Saturday, December 16, 2023

चाहते तो रहे चलना मुहाल हो जाए,

विधि के विधान का मगर क्या करते !!

Sunday, October 8, 2023

 'जो सोचिए वो होता है, लेकिन बस वही वही नहीं होता ---'

हर साल की तरह इस साल भी अपना जन्मदिन आने को हुआ तो कुछ ख़ास नहीं लगता रहा, अगले मुकाम सा आएगा चला जाएगा। मगर इस बार बहुत ख़ास बन गया।
दस बरस पहले, सरकारी चाकरी के नियराने के दिन करीब आने पर लगा कहानी पूरी होने को आयी, तो 1976 से अब तक लिखी किताबों की धूल पछोर कर पीले पड़ रहे पन्नों पर हसरत की नज़र डालता उदास हो कर सोचता ऐसे ही धरी रह जाएंगी क्या !! दस हजार वर्ष से मानव गतिविधियों के साक्ष्य उपलब्ध कराने वाले लहुरादेवा के उत्खनन की रिपोर्ट पूरी नहीं हो पाएगी क्या !! और और भी बहुत कुछ अधूरा रह जाएगा क्या !!! अब और कुछ तो करने को रहा नहीं क्यों न अब इनकी सुध ली जाए।
जैसा सोचा वैसा नहीं हुआ। होनी ने बड़ी तेज़ी से कई कई करवटें बदलीं। मई 2012 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में हुए मेरे चयन के लिए मुझे सर्वथा अयोग्य मानने वाले शुभचिंतकों ने सेन्ट्रल ट्रिब्यूनल में उसे निरस्त करने की याचिका ठोंक दी।अक्टूबर 2013 में सेवा निवृत्त होकर, अपने स्थायी मकान में रहने की तौयारी करते 'प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी, कलकत्ता से सूधे पांच साल के लिए प्रोफ़ेसर के पद का ऑफर आसमान से टपक कर आया। उधर सेवा प्राधिकरण ने मेरे चयन को चुनौती देने वाली मित्रों की याचिका निरस्त कर दी। लेकिन वो प्रकरण माननीय उच्च न्यायालय में लटक गया। इसी बीच अप्रत्याशित रूप से नेशनल जिओग्राफिया वालों का न्यौता आ गया टर्की में प्रस्तावित 'डायलाग ऑफ़ सिविलाइज़ेशन' में भाग लेने का। कलकत्ता में ज्वाइन करने की सहमति भेज कर उड़ गए कुस्तुन्तुनिया। लौटते ही नियुक्ति-पत्र पा कर दिल्ली में ही खूंटा ठोंका गया - तीन बरस के लिए।
एक एक कर पुरानी पांडुलिपियों के प्रकाशन के दिन बहुरने लगे।
(1) सन 2014: 'सफर एक डोंगी में डगमग' (1980 की जिल्द), सन 1976 में दिल्ली से कलकत्ता की नाव यात्रा पर;
(2) सन 2018: 'पवन ऐसा डोलै', सन 1973 से 2012 के बीच मिर्ज़ापुर-सोनभद्र की यात्राओं पर आधारित (1982 की जिल्द),
(3) सन 2019: 'पहलू में आए ओर छोर', सन 2012 और 2014 में चिली और टर्की की यात्राओं पर आधारित;
(4) सन 2021: 'अफ़ग़ानिस्तान से ख़त-ओ-किताबत', 1977 में अफ़ग़ानिस्तान-ईरान की यात्रा पर आधारित (1980 की जिल्द),
(5) सन 2022: 'लहुरादेवा उत्खनन रिपोर्ट' (Excavations at Lahuradewa), और
(6) सन 2022: 'जिरह अजुधिया: हमरी लेखीं' (प्रेस के हवाले)
नयकों के साथ बीते दिनों की तरंग में लौट लौट कर लहके। विषमताएं-असंगतियां वय-सीमाएं सब भूल-भाल कर। संवेदित स्पंदित उर्जित जीने लगे नव सपन-लोक में। वन-पाखल वाले ठीहों, विंध्य-हिमाल की खुली बाहों, ताज़ा हवाओं में निमग्न विस्मृत बहता गया। लिखता रहा, लिखता ही रहा - ठहि ठहि वन पाखल कै ठीहा, अनाम लेखे। लिख डाले देखे-सुने, अंतर्मन के सम-रेले। दो हजार से अधिक पृष्ठों पर लाखों शब्द बरसते गए।
