Friday, December 19, 2014

काहे चिंता करें

काहे चिंता करें

अनुभव की सीमा नहीं, पढ़े-लिखे नहीं पार, 
सबक नए रोजहि मिलैं, अजब-गजब संसार।    

लागहि सब जग गहि लिए, सागर जस भा ज्ञान,
तबही लहरा अस लगै, डूबत उबरत जात ।  

सब चाहैं अपनहि भला, आपहि पट्टी आँख, 
ठेलम ठेला अस मचा, मिले ना सांची राह। 

बिरवा रोपैं भटकटा, फूलै पनपै खूब, 
फल पावैं माहुर भरा, केकरा देवैं दोष।   

मन ही मन चाहें भला, किए बिना सत काज, 
अपने तृण तोड़ें नहीं, भला करें भगवान।   

धरम हानि करते चलें, बिना किए परवाह, 
हम काहे चिंता करें, प्रभु ही लें अवतार।  

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Saturday, November 29, 2014

'हाफ ब्वाएल्ड'

'हाफ ब्वाएल्ड' 

November 6, 2014 at 6:42pm
काशी से भभूत रमाए जौनपुर जाते हुए सोचता रहा इस भूषा में अटाला मस्जिद का दौरा कैसा लगेगा, लोग क्या सोचेंगे, फिर सोचा   जिसको जो सोचना है सोचे,  पहली पहली बार तो भभूत लपेटी है अब जैसे हैं वैसे ही रहेंगे, यह सोच और अगर मगर भी फ़िज़ूल में दिमाग मथे रहती है।

मौके पर पहुंचे तो जौनपुर के किले के दरवाज़े पर  अपने महकमे के  और  लोगों  के साथ  काले मुहर्रमी  लिबास  में जमाल साहब को गुलदस्ता थामे अगवानी में  पाया तो याद आया वे भी दिल्ली से मुहर्रम मनाने घर आए हैं। मिलते ही उनकी गर्मजोशी ने दिल जीत लिया।  बढ़-बढ़ कर आगे-आगे किले के बारे में बताने  लगे।

जमाल साहब का घर किले के ठीक सामने है। उनकी 'नार' भी वहीं कहीं गड़ी होगी। पढ़ लिख कर  बड़े  हो कर  रोज़ी - रोटी के लिए बाहर चले गए लेकिन हर साल मोहर्रम का वक्त आने पर  वहीं दबी सोई 'नार' जाग कर बरबएस उन्हें वहाँ खींच ले जाती है। फिर वे कुछ दिनों के लिए वहाँ बिताए वक्त की यादों के साए में लौट जाते हैं।

हमारा छोटा सा हुजूम आहिस्ता - आहिस्ता  बढ़ता गया और वे अपने बचपन में खोए जज़्बाती हुए जाते  -



"यहाँ जो भीतर का मैदान है, कभी हमारा फ़ुटबाल का ग्राउंड हुआ करता था।  एक बार देशपांडे जी आए और हमें खेलता देखा तो बुला कर पूछा - यहां क्यों खेलते हो ? हमने बताया बाक़ी के मैदान बहुत दूर हैं, यह घर के नज़दीक है।  सुन कर पीठ ठोंक कर बोले अच्छा जाओ खेलो। खेलते खेलते जमाल साहब एक दिन फ़ुटबाल टीम के कप्तान हो गए ."

हम टर्किश हम्माम की बारीकियां और खूबियां  समझते  रहे और जमाल साहब अपने बचपन में मगन -

"यहां हम छुपम - छुपाई खेलते , पानी वाले सूराख में घुस कर कभी इधर से और कभी उधार से निकल कर गुम हो जाते।  हम इसे भूल भुलइया कहा करते। "

आगे बढे , सामने से आई पैड पर तस्वीर उतारते नौजवान से तोअरोफ़  कराया  - "छोटा भाई  है - माज़िद। " उसने भी मुस्कुराते हुए गर्मजोशी से आगे बढ़ कर हाथ मिलाया।  जमाल साहब बताते रहे -

