Monday, April 30, 2018

अफ़ग़ानिस्तान ४ : ' पिघल चांदनी तरल बही'

अफ़ग़ानिस्तान ४ : ' पिघल चांदनी तरल बही'
Published by Rakesh Tewari9 hrs
एक तो अनजाने और दूर देश घूमने का उछाह, दूजे उससे एक बार फिर मिलने की आस में ट्रेन का रास्ता अंतहीन लगने लगा।
बाहर चटक हो चली धूप, गेंहू की पकी हुई सुनहली फसल या कट चुके ठूंठ वाले सूखे खेत, पटरी के बगल या दूर अलग-थलग अंगार बने पलाश, झाड़, ताल तलइयों की तलछट पर झिलमिलारा जल, सूख चली नदियों की धार, गमछा लपेटे आते-जाते इक्का-दुक्का लोग।
खटाखट गुज़रते छोटे बड़े स्टेशन प्लेटफार्म, बाग़ कुंए रेलवे फाटक। झका-झक भागी जा रही ट्रेन, आधी खुली और आधी बंद तंद्रिल आँखें।
थोड़ी ही देर में अपने आप में ऐसा खोया कि मानो शून्य में पहुँच गया, मानो समय ठहर गया। डिब्बे की सवारियों-गतिविधियों के ऊपर एक सपना रूप लेने लगा -
उसके घर, उसने ही दरवाज़ा खोला, लुनाई भरा मोहक मुख। देखते ही एकबारगी उठती फुरहरी । एकांत मिलते ही उसने कुछ कहना चाहा।'
तब तक सबके टिकट चेक कर रहे टी-टी ने मेरी बर्थ के पास आ कर टहोका मारा -
"टिकट दिखाइएगा भाई साहब."
ऊंघते हुए ही टिकट दिखाया और फिर पहले की तरह अर्ध-तंद्रा में पड़ रहा।
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किसी के जोर जोर बोलने से घटना क्रम बीच में टूटा फिर किसी फिल्म की तरह आगे बढ़ा। उसने फुसफुसा कर कहा -
"कल मैक्सम्यूलर भवन पर मिलिए." -------
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इसके बाद तो नींद ही उड़ गई, देर तक उधेड़बुन में लगा रहा ----- कैसा सपना देखा, सब दिमाग का फितूर, जैसा सोचो वैसे सपने।
दिल्ली पहुंच कर सबसे मुलाकात हुई। जहां जाते श्याम जी के करतबों की चर्चा होती। उन्नीस सौ चौहत्तर में हम लखनऊ से साईकिल से चल कर काठमाण्डू में हरीश चन्दर मामा जी के घर ठहरे थे, तब वे वहां भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक अटैची के पद पर कार्यरत थे। नए अभियान की सुनकर मगन हो गए। तुरंत ही काबुल और तेहरान में भारत के दूतावासों में तैनात अपने मित्रों के नाम सिफारिशी खत लिख कर दिए। हमारे एक और परिवारी सत्येंद्र नाथ त्रिपाठी जी ने भी अपने जानने वालों के लिए लिखा। बाकी सबने अपने अपने अनुभव से सलाह दी, हौंसला आफज़ाई की।
अच्छी खासी भागम भाग के बावजूद सबको झांसा दे कर खिंचा चला गया उसके घर। कई दिनों से ठीक से सो नहीं सकने के बाद भी पपोटों में नींद भरे बातों में लिपट गया और बातों बातों में बेसुध सो रहा। आधी रात में चौंक कर उठा, झिझोड़ कर जगाए जाने पर।
चुप रहने का इशारा करते हुए उसने दबे बोलों में बोला - "बगल वाले कमरे में आइए"।आहिस्ते से सरक कर उधर जाने पर उसने सरगोशी से कहा - 'कब से तो जगाते रहे, उठते ही न थे। ---- कल मैक्सम्यूलर भवन पर मिलिए -----" । यह सुन कर एकबारगी बाहर अन्दर झुरहरी उठ गयी। रोमांचित सोचता रहा क्या वह सपना सच हो कर रहेगा।
और फिर, आगे-आगे हूबहू सपने जैसा ही साकार होता गया, जैसा ट्रेन में सपने में देखा था उसी तरह, उसी क्रम में। इस घटनाक्रम ने जीवन के एक अजाने रहस्य पर से परदा उठा दिया। बहुत बार पढ़-सुन कर ऐसे वाकयों को पूरी तरह ख़याली मान कर सिरे से नकारता रहा था, लेकिन अपने इस तजुर्बे के बाद मानना ही पड़ा कि जीवन में सब कुछ तयशुदा है सब कुछ, कभी कभी हम उन्हें पहले देख पाते हैं और ज्यादातर घटने पर।
लौटती बेला, देहरी पार करते हुए उसने तकाज़ा किया - "मेरे लिए ईरान से क्या लाएंगे --- !!!"
इसके बाद जो होना था वही हुआ हमारी करीबी जग जाहिर हो गयी और फिर जैसा अक्सर होता है ज़माना दुश्मन बन गया। तिरछे तिक्खे तीर चले, अपनों की ओर से ही। बंदिशों पर बंदिशें, बिलबिला कर रह जाने के अलावा ना कुछ कहा जाए ना किया। गहरी उदासी ने बुरी तरह घेर लिया। उसी बीच उसका फोन आया, उधर से बड़ी उमंग से बुलाया गया - " जाने से पहले मिल कर जाइएगा -------------" लेकिन ऐसे में सबके बीच कोई जवाब नहीं दे पाया। भीतर-भीतर अजीब सी कसमसाहट, हाथ थरथराए, फिर रिसीवर पटक कर बाहर निकल गया।
धुंधले आसमान पर झाड़ियों से झांकता बड़ा सा पूनो वाला चाँद उभर आया। छोटे छोटे क़दम धरते उसे ही एकटक देखते - 'सूनी-सूनी निपट अकेली, भीगे नयनों रैन कटी। पूरा पीला चाँद ताकते, पिघल चाँदनी तरल बही।।'
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अफ़ग़ानिस्तान ३ : 'हुकुम लाट साहब का'