ऐसे ही गुजर गया दस बरस का अंतराल। अगला जन्मदिन आने को हुआ। पलट कर देखा, पुराना तजुर्बा एक बार और पक्का हुआ - "जैसा सोचा था तकरीबन वैसा नहीं हुआ।" बहुत कुछ हुआ। बहुत कुछ सोच से बहुत परे हुआ। कहाँ तो एकरस नीरस रिटायर्ड जीवन बिताने का ख्याल, और कहाँ 'कलकत्ता-दिल्ली-कुस्तुन्तुनिया-कतर-चीन-कम्बोडिया-वियतनाम-हांगकांग-मलेशिया-विएना-कोलोन-बांग्ला देश की उड़ानें; पटना-भोपाल-शिमला-लदाख, असम, सोनभद्र, बांधवगढ़ और बनारस मनभावन।
मगर, थम कर बैठते ही दस साल पहले वाले अभिशप्त संपृक्त आगत का संशय रिसने लगा। गहरी उदासी में उब्ब-डुब्ब, रीता रीता, आसहीन। आखिर आ ही गए वो दिन, अब तो कुछ भी नहीं बचा, अनमना सा घिसटता, अकेले में चुपचाप खुली-बंद आँखों के अँधेरे सूने गलियारों में बेमशरफ़ घूरता। सोचता एक बार मिल और मिल लें, भर आँख देख लें, मन भर नेह जता लें,
आँखों में भर आएं, चख आएं, फिर आगे पता नहीं ऐसा हो पाए, न हो पाए। भरी दुनिया में सबके बीच निरा अकेलापन घेरने लगता, किसी से मिलने कहीं नहीं जाने अपने आप में सिमट जाने का मन करता। लगता अब बस सब ख़तम ही होने को है, सभी उमंगों पर मानो मोटे तुषार की परत पड़ गयी हो।
ऐसे में एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि पूरी तरह रीतने-छीजते, वैसी ही मनोदशा से ग्रस्त बहुत पुराने गहरे साथी से मन की व्यथा साझा करने का योग बना। कुछ देर चुपचाप सुनते-सुनते उतने ही उतरे हुए उदास चेहरे, उतनी ही सूनी-पनीली हो चली आँखों में वैसे ही हताशा भरे भावों में भीगे बोलों में बोला - 'लगता है ये भाव मैंने आपसे ही पा लिए हैं।'
कलेजे में धंसे रह गए उसके वो बोल। दिनों-दिन मथने लगे अंदर ही अंदर - 'इतने प्यारे साथी पर खुद की इतनी नकारात्मक छुतही परछाईं का ऐसा प्रतिकूल प्रभाव !!' सोचते-सोचते सोचा - 'अगर बुरी छाया पड़ सकती है, तो अच्छी भी पड़ेगी ही पड़ेगी। इसलिए इतनी गहन आशामय सकारात्मक ऊर्जा के भाव सृजित किये जाएं जो जीवंत जीवनी शक्ति से रीचार्ज करके नयी उजास संचरित कर दे। सोचते-सोचते सब सोच ही बदल गयी। आगत-अनागत सब भूल कर, काल के प्रवाह में बहने का मन बह चला। जितनी भी बची है ज़िंदगी, डूब कर जी ली जाए। जो मन करे जो साध सकें और जो न हो सके बिसारते चलें। मनमाने साथ के सुयोग के तो क्या ही कहने, अकेले भटकने के प्रारब्ध भी गले लगा लें।
नहीं जानता आगे कैसा क्या कितना होगा, फिर भी, बना ली एक और अधूरी आसों और नए सपनों की नयी 'विश लिस्ट': - लिख डालना है -
'पचास बरस बाद, एक बार फिर से 'पहियों के इर्द-गिर्द' नेपाल की उन्हीं राहों पर चल कर,
तैतालिस साल बाद, एक बार फिर जागेश्वर घाटी में डेरा डाल कर,
पूरे उत्तराखंड का एक और फेरा लगा कर,
दस वर्ष गंगा-घाटी से दक्षिण भारत को जोड़ने वाले दक्षिणापथों को फिर से टटोल कर,
चालीस बरस पहले मिर्ज़ापुर-सोनभद्र के चित्रित शैलाश्रयों पर लिखी थीसिस नए सिरे से सुधार कर,
लाहौल-स्पीति > किन्नौर > लद्दाख में टहल कर, और.
और जो-जो भी मन में आए सब कर लेना।
कृष्ण नाथ जी की "स्पीति में बारिश" पढ़ रहा हूँ ------
"जब बर्फ पड़ती है तो ऊपर ऊपर गहरी बर्फ जम जाती है, अन्दर-अन्दर नदी-नाला बहता रहता है। जो चलता रहता है उसमें गति रहती है, गरमाहट रहती है। जो बैठ जाता है, वह जम जाता है जड़ हो जाता है, और जो सोता रहता है वह तो जैसे मरा हुआ है। जड़, ठण्डा और हरकत - हीन।"
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06 Oct 2023