"ये जो छतरी सी बनी है ना, यहां लोग वर्ज़िश और मालिश किया करते थे , अब कम दीखते हैं वैसे लोग।  और यहां से देखिए, पूरा जौनपुर शहर दीखता है यहां से, सामने गोमती पर तना  मेहराबदार  शाही  पुल अकबर का बनवाया है।



जिस दीवार की मरम्मत  अभी की जा रही  है। एक बार यहां काम कराने के दरमियान दीवार में से गाहड़वालों के वक्त की कुछ मूर्तियां निकलीं तो स्टोर में रखवा दीं, अभी आप को दिखलाते हैं।

सिन्हा साहब के फादर यहां सी. ए. की पोस्ट पर थे तो हम उनके साथ बचपन में यहीं खेला करते।  हम तो यहां के एक एक कोने से वाकिफ हैं।

आप देख रहे हैं वो  सामने जो ऊंची बुर्जी है वहाँ बैठ कर पढ़ने आया करता था।  चलिए आप को दिखाता  हूँ यहां घंटो बिताता।  बड़ी खुशगवार हवा बहती थी यहां जैसे आज बह रही है।"

बोलते बोलते जमाल साहब की आँखों में उनका बचपन जुग्ग जुग्ग चमक उठता।



किले के ऊंचे टीले और उसके बाहर चारों और बनी खंदक का ज़िक्र करते करते उन्हें अपने बुज़ुर्ग याद आए जिनका घोड़ा कभी उन्हें लिए दिए उसमें फांद गया था जिसके चलते उनका पैर टूटा तो आगे सीधा नहीं हुआ।

लंब-ए-सड़क अपना मकान, उससे लगी कद्दावर भतीजे की घड़ी की और उससे सटी बन्दूक की दूकान दिखाई, बड़े भाई से मिलवाया,   सड़क पर सीवर की खुदाई के दौरान मिली चमक दार पॉटरी (एन. बी. पी.) और उस बिना पर यहां की बसावट के हज़ारों बरस से वहीं बसे होने का दवा किया। इस जानकारी ने हमें उकसाया और जानने देखने को। उनसे कहा कि क्या कहीं हमें भी दिखा सकते हैं जहां यह पॉटरी मिलती हो।

वो और जोश में भर कर अपने साथ बगल की गली में लिवा ले गए।  अपने दादा का बनवाया लंबा चौड़ा मकान दिखाया।  बोले ये है मेरा 'ददिहाल'और आगे यहां रहे थे हमारे मामू, ये रहा हमारा ननिहाल। अगल बगल के घरों पर मुहर्रम के काले झंडे लहराते दीखते और मातम के बोल सुन पड़ते। ननिहाल के पास ही वे हमें अपने पुश्तैनी कब्रिस्तान में लिवा ले गए। बुज़ुर्गों की कब्रें दिखलाईं जिनके आस-पास पुराने ठीकरे देखते ही हमारे दस्ते ने फ़टाफ़ट एन बी पी और ग्रे वेयर के टुकड़े और एक टेराकोटा हेड बीन लिया।  'हाथ कंगन को आरसी क्या ? पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या ?' सब ने जमाल साहब का दावा मान लिया।

अब सब इस जुगाड़ में लग गए कि अगर कहीं खंती लग सके तो यहां की तवारीख का सही सही पता लगे।  जमाल साहब फिर आगे आए -

"अरे इसमें क्या है।  चाहें तो यहीं कब्रिस्तान के कोने में लग सकती है,  नहीं तो दादा के मकान के पास वाला खाली प्लाट तो है ही। "


अगला ठिकाना अटाला मस्जिद देखा। वहाँ भी जमाल साहब के फुटबाली ज़माने के साथियों ने तहे दिल से हाथो हाथ लिया। जमाल साहब ने इस बात पर बड़ा रंज़ जताया:

" है तो यह मस्जिद बहुत ज़माने से अपने प्रोटेक्शन में लेकिन कोई खैर खबर नहीं ली गई।  अनजाने में देख रेख करने वालों ने जगह जगह सीमेंट से मरम्मत प्लास्टर कर बदनुमा कर दिया।"

फिर अंदर के खुले हिस्से के एक और इशारा कर के तस्दीक कराई -

"इसी जगह हम सब तख्ती पर इमला लिखा करते थे।  यहीं हमने शुरुआती तालीम पाई। इसी मदरसा-ए-दीनो दुनिया में।"

फिर ले गए मस्जिद की ओर।  दूर से देख रहे मौलवी ने आवाज़ लागई - "जूते वहीं उतार दीजिए।"
हमें देर लगी तो इत्मीनान दिलाया "बेफिक्र रहिए,  कोई ले नहीं जाएगा। "

मस्जिद के अंदर की नफीश नक्काशी दिखा कर जमाल साहब ने बताया ऎसी लाज़वाब कारीगरी देखने को नहीं मिलती।



अटाला मस्जिद से चार अंगुली मस्जिद की ओर निकले।  जमाल साहब ने कहा - "मुहर्रम तक रुकिए तो देखिए यहां की रौनक।  ज़ंजीरों और चाकू छुरियों से ऐसा मातम होता है कि समूची सडक खून से रंग जाती है, और देखने वालों की इतनी तादाद कि तिल रखने को जगह ना रहे। "

गलियों में बड़ी गाड़ियों के लिए मुश्किल से जगह बनाते लंबा रुट लिया।  रास्ते में बिक रहे गन्ने देख कार्तिक एकादशी और इक्ष्वाकु राजवंश, कुदरती गन्ने की चर्चा के बाद जौनपुरी मूली और मशहूर इमरतियों की बात हुई। कर्बले के नज़दीक से निकले तो जमाल साहब ने अपने दादा और अब्बू को हसरत से याद किया, दादा की ज़मींदारी और नेकदिली और ज़मींदारी ख़त्म होते ही लगान ना वसूलने के ईमान की बात बताई, मज़लिश में उनके बोलने का अंदाज़ बताया, उस जगह पर हज़ारों ताजियों दफनाने का ज़िक्र किया।

जमाल साहब अपनी रौ में कुछ और बोलते कि तभी ओटा जी ने शरारत से टोक दिया  -

"आप भी तो हज़ कर आए हैं, पहले के सब पाप कट गए होंगे।  अब आप भी मज़लिश में बोल सकते हैं हाजी साहब।  "

जमाल साहब हौले से मुस्कुरा कर बोले - "अमां यार क्या बात करते है आप भी।  भला मैं कहाँ ऐसा कर सकता हूँ। सरकारी नौकरी में सच बोलने का दावा भला कौन कर सकता है ? और नहीं तो इतना झूठ तो बोलना ही पड़ता है, बाज बाज, बहुत फोन आएं तो कह दो नहीं हैं। " यह सुन कर सबने उनकी साफ़दिली की तारीफ़ की।

चार अंगुल मस्जिद की एक मेहराब मशहूर है अपनी इस खासियत के लिए कि छोटा बड़ा जो नापे उसकी माप चआर अंगुल ही निकलेगी।  जमाल साहब के ज़ेहन में यहां की यह शोहरत बचपन से कब्ज़ा जमाए रही लेकिन हमें दिखाते वक्त ढूंढने के बाद भी उसकी शिनाख्त नहीं करा सके।

फिर से ताजिए पर लौटे।  असल में हिन्द से बहुत दूर ईराक में कर्बला जा कर मातम मनाना सबके बूते की बात तो है नहीं, शायद इसी लिए हिन्द के शिया लोगों ने यहां के तकरीबन हर ख़ास शहर - कसबे में अपने अपने कर्बले बना लिए।  हर बरस मुहर्रम के मौके पर कर्बला की ज़ंग की याद में, जिसमें इमाम हुसैन साहब क़त्ल किए गए थे, छोटे बड़े ताज़िए (मकबरे) उठा कर जुलूस निकाल कर ज़ंग के वाकयों को फिर से जीते हुए अभिनीत करने और आखीर में इन ताजियों को कर्बला में दफनाने लगे।   