 अफ़ग़ानिस्तान ३ : 'हुकुम लाट साहब का'
Published by Rakesh TewariApril 24 at 9:45am
पाकिस्तान से ट्रांज़िट वीसा ना मिलने पर हम अपनी योजना ठंढे बस्ते में डाल कर भूल ग
श्याम जी भी अपने में मस्त हो गए यहाँ तक की लॉट साहब को भी बताना भूल गए। कुछ दिन बीत गए तो लाट साहब बेचैन होने लगे। जब-तब राजभवन जा धमकने वाले श्याम जी से बतकही में उन्हें बड़ा मज़ा आता। सोचने लगे - ऐसा क्या हुआ कि इधर आए नहीं और कोई खबर भी नहीं। जाने से पहले मिलना तो बनता ही था। हरकारे भेज कर बलरामपुर हॉस्टल से बुला भेजा।
हम दोनों साथ-साथ मिलने गए। देखते ही प्रसन्नमुख सवाल किया - 'अरे तुम लोग अभी अपने टूर पर नहीं निकला? हम सोचा पहलवान अब तक निकल गया होगा। तुम तो अभी यहीं घूम रहा है। क्या बात हो गया !!"
श्याम जी ने बताया - "आप के रुक्के की बदौलत वैसे तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन पाकिस्तान ने 'ट्रांज़िट वीसा' नहीं दिया। पाकिस्तान के रास्ते से गए बिना आगे जाएं तो कैसे ?"
यह सुन कर लाट साहब पर कोई असर नहीं पड़ा। पहले की तरह राजदण्ड से खेलते हुए बोले - "इसमें क्या है? नहीं मोटरसाइकिल से जा सकता तो हवाई जहाज से जाओ।"
श्याम जी ने अपने लहजे में बेबाक जड़ दिया - "इतने अमीर होते तो लल्लन टॉप होते।"
लेकिन 'लाट साहब' भी 'लाट साहब' ठहरे। फोन उठा कर मजमूदार साहब को बुलाया। देखते ही देखते हमारी यूनिवर्सिटी के 'वाइस चान्सलरों' को आने-जाने का किराया मुहैया करवाने का फरमान भिजवाया और उनकी एक एक कॉपी हमें दे कर उनसे मिलने की हिदायत दी।
इसकी तो हमने सपने में भी ना सोची थी। नए उत्साह से भर कर चलने के लिए तत्पर होते तब तक लाट साहब ने पुकार लगाई -
"अरे भाई पहलवान को कुछ मिठाई तो खिलाओ, बहुत पसंद है इसको।"
फिर शयाम जी और 'लाट साहब' बातों में मशगूल हो गए और मैं सोचने लगा इसको कहते हैं ऊपर वाले की रहमत। पल में बदरी पल में धूप।
बनारस पहुँच कर अगले ही दिन, पहली बार, सीढ़ियां चढ़ कर बीएचयू के वीसी-ऑफिस के सामने पहुंचा। देख-ताक कर उनके सचिव की मार्फत 'लाट साहब' का फरमान भीतर भिजवा कर बाहर टहलने लगा। कुछ ही देर लगी होगी, भीतर से बुलावा ले कर सचिव साहब खुद ही बाहर आ गए।