Friday, September 1, 2023

 ये पूरे चाँद की रातें, ये व्याकुल किस कदर लहरें,

समन्दर में उठातीं ये, यूं परबस हो बहकतीं ये  !  

30.08.23

Wednesday, August 23, 2023

 क्या कमाल हैं कुदरत के भी,

देखते सुनते ही लूट लेते हैं !!


Wednesday, August 16, 2023

 है वक्त कम, दुलार लें, बाहें पसार कर !

न जाने कब, पखेरू उड़ चले, दुनिया बिसार कर !!

Wednesday, June 28, 2023

 थोड़ा थोड़ा पढ़ते पढ़ते
बहुत बहुत खेला करते । 

सीधे सादे ज्यादा रहते,
कभी कभार भटका करते ।

मेले ठेले रास  न आते 
अपने भीतर सिमटे रहते।  

चाकर बन हां-ना करते,
रोटी रोजी पाते रहते।  

थोड़ी पुरा विदी करते,
इधर उधर घूमा करते ।

गुपचुप से रहते रहते,
मरते रहते जीते रहते । 

मनो-गगन में उड़ते उड़ते, 
मन आया लिखते रहते ।

सहज खरहरे कठिन रास्ते
थके बहुत चलते चलते। 

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Thursday, June 15, 2023

 घुमड़ता रहता है जलद घन, बरस नहीं पाता । 

सच लिख नहीं सकता, झूठा लिखा नहीं जाता। 

Sunday, May 21, 2023

 2012 : पीले पड़ गए पन्ने 


दिन ना पूरा होता है, रात न पूरी होती है, 
दोनों मिल जाते हैं तब पैमाइश पूरी होती है।  

यह बारात है उन लोगों की जिनका दूल्हा जोगी है, 
इन्हें न मारो इन्हें साध लो यह शिव जी की टोली है।  

मूरत में भी प्राण प्रतिष्ठा बनी तभी तक रहती है, 
जब तक उन्हें पूजने वालों में संकल्पित रहती है।  

अरे पहरुओं तनिक सोच लो मंदिर कभी न गिरता है, 
मूरत अगर विखंडित होती कहीं विसर्जित होती है।  

एक बड़ा सैलाब उठा सब ओर कीच ले आता है, 
साफ करो आँगन चौबारा मंदिर वही शिवाला है।  

Sunday, May 7, 2023

 'केवटी कुंड' से 'चित्रकूट' (7) : 21-26 Oct 1976  (समापन सर्ग)


"शैल-चित्र-कूटः" (Hill comprising Rock Paintings)  

'हम तो कछू कही नाय, 

'जाना कहाँ ! कहाँ रुकना है !!' ऊपर वाले पर छोड़ कर निकल पड़ने की मस्ती और चलते ही चले जाने की धुन नयी उमर में बहुत मन भाती है। आगे पैंतालीस बरस के अनुभव से समझ में आए ठहर-ठहर कर चलने के लाभ। पहले से घूमने के इलाके तय करके थोड़ी तैयारी थोड़ी जानकारी करके निकलने पर मस्ती के साथ ज्ञान का तड़का ज्यादा सुस्वादु हो जाता है। कुछ दिन और हाथ में लेकर थोड़ा आराम करते हुए चले होते तब केवटी से चित्रकूट तक तो और भी बहुत कुछ देख-जान लिया होता। देर से सही, जो तब नहीं जान पाए उसे भी टटोलते हुए कई नए आयाम समझ में आये यह विवरण लिखते समय। 