तभी किसी साथी ने कह दिया कि हाँ हाँ उनके फलां दोस्त भी ऐसा ही बता रहे थे और जमाल साहब सुनते ही तुनक गए - "अमा यार उसे क्या आता है ? एक बार पूंछ दिया था - ताजिए में दो छोटी छोटी हरे  लाल  तुरबत क्यों बनाए जाते हैं ? बस मुंह खोल दिए, इतना भी नहीं बता पाए कि हसन - हुसैन की याद में बनते हैं।  छोड़िए उनकी बातें ठीक से नमाज़ तक तो पढ़ नहीं पाते। ' हाफ ब्वाएल्ड' समझिए उनको ' हाफ ब्वाएल्ड'।"

पहले तो समझ नहीं आया क्या कह गए।  फिर समझ में आया तो देर तक हँसता रहा -  'हाफ ब्वाएल्ड', ,मतलब अधपका अण्डा, मतलब अधकचरा।

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Friday, November 28, 2014

'ईबोला'

१. 
अफवाहों के पंछी कैसे पल-पल में उड़ते रहते,
जो पाया वो उड़ा दिया जो उड़ते ही उड़ते रहते।   

२. 
बहुरुपिया क्या रूप धरे, जस रूप छनन धरते रहते, 
गिरगिट बस बदनाम लगें , ये ऐसो रंग धरा करते।  

3.
जितनी उनकी धरा उर्वरा, उतनी फसल उगा लेते, 
खलिहान तलक आने से पहले सारे बीज उड़ा देते।  

4.
पके बिनौले सेमल वाले झर झर कर उड़ते रहते,  
रुइया गोले के भीतर भी काले बीज दिखा करते।  

5. 
अफवाहों का चना चबैना, चहुँ पल पगुराते रहते, 
ओढ़ बिछा कर उसके अंदर अपनै घुघुआते रहते।  

6. 
बसैं बहादुर बहु आबादी, बज बज बज करते रहते,
बस्ती बस्ती यहै मुनादी, रोज़-रोज़ बजवा करते।        

७. 
मुलुक भरे मां फ़ैल 'ईबोला' जहां तहाँ तिरते रहते, 
जाबा बाँधौ झक्क सफेदी, अनु कन अस फैला करते।    