तीन साल में पहली बार वी.सी. महोदय से मिलने का मौक़ा मिला वह भी इतने ठसके के साथ। उन्होंने बड़े प्यार से सामने बिठा कर हाल-चाल जाना। चाय की चुस्कियों के साथ अगले -पिछले अभियानों की जानकारी लेते रहे। तब तक रजिस्ट्रार साहब खुदबखुद काबुल से अमृतसर तक के हवाई जहाज के लौटानी किराए भर की रकम एक लिफ़ाफ़े में सलीके से थमा गए।
लखनऊ आ कर बड़े ताव से मूंछों पर हाथ फेरते हुए श्याम जी को अपने किराए का इंतिज़ाम हो जाने की खबर सुनाई लेकिन ऐसा सुन कर अमूमन उछल पड़ने वाले अपने स्वाभाव के उलट वे थोड़ा ग़मगीन नज़र आए।
पता चला उनकी यूनिवर्सिटी के वीसी ने यह कह कर छूछा लौटा दिया कि मार्च का महीने में बजट में पैसा ही नहीं बचा है।
ऐसे में, अब तक राजभवन के दुलार से परच चुके मेरे मन ने लहकारा मारा और, मैंने छूटते ही ललकारा - "चलो 'लाट साहब' को बताया जाय।"
यह सुन कर वे तिनकने लगे - "अब बार-बार उनसे क्या कहें। बजट में पैसा ही नहीं है तो वो क्या क्या करेंगे।"
लेकिन 'चट गुस्सा पट मोहन भोग' जैसे उनके मिज़ाज़ को मनाने के लिए लिए थोड़ी देर का मान मनुहार कारगर रहा। पहले की तरह चहकते हुए तैयार हो गए राजभवन चलने के लिए।
'लाट साहब' ने मुस्कुराते हुए सगरा मसला सुना और चुटकियां बजाते हल हासिल। सीधे लखनऊ युनिवेर्सिटी के वीसी से बात की - "क्या बात है भई !! लड़का लोगों को जाना माँगता। ऐड्वेन्चरस लड़का लोग है, कुछ तो करना होगा। इस साल के बजट में नहीं है तो अगले साल के बजट से एडवांस में देगा।"
इसके आगे कसर ही कहाँ रह गयी। 'जैसा हुकुम लाट साहब का' - श्याम जी को भी मतलब भर रकम मिलने में वक्त नहीं लगा।
नकदी टेंटियाए निकल लिए हम बनारस से और श्याम जी लखनऊ से, और मेरे माता-पिता और बड़े भाई अपने ठिकाने से हमें विदाई देने के लिए - अमृतसर के लिए, बारास्ते दिल्ली।
दिल्ली हो कर इसलिए कि बकिया के रहे-सहे इंतज़ामात पूरे कर लिए जाएं। और, इसलिए भी कि इतने लम्बे अरसे के लिए निकलने से पहले, ख़ास-खास और 'खासमखास' लोगों से मेल-मुलाकात और बतरस का सुख संजोया जा सके।
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Friday, April 20, 2018