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण पढ़ते हुए पता चला कि अपने वनवास-काल में राम-लक्षमण सीता जी यूं ही अपने मन से  'शरभङ्ग आश्रम' नहीं चले गए थे। अयोध्या से चल कर ग्रामों-वनों के मध्य से चलते हुए वे गंगा-यमुना संगम के निकट स्थित 'भारद्वाज आश्रम' पहुंचे।  वहां उन्होंने भारद्वाज ऋषि से निवेदन किया -  'हे भगवन ! मेरे रहने के लिये कोई ऐसा एकान्त और उत्तम स्थान आश्रम के लिये बतला दीजियेजहाँ वैदेही का मन लगे और सुख पूर्वक रह सके।' 

महर्षि भारद्वाज ने उन्हें बतया - 'यहाँ से दस कोस पर तुम्हारे रहने योग्य एक पहाड़ है, जो महर्षियों से सेवित होने के कारण पवित्र है और उसके चारों ओर नयनाभिराम दृश्य हैं। उस पर बहुत से लंगूर विचरते हैं।  वानर और रीछ भी निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट के नाम से विख्यात है और गंधमादन के सामान मनोहर है।  तुम मधुर फल-मूल से संपन्न चित्रकूट पर्वत पर जाओ।  वह सुविख्यात चित्रकूट पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा भरा है। मयूरों के कलरवों से वह और भी रमणीय जान पड़ता है।  अनेकानेक जलस्रोत, पर्वतशिखर, गुफा, कन्दरा और झरने भी तुम्हें देखने में आएँगे। विविध प्रकार के मूल, फल और स्वच्छ जल संपन्न चित्रकूट पर्वत ने, कुबेर की अलकापुरी, इंद्र की अमरावती और उत्तर कुरुदेश को रमणीयता में मात कर दिया है।'   

युवावस्था की घूमने की तरंग में निकलने से पहले यह सब पढ़ कर निकले होते तो गूगल मैप पर उड़ती नज़र डालते ही दिखने वाले टिकरिया, तुलसी, तागी, शरभंग के मनोरम झरने जरूर देखे होते। तबसे पैंतालीस साल से ऊपर निकल जाने के बाद भी वहां विचरण का अगला अवसर हाथ नहीं आया। पता नहीं अब कभी आएगा भी या नहीं। 

बाद के दिनों में कहीं जाने पर जो प्रश्न सबसे पहले मन में सहज ही आ जाता है वो है उस स्थान के नाम के अर्थ और नामकरण के कारणों के विषय में। किन्तु उस समय ये बात दिमाग में आयी ही नहीं कि 'चित्रकूट'  के संदर्भ में। तब आगत नियति का कोई आभास नहीं हो सका कि आगे 'कस कूट कूट कत कत बहकेंगे बरसों बरस' ऐसे चित्रों वाले कूटों (पर्वतों) में देश-विदेश तक। इस ओर ध्यान गया मीरजापुर जिले में पुरातात्विक सर्वेक्षणों में मिले शैलचित्रों पर शोध करने की अवधि में। तब समझ में आया यह नाम धराया होगा उन पर्वतों में स्थान-स्थान पर चित्रित शैल-चित्रों को ध्यान में रख कर (चित्र+कूट
(पर्वत) = चित्रकूट)। ये नाम आज से लगभग दो-ढाई हजार वर्ष से भी पहले ही आमजन में भली भांति प्रचलित हो गया होगा। इस तथ्य से सुविज्ञ महर्षि वाल्मीकि ने स्पष्ट रूप से इस पर्वत को शैल-चित्रों से युक्त पर्वत - "शैलचित्रकूटः" - बताया है। उनके बाद कालिदास ने 'रघुवंश' और बाबा तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में भी 'चित्रकूट' नामक पर्वत का उल्लेख किया है। 

