Monday, August 10, 2020

'बहुत बिरले'

'बहुत बिरले'

09.08.20

कितने अलग-अलग,
होते हैं हम,
अपने ही भीतर-बाहर !
कितने अलग-समान,
दीखते हैं हम,
बाहर-बाहर।

कभी खुद का ही,
असल चेहरा नहीं,
पाते देख समझ।
अपने ही बनाए,
छद्म जालों के,
जाल में फंस कर।

सामन्यतः जो हम
अंदर होते हैं
वैसे ही बाहर।
कभी बाहर दिखाते
कुछ और, चेहरा
दिखाता है कुछ और।

कभी अभिनय कर,
छुपा लेते हैं,
अंदर के भाव।
भीतर का रुदन,
आनद, कूट, इरादा,
असल, सब कुछ।

आत्मचिंतन से,
देख सकते हैं,
अपने को बेहतर ।
मगर वैसे ही
सबके सामने नहीं
आते अनावृत्त।

ऐसा नहीं कि,
छुपाना ही
होता है मकसद।
हमेशा अंदर जैसे
ही नहीं दिख,
सकते बाहर।

बहुत ज़रूरी हैं,
दीगर रंगों, और
चलन के आवरण।
सलीके से रंगे,
विवेक से बुने,
सुन्दर आवरण।

बिरले ही होंगे,
असाधारण,
वर्जनाओं से पार।
प्राकृत, निर्मल,
जैसे भी हों,
अंदर बाहर समान।

बहुत बिरले होंगे,
जो अंदर बाहर
असल देख कर।
सब ताक पर,
रख कर,
गह सकें साथ।

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