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Saturday, October 18, 2014

भूल रहा हूँ

भूल रहा हूँ 

पूजा-अर्चन अगर-जलाना भूल रहा हूँ,
घाट नदी मंदिर की पौड़ी भूल रहा हूँ।  

वादी-वादी फूलों वाली भूल रहा हूँ,
छितरी धवल चांदनी चादर भूल रहा हूँ।  

नाता रिश्ता सहज सरलता भूल रहा हूँ,
परत परत धर प्रेम पुराना भूल रहा हूँ।  

नभ धुंधला या चाँद देखना भूल रहा हूँ,
कतरा कतरा रोना गाना भूल रहा हूँ।  

बड़-पीपल का थान पुराना भूल रहा हूँ,
पूजे थे जो नाम जनम भर भूल रहा हूँ।  

उनके सपने बड़े फलसफे भूल रहा हूँ,
पैमाना जो ले कर चलता भूल रहा हूँ।   

कैसे कैसे अजब नज़ारे देख रहा हूँ,
चेहरों पर वो चढ़ी नक़ाबें देख रहा हूँ।  

तज कर माया, मोह लिपटते देख रहा हूँ,
भज मन भजन डूबता कैसा देख रहा हूँ।  

बाना, संन्यासी, जामुन-डंडी देख रहा हूँ,
भर भर पीते प्यास न बुझती देख रहा हूँ।  

पढ़-पढ़ पोथी समझ न पाया समझ रहा हूँ,
अज्ञानी ही रहा जनम भर समझ रहा हूँ।  

जिस रस्ते पर चलता आया भूल रहा हूँ,
कितनी यह रूमानी दुनिया भूल रहा हूँ।  

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Sunday, August 24, 2014

ढूंढते हैं

ढूंढते हैं 

१.  
हम रास्ते से भूले, मेले में घूमते हैं,
चादर बिछा के अपने, सामान बेचते हैं।  

२.
असली बता बता के, हर जिंस बेचते हैं,
तोता रटा के कैसा, कल-आज बेचते हैं।  

३.
मीठी जलेबी ले लो, घेवर तरी भरे हैं,
भर के हवा रंगीले, अरमान बेचते हैं।  

४.
कैसे लहक के चलते, झूलों पे झूलते हैं,
पेंगे लगा के लम्बी, आकाश चूमते हैं।  

५.
खाझे का गोलदारा, बुंदिया सजी हुई है,
गुन-चुन के रामदाना, गुड साथ बेचते है।  

६.
बच्चों के वो खिलौने, बुढ़िया के बाल भी हैं,
चटको चटक रुमलिया, चटकार बेचते हैं।   

७.
हर माल है टके में, रह रह के टेरते है,
दीन-ओ-ईमान ले लो, धेले में बेचते हैं।

डीह, थान, तीरथ, सौदे में बेचते हैं ,  
थोड़े टके की खातिर सब धाम बेचते हैं।

9.
खातिर ए तिज़ारत, तहज़ीब बेचते हैं,
अदबी चलन ओ पीपल बयार बेचते हैं।  

10.
है भीड़ भाड़ भारी, हम राह हेरते हैं,
होशो हवाश खो कर, अपने को ढूंढते हैं।
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Wednesday, August 13, 2014

बाज़ी

बाज़ी  

१. 
इम्तिहान ऐसा, क्यों ले रहे हो भाई, 
इस सिलसिले की हमने, की है नहीं पढ़ाई।  

२. 
रहते रहे हो अव्वल, आगे की सीट पाई,
अपने हिसाब में ही, पिछली कतार आई।   

३. 
आलिम हो आप फ़ाज़िल, आली है शान पाई, 
हिस्से में अपने लेकिन, आधी अधूरी आई।  

४. 
तुम हो फनों के माहिर, करते हो रहनुमाई,  
हम हैं हुनर से खाली, रहते हैं तमाशाई।  
   
५. 
क्यों चाल ये चली है,क्यों फर्द ये बिछाई, 
हसरत से देखने की, अपनी है आशनाई।  

६. 
हम आँख मूँद खेले, वो हाथो हाथ आई, 
कंगले के हाथ जैसे, गिन्नी कहीं से आई।  

७. 
वो जीत-जीत हारी, ओ हार कर जिताई,  
है वक्त ने ही ऎसी, वो घूमरी खिलाई।      

८. 
अपनी गिरह थी खाली, क्यों दांव पर लगाई,  
वो जीत गए, फिर भी, जग में हुई हंसाई।    

९. 
ये रंगो नाज़ वाली, शाही मिज़ाज़ पाई, 
कोठी नवाब वाली, ये सब तो खूब पाई।  

१०. 
ये ज़िंदगी हमारी, है ज़र ज़मीं हमाई !!
जब चल पड़ी सवारी, मूठी भरी न पाई।   
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Sunday, August 10, 2014

कोई 'सिला' मिलेगा

कोई 'सिला' मिलेगा  

१. 
कूचा-ए-राह चिकना, है राज जन पथों का, 
बागो सपन बगीचा, फूलों सजा दरीचा।  
 
२. 
मेला सा चल रहा है, पर हर कोई अकेला,
ज़ेरे बहस बहुत है, मसरफ ना कोई जिसका।   

३. 
है दोस्ती का लहज़ा, हाथों में गुल-ए-दस्ता, 
मुस्कान मुंह पे चस्पा, लगता है जोश झरता।   