दो दशक बाद बांदा में तैनात एक जिज्ञासु पुलिस अधिकारी* ने चित्रकूट पर्वत-श्रेणियों में स्थित चार सौ से अधिक चित्रित-शैलाश्रयों की सूची प्रकाशित करा कर हमारी उपर्युक्त धारणा पर पक्की मुहर लगा दी। धारकूँड़ी, शरभङ्ग आश्रम, टिकरिया सहित जहाँ-जहाँ से होकर हम उस यात्रा में चले सभी जगह ऐसे चित्र मिले जिन्हें हम नहीं देख सके थे। इनमें से अनेक चित्रित शैलाश्रय स्थल - यथा हनुमान धारा, अनसूया अरी, शरभङ्ग नाला, दशरथ घाटी, आदि - रामायण में वर्णित राम-कथा से सम्बद्ध किये जाते रहे हैं।  ब्रिटिश ज़माने में शुरू हुई ऐसे 'शैल-चित्रों' की 'रॉक पेंटिंग्स' की 'स्टडीज', प्रकाशन और संरक्षण का चलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। मध्य प्रदेश में स्थित भीमबेटका के चित्रित शैलाश्रय विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित होकर पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र बन गए हैं। यूट्यूब-चैनल और 'सोशल मीडिया' की ज़ूम-धूम के साथ इनके बारे में सूचनाओं, घूमने-घुमाने के आवाहन और इनके संरक्षण की गोहार मची हुई है। 

रमणीय मनोरम प्राकृतिक पृष्ठभूमि में स्थित प्राचीन आश्रमों एवं चित्रकूट जैसे पर्वतों में तीर्थाटन, अटन, पर्यटन, देशाटन, रमण के साथ उनकी शुचिता संरक्षित रखने का संतुलन साधना आसान नहीं किन्तु असाध्य भी नहीं। सड़क, होटल, आवागमन की अधुनातन सुविधाओं के अंधाधुंध प्राविधान एक दिन इनका मूल स्वरुप हर लेंगे। मूलतः आर्थिक लाभ के लिए आश्रमों, तीर्थ स्थानों से भरपूर ऐसे क्षेत्रों के 'विकास' का मूलाधार उसकी मौलिकता में ही निहित होना चाहिए। इस सन्दर्भ में अत्यावश्यक होंगी - वाल्मीकीय रामायण से लगायत रामचरितमानस तक में उल्लिखित, और पैतालीस साल पहले मेरे देखे इस भूभाग पर आच्छादित मूल-फल-फूल-वृक्ष, पशु-पक्षियों, स्वच्छ धाराओं, चौरस शिलाओं पर झरते झरनों वाले परिदृश्य के साथ आहार-आचार-विचार वाले दृष्टिकोण के अनुसार विहार, मेले आदि की संकल्पनाएं, अवधारणाएं, भावी 'विज़न योजनाएं'। 

शैलचित्रों के दर्शन परिदर्शन के साथ यह समझ लेना अनिवार्य होगा कि ये पुराकाल से ही प्रकृति-संरक्षित प्राचीनतम पवित्र अनुष्ठानिक कला-दीर्घाएं हैं।  उत्सुकतावश इन्हें देखने जाने वाले पर्यटक जाने-अनजाने कैंप फायर, मौज मस्ती, खान-पान और इन्हें छूकर देखने सेल्फी-वेल्फी के चक्कर में इन धरोहरों को नष्ट करने के प्रमुख कारक बन सकते हैं।  डर लगता है, चारों ओर से हो रही इन तूफानी बौछारों में कहीं हजारों बरस से प्रकृतया संरक्षित ये चित्र धुल-बह ही न जाएं !!     

विराध-वध प्रसंग में निहित एक बात हम तब समझ ही नहीं सकते थे। अब समझ में आया वाल्मीकीय रामायण का वह अंश पढ़ने पर, इसलिए क्योंकि इस बीच पुरातत्त्व का विद्यार्थी होने के नाते इसे समझने की समझ आ सकी। शरभङ्ग ऋषि के आश्रम में जाने का सुझाव देते हुए 'विराध राक्षस' का यह कहना ध्यान देने योग्य है - 'हे राम ! आप मुझे गड्ढे में डाल कुशल पूर्वक चले जाइये।  मरे हुए राक्षसों को जमीन में गाड़ना, यह प्राचीन प्रथा है। क्योँकि जो मरे हुए राक्षस जमीन में गाड़ दिये जाते हैं, उनको सनातन लोक प्राप्त होते हैं।' यह अंश पढ़ते ही दिमाग में कौंधा कहीं वाल्मीकि जी ने विंध्य क्षेत्र के निवासियों में प्रचलित उस परम्परा का उल्लेख तो नहीं किया है जिसे पुराविदों में महाश्म-परंपरा (मेगालिथिक ट्रेडीशन) कहा जाता है !!!! 

