताने।"
उत्साह से भर कर शर्मा जी और ऊंचे बोल में स्टाईलिश अंदाज़ में गाने लगे -
"मंज़िल कहाँ कहाँ जाना है ऊपर वाला जाने।"
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"मेरा जूता है जापानी, यह पतलून इंग्लिश्तानी,
सर पे लाल टोपी रूसी -----------------------"
तब तक ऐसी जोरदार आवाज़ के साथ बिजली कड़की, मानो पूरा पहाड़ ही टूट पड़ा हो। सकपकाए हुए शर्मा मास्टर के बोल उसी में डूब गए, चेहरे पर सफेदी तैर गयी। सन्धू हंस पड़े तो शर्मा जी समझाने लगे - 'मेरे को अपनी नहीं तेरी फिकर है सन्धू, तेरे बाप से तेरी सलामती का वादा करके तुझे साथ जो लाया हूँ। फिर घर वालों की भी चिंता है, मुझे कुछ हो गया तो उनका क्या होगा।' फिर बताने लगे - 'एक बार ग्वालियर के पास लगे एन सी सी कैम्प में घुस आए तेंदुए को घेर कर स्टेन-गन से शूट कर चुका हूँ।"
हैं ना शर्मा जी मज़ेदार चीज़। बातों बातों में बरसात थम गयी। पघमान करीब आने लगा। श्याम जी ने यादगारी तस्वीर उतारने के लिए झोले से कैमरा निकालते हुए हमें एक किनारे कतार में खड़े होने को कहा। मैंने अपनी जैकेट झटक कर दो बारा पहनी, शर्मा मास्टर ने अपनी टाई संभाल कर कोट की ऊपर वाली जेब में रूमाल सजाई और धूप वाली ऐनक चढ़ा कर दोनों जेबों में हाथ डाल कर पोज़ बनाया, श्याम जी ने बगल से गुज़र रहे दो दस्तारबन्द अफ़ग़ानों को इशारों से बुला कर दोनों बगल खड़ा कर के 'आइडियल कम्पोजीशन' तैयार कर लिया ।
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(खत अभी जारी है )