अफ़ग़ानिस्तान २ : सांप - सीढ़ी

अफ़ग़ानिस्तान २ : सांप - सीढ़ी

तेईस बरस पार कर चली वय, दिनों दिन गढाती बचपन वाली लगन में डुब्ब, सुधियों वाली परतें पलटते सुध में आए जब ऑटो वाले ने ठिकाने का पता पूंछा। चौंक कर अपने आप में आया। 
कुछ देर इधर-उधर देख कर लोकेशन समझने की कोशिश करता रहा। फिर मन्दिर और उसके बगल से कॉलोनी में जा रही सड़क देख कर आगे का जाना-पहचाना रास्ता पकड़ लिया।

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उसकी माँ, देखते ही, आँखों में ममता भरी चमक छलछलाते हुए बोलीं - "व्हाट ए प्लीजेंट सरप्राइज़!!! तुम, कब आए ? कैसे आना हुआ ?
वहीँ लॉबी में डाइनिंग टेबल की कुर्सियां खींच कर जमावड़ा जम गया। खिड़की से बाहर का नज़ारा देखते हुए इत्मीनान से बताया - मोटर साईकिल से दुनिया देखने का मंसूबा। श्याम और चंदू के साथ उसी दिन आ कर इलाके के सांसद दीक्षित जी के यहाँ डेरा डालने और वीसा की दौड़म-भागी। फिर, मौका लगते ही चुपचाप श्याम को बता कर खिसक आने की बात।
सारा हवाल सुन कर बोलीं - "ओह ! ऐनदर एक्सपीडिशन। वेरी गुड।"
बुलाए, बिना बुलाए, चाहे जब, जो भी आ जाए, उसके ज़िन्दादिल डैडी हर किसी की आवभगत दिल-खोल कर करते, और उस दिन भी उन्होंने कसर नहीं छोड़ी - "मूंछें भी तो जबर रखाय लिए हो !! कोई फिकर नहीं, काबुल के लिए अपने यहाँ से रोज एक फ्लाइट जाती है, ज़रुरत होगी तो मदद मिल जाएगी। अब आए गए हो तो हो जाए 'कचरमकूट' (भोजन पानी)।" फिर लुंगी लपेट कर, हमेशा की तरह जुट गए, थोड़ी-थोड़ी देर में सोमरस गटकते, स्वादिष्ट भोजन बनाने के जुगाड़ में। उनके बारे में यूं ही नहीं कहा जाता रहा - 'हॉस्पिटैलिटी हिज फोर्टे।'

और फिर जब हमीं दोनों रह गए, उसने नेहरस में बूड़े बोलों में मनुहार किया - "हमें भी ले चलो अपने साथ, बड़े मज़े आएँगे। जहाँ मन करेगा टेंट लगा कर, स्लीपिंग बैग फैला लेंगे।"
जब तक कुछ जवाब जुटाता, उसी समय उधर से गुज़र रही, माँ ने दुलरा कर सचेत किया - "इसे मत ले जाना साथ में, तंग हो जाओगे। बार बार भूल जाते हो 'महेश बाबू' की कही बात।"
और, उसके बाद, अगल-बगल देश-दुनिया, गहराती सांझ, किसी बात का कोई होश नहीं रहा। बातें और बातें, बेतरतीब बातें, कैसे यह ट्रिप बना, घर की, हॉस्टल की, कैरियर की, पढ़ाई की -------- बातों बातों में कब खाना लगा, कब घर के सब लोग खा कर सो गए, कुछ आभास नहीं। आँखों आँखों में रात कटी, पौ फूट चली।