'लास्ट बट नाट द लीस्ट' की तरह एक बात और, 'पातिव्रत्य धर्म' की महिमा जैसी 'अत्रि ऋषि' की पत्नी 'सती अनुसूया माता' ने सीता जी को बताई# - 'हे सीते ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि, तुम पातिव्रत धर्म की ओर भलीभांति ध्यान देती हो। --------- पति वन में रहे या नगर में रहे, पति पापी हो अथवा पुण्यात्मा हो; जो स्त्री अपने पति से प्रीति रखती है, वह उत्तमोत्तम लोक को प्राप्त होती है। भले ही पति क्रूर स्वाभाव का हो, कामी हो, धनहीन हो, किन्तु श्रेष्ठ स्वभाव वाली स्त्रियों के लिये उनका पति देवता के तुल्य है अथवा पति ही उनका परम देवता है।'  (इस 'डिस्क्लेमर' के साथ कि - 'हम तो कछू कही नाय, जो कछु कही भी बो तो बाल्मीकी जी की लिखी, अनुसूया माता की कही। आज काल्ह के दिनन में जाको जैसी समझ में आए बाकी मति जाने। ) 

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# वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, चतुःपञ्चाशः सर्ग, श्लोक ४०.  
Vijay Kumar 1996. Painted Rock Shelters of Patha, Pragdhara, No 6: pp. 21-31.  

Friday, May 5, 2023

 एकांत मौन में मथते हैं 
अधिक आवेगी भाव,
एक ही बिंदु पर केंद्रित,
चलते रहते हैं 
मन के एकांत मौन में, 
सार्वजनिक वार्ताओं में भी।  

Friday, April 21, 2023

सृष्टि का खेल है बड़ा निराला,
मंद या तीव्र गति से बदलते जाना। 

हमारे जीवन की प्रकृति है चुकते जाना, 
बदलते नए दौर में जीते जाना, 
सुख-दुःख आवेग-अवसाद में, 
डूबते-सिमटते अंततः मिट जाना।  

Wednesday, March 1, 2023

An outcome.
oozed out from deep emotions,
comprising a lot of  ---
nostalgia, affection, respect, responsibility, 
fascinating natural beauty,
blue sky with smiles of the rising sun,  
shadows, rays of mild sunshine, 
swings and lows
dreams, fantasies, 
happiness and sorrow, 
curiosity and adventure, 
passion and labour, 
cooperation and teamwork, 
not really expressible in words.    

Tuesday, February 21, 2023

क्षणिक

 सब कुछ 
क्षणिक ही तो है, 
कुछ भी स्थाई नहीं। 
पल प्रतिपल सब बीतता हुआ,
पहर दिन सप्ताह माह बरस,
जीवन जीव जहान,
सब क्षणिक। 

Sunday, January 22, 2023

'----- हर बात जरुरी है।'

 '----- हर बात जरुरी है।'









थोड़ी थोड़ी धूप कुनमुनी, थोड़ी शीत जरुरी है।।
थोड़ी थोड़ी बरसात फुरफुरी, थोड़ी हवा जरुरी है ।
थोड़ी थोड़ी हो बात तनिक फिर मौन जरूरी है।
थोड़ी थोड़ी सी घूम घाम फिर सुन-सान जरुरी है।
थोड़ी थोड़ी सी जलन ईर्ष्या द्वेष जरूरी है ।
थोड़ी थोड़ी तुनक रूठ थोड़ी मनुहार जरूरी है !
थोड़ी थोड़ी नित योग साधना, पूजा पाठ जरुरी है।
थोड़ी थोड़ी महक भरी पथ पर भटकाव जरुरी है।
थोड़ी थोड़ी कठिन डगर फिर से ढाल जरुरी है।
थोड़ी थोड़ी चटपटी चाट में थोड़ी मिर्च जरुरी है। .
थोड़ी थोड़ी रुदन भली फिर मधु हास जरुरी है।
थोड़ी थोड़ी भर उड़ान जैसे तरु शाख जरुरी है।
थोड़ी थोड़ी सी जीवन में हर बात जरुरी है।।
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