श्याम जी ने जाने क्या पढ़ा दिया था सबको कि अगले दिन डेरे पर लौटने पर, रात में ना लौटने के बारे में, किसी ने कोई सवाल नहीं किया। जल्दी जल्दी तैयार हो कर पहुँच गए साऊथ ब्लॉक स्थित विदेश मंत्रालय के ऑफिस। यहाँ भी लाट साहब का रूक्का तो जो काम आना था वह तो आया ही, श्याम जी के खुशदिल और चुलबुले अंदाज़ ने मिलते ही मंत्रालय के एस एन. पुरी और तलवार साहब के दिल जीत लिए। उसके बाद आनन फानन में पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और ईरानी दूतावासों से ग्रैटिस वीसा इश्यू करने के सरकारी अनुरोध-पत्र हमारे तरकश में सज गए।
अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के दूतावासों ने हमें हाथो हाथ लिया, झटपट वीसा ठोंक कर पासपोर्ट हमारे हवाले कर दिए। लेकिन पाकिस्तानी दूतावास में ना तो हमारे तीर चले और ना तुक्के। कई दिन दौड़ाने के बाद कुछ पसीजे भी तो सादा-सीधा टूरिस्ट वीसा देने तक ही राज़ी हुए, खैबर दर्रे के रास्ते मोटर साईकिल से जाने के लिए ज़रूरी 'ट्रांज़िट वीसा' कितनी ही फ़रियाद और हुज्जत के बाद भी नहीं ही दिया।जब पाकिस्तान के रास्ते नहीं जा सकते तो आगे के अफ़ग़ानिस्तान वगैरह हमारी मोटर साईकिल उड़ कर तो जाती नहीं। हमारे मंसूबों की लहलहाती फसल पर पाला पड़ गया।

मुंह लटकाए डेरे पर आए, श्याम सहित कोई किसी से नहीं बोला, चुपचाप बोरिया-बिस्तर समेट कर अगली वाली गाडी से लखनऊ चले आए। लूडो के खेल की तरह जल्दी जल्दी सीढ़ी चढ़ कर ऊपर तक तो आसानी से चढ़ गए लेकिन तब तक सर्पराज ने गटक कर पहुंचा दिया सबसे नीचे के पायदान पर, जहां से चले थे वहीँ।

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Sunday, April 15, 2018

अफ़ग़ानिस्तान १: मानेगा नहीं !!

Rakesh Tewari added 2 new photos.
Published by Rakesh TewariApril 10 at 8:27pm
अफ़ग़ानिस्तान १:  मानेगा नहीं !!

थाह नहीं मिलती ज़िंदगी की पहेलियों की, जाने कब क्या कैसी होनी हो जाए।
एकबारगी तबीयत कुलबुलाने लगी अफ़ग़ानिस्तान के सफर के दास्तान सबसे साझा करने की। इसी नीयत से आलमारी में धरी उसकी ज़िल्द की धूल झाड़ कर पलटने लगा तो हैरान रह गया उसे लिखने की शुरूआती तारीख - ९ अप्रैल १९७७ - देख कर। यानी अब से ठीक इकतालीस बरस पहले इसी दरमियान इसे लिखना शुरू किया था। जाने कैसे इतने अरसे बाद अपने मिज़ाज़ की कुदरती घडी का एलार्म उसी वक्त की नोक पर आ कर टुनटुनाए जा रहा है।
यह सोच कर कि लगता है क्लासीफाइड दस्तावेज़ों को सामने लाने की मुक़र्रर साइत अब आ ही गयी है, आहिस्ता-आहिस्ता किश्तों में शुरू करता हूँ, उन्हें याद करते हुए जिनकी बदौलत इस सफर का जुगाड़ बना। इस दुनिया से बहुत दूर कर जहां कहीं भी होंगे हँसते हुए यही कह रहे होंगे - किसी ना किसी बहाने से लिखे बिना मानेगा नहीं ये !! ----
वे थे मेरे जिगरी दोस्त और अपने आप में निराले इंसान। कांच खा लेते, तेज़ाब पी जाते, फ़ुटबाल के तीन-चार ब्लैडरों में एक साथ तब तक नथुनों से हवा भरते जब तक भड़ाम ना हो जाएं, सीने पर से जीप गुजरवा लेते और सोलह पौंड वाला लोहे का गोला झेल जाते। और भी जाने क्या क्या, जिनकी वजह से हमजोलियों ने कालेज के दिनों में ही मस्तमौला 'श्याम' से बदल कर उनका नाम 'आइरन मैन' रख दिया। अपने करतब दिखलाने के चक्कर में अफ़ग़ानिस्तान-ईरान जाने के उनके मंसूबे सुन कर मेरे जेहन में बुज़कशी का खेल, उत्तरापथ /रेशम मार्ग से गुज़रते कारवां, काबुल-कंदहार, हिन्दूकुश और आमू दरया, जैग्रोस-एलबुर्ज़ जितना जानते रहे सब चक्कर मारने लगे। बोल पड़ा -
"अरे वाह ! अकेले कैसे जाओगे ? मैं भी चलूँगा।"
"हुकुम करो। बिलकुल ले चलेंगे।"
"मोटर साइकिल से चलो तो और भी अच्छा रहेगा। रास्ते में रावलपिंडी के पास तुमहार पुश्तैनी ठिकाना और उससे आगे खैबर दर्रा भी देखते चलेंगे"
थोड़ा ना नू करते 'पुश्तैनी ठिकाने' वाले चारे में फंस कर उसके लिए भी राज़ी हो गए। तब मुझे आगे की लग पड़ी -
"मगर मेरा पासपोर्ट ?"
"फिकिर काहे की ! मैं अभी ज़िंदा हूँ।"
उस ज़माने के सूबे के लाट साहब से उनके घरेलू ताल्लुकात के चलते उनके मुहर लगे रुक्के की बदौलत पासपोर्ट घर बैठे हाथ आ गया।
फिर क्या था, उछाह भरे उछल चले वीसा लेने दिल्ली की ओर।
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Friday, April 6, 2018

घुम्मकड़ राज'

Rakesh Tewari added 2 new photos.
Published by Rakesh Tewari3 hrs
'घुम्मकड़ राज'
(एक और पीडीएफ: आपके लिए)

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वो कहते हैं ना, घूमने वालों ने दुनिया बनाई और घर-घुस्सुओं ने पाई हुई भी गंवा दी।
बिना घुमक्क्ड़ी पुरा-विद्या का ककहरा भी नहीं पढ़ा जा सकता। मतलब पुरवा-पथरा-सील-लोढ़ा के अठारह पुराण मथने से साथ 'घुमक्क्ड़-शास्त्र' का मंथन किए बिना नव-रतनों की तो कहा कहे एग्गो रतन पाने की बात तक नहीं सोची जा सकती। इतनी साधारण सी बात अगर हमारे शिक्षा जगत के 'विद्यावान गुनी अति चातुरों' के भेजे में धंस पायी होती तो अब तक दुनिया जहान के हर कोने में हमारी कीर्त्ति पताकाएं फरफरा रही होतीं।
बस इतना ही तो करना रहा कि 'घुमक्क्ड़ शास्त्र' भी पुरातत्व के कोर्स में शामिल कर लेते। असल विडंबना तो ई हौ कि आपने देश की बड़का युनिवर्सिटी से लगायत कैम्ब्रिज-ऑक्सफ़ोर्ड पलट बड़कवा लोग आजमगढ़ वाले डॉन 'दाऊद' का नाम तो खूब चुभलाते हैं लेकिन कुछ बहके हुए बहल्लों को छोड़ कर उसी जिले में जन्मे घुमक्कड़-राज 'राहुल बाबा' और उनके लेखे इस 'शास्त्र' के बारे में जानते ही नहीं। औरों की देखी सुनी नहीं अपनी लेखी दावे से कहता हूँ कि इस ज़िंदगी में थोड़ा बहुत जो कुछ बन पाया राहुल बाबा के भूले से पड़ गए छीटों का ही सुफल है। इसी लिए जब किसी लायक बन पाए तो राहुल जी की शतवार्षिकी पर प्रकाशित 'प्राग्धारा' का तीसरा अंक उन्हें समर्पित करना नहीं भूले।
'प्राग्धारा' का वह अंक छप कर आने पर उसके वितरण की सोच ही रहे थे कि हमारे विभाग की आला अफसरान ऑफिस का औचक निरीक्षण करने आ धमकीं। उनकी कड़क मिज़ाज़ी और अर्दब के दूर दराज़ तक कहे सुने जाते किस्सों के चलते हम सब उन्हें देखते ही हलकान हो गए। एक एक कमरे, कोने अतरे में इधर उधर बेअंदाज़ बिखरे कागज़ पत्तर, पुरवा पथला का मुआइना करते, इसके पहले कि उनका पारा चढ़ता, उनकी तीखी नज़र मेज़ पर धरे 'प्राग्धारा' के अंकों पर पड़ गयी। उनके पूछने पर बताया - हमारी वार्षिक शोध पत्रिका है, अभी अभी छप कर आयी है। वे एक प्रति उठा कर पलटने लगीं, हम उनके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करते रहे और वे पहला पन्ना उलटते ही उस पर छपी राहुल जी की तस्वीर कर अटक कर रह गयीं - 'अरे मैं तो अभी 'राहुल सांकृत्यायन सेंटेनरी कमेटी' की मीटिंग से आ रही हूँ। किसी को इनके बारे में कुछ ठीक-ठाक पता ही नहीं था, मुझे भी नहीं। और यहाँ तो यह पब्लीकेशन भी हो गया, विभाग के लिए क्रेडिट की बात है।' उनकी आँखों में प्रसन्नता की कौंध देख सांस में सांस आयी।
'अब क्या करोगे आप इसका ?' उनका अगला सवाल था।
'अब इसे डिस्ट्रीब्यूट कराने का इरादा है।'
'नहीं। इसे गवर्नर साहब से रिलीज़ कराया जाएगा। उसकी तैयारी करिए।
आनन - फानन में श्री राज्यपाल की सहमति, कार्यक्रम का अनुमोदन सब हासिल कर के राजभवन के सभागार में शानदार लोकार्पण अखबारों की सुर्ख़ियों में छा गया।
हमसे जैसा बन पड़ा वैसा लिख कर हमने राहुल जी की स्मृति में प्राग्धारा में अर्पित किया था वह 'सेंटेनरी कमिटी' के सदर कौशिक जी को ऐसा भाया कि उन्होंने सूचना विभाग से उसकी हजारों प्रतियां छपवा कर बंटवाने की संस्तुति कर दी। पुरातत्व के नज़रिए से की गयी हमारी इस कोशिश में अत्यन्त विशाल व्यक्तित्व और दर्शन, यात्रा, इतिहास आदि की तनिक सी झलक भर ही थी इसलिए इस अप्रत्याशित डेवलपमेंट से हम आश्चर्यचकित रह गए लेकिन कमेटी के एक माननीय सदस्य को हमारा यह मान तनिक भी रास नहीं आया। उनके लगाए भेंड़ का नतीजा यह निकला की वह संस्तुति ठंढे बस्ते के हवाले हो गयी। हम पर इसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ा, ऐसे ही पहले जैसे ही धरती खूंदते रहे। कभी कभी यह जरूर मसोसता कि अगर यह ज्यादा लोगों तक पहुँच गया होता तो शायद 'विद्यावानों' के कमलनयन प्रस्फुटित हो जाते।
अब पचीस बरस बाद ९ अप्रैल २०१८ को जब 'राहुल जी की' एक सौ पचीसवीं जयंती आ रही है, उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, उन पर लिखे अपने पुराने लेख की पीडीएफ प्रति उन सभी साथियों के लिए तैयार कर ली है जो उसे पढ़ने, घुम्मकड़ी और 'घुम्मकड़ राज राहुल जी' में रूचि रखते हों।
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Tuesday, April 3, 2018

कण्ठ भरी

कण्ठ भरी
कुछ नज़दीकी, कुछ से दूरी,
कुछ उथली, कुछ से हमजोली,
कुछ कडुवी, कुछ से रसभीनी, 
कुछ गांठबंधी, कुछ से सफरी।
क्यों ठेस लगी इतनी गहरी,
क्यों घेर रही अनमन इतनी,
यह दुनिया ही है चलाचली,
चलती है यह हिलती डुलती।
फिर मृदल मृदुल भई भोरहरी,
फिर से बयार, यह मदिर बही,
फिर ऋतु आयी, नव् वसन धरी.
आयी है फिर से बनी ठनी।
शाखों पर नव कोपल फूटी,
बगियों में कोयल कूक रही,
फिर मनपाँखी सा उड़ा रही,
फिर लगा टिकोरे टेर रही।
मन साधो, सांची राह यही,
ना देखो आधी, या पूरी,
यह रंग भरी, या बदरंगी,
है अमिय हलाहल कण्ठ भरी।
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2. April 2018