४. 
आबो हवा में बसता, अरदब निज़ाम ही का,  
चहलो-पहल में डूबा, लगता मगर है तनहा।   

५.
जो ख्वाब ले के आया, आँखों में मुल-मुलाता, 
वैसा ही इसका मंज़र, धुंधला सा नज़र आया।  

६. 
गिरता हुआ भरोसा, खुद अपने आप ही का, 
अपना ही अक्स बदला, है शुकर आईने का।     

७. 
है यह शहर अजूबा, सब सून सान डेरा, 
उजियार में भी लगता, चहुं ओर घुप अन्धेरा।  

८. 
मंजूर-ए-रब को होगा, जो यह मुकाम अाया,  
है ये नसीब अपना, लौटा यहीं पे लाया।  

९. 
ना तब पता था रस्ता, ना अब कोई 'सुरागां',* 
है बस पता तो इतना, कुछ तो 'सिला' मिलेगा।**  

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* सुराग (clue) 
** फसल कट चुकने के बाद खेत में गिरे अनाज के दाने;  पारिश्रमिक या इनाम 

Wednesday, July 23, 2014

एक दिन सजै मसाना है


एक दिन सजै  मसाना है

ना कोई बाम्हन ना कोई ठाकुर, ना बनिया ना लाला है,
स्वारथ बस बस एक गुट बैठें, यहै जगत की माया है।  

ना कोई रिश्ता ना कोई नाता, ना बबुआ बबुआना है,
राह कटे पर कूकुर बन अस, झपटै हलक निवाला है।    


ना कोई देवता ना कोई देवी, ना काशी ना करवट है, 
कैसेउ लछमी जगैं पलन में, एक्कै चाहत आला है।  

ना कोई ओझा, ना कोई सोखा, ना जोगी ना घोरी है, 
ना कोई दानी, ना कोई ग्यानी, ऐसै गड़बड़झाला है।   


ना कोई तापस, ना बलवाना, ना कोई सजग सुजाना है,
गावै केतनौ भजन कबीरी, रग रग रंग रस भीना है।    



ना कोई राजा, ना कोई रानी, ना परजा, ना चाकर है,
ना कोई प्रहरी, ना कोई पिंजरा, बखत परै उड़ जाना है।

ना कोई सुलझा, ना कोई उरझा, उरझत सुरझत जाना है, 
केतनौ जोड़ौ, केतनौ सिरजौ, एक दिन सजै  मसाना है। 

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Monday, June 16, 2014

यारी यार


यारी यार


घिरे घने अंधियार में, दीपक जले हज़ार,
गहरे में जब जा गिरें, राह दिखाएं यार।


ऎसी यारी कुछ करें, धक्का देंय गिराय,
उलटी वारी बह चलें, करने लगें प्रहार।


यारी करता है नही, होती है इक बार, 
बनी बावली घूमती, रहे पहेली यार।


चुन यारी चलती चली, रही आर या पार, 
चुनते ही वो कट गई. मिली ना यारी यार।


यारी की उनको मिली, तीखी बस तासीर, 
हमको मीठी सी मिली, जैसी पूनो खीर।


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Sunday, June 8, 2014

न पावैं सार


पढ़ा सुना गुनतै रहैं, समझ पावैं सार,

नियत घड़ी आए तबै, आखर हों साकार।


हम समझैँ हम कर रहे, करता सब करतार,

डाँड़ गहैं हम हाथ में, साधै खेवनहार।

कभी कभी ऐसा घटै, अकल पावै पार, 

सब कुछ लागै तयशुदा, मानै बारमबार।


Saturday, June 7, 2014

आए ना आए

आए ना आए, ज़िक्र तेरा आ ही जाए, 
जिस तरफ जाएं, उसी रस्ते पे आए।   

आए वो आए, हर कदम साए सा आए, 
सपने में आए, जागते लम्हों में आए।  

आए वो आए, इस तरह हौले से आए, 
फाख्ता उड़ते हुए, छज्जे पे आए।  

आए वो आए, आस का दीपक जलाए,
आए वो आए, फिर वही दीदार पाएं।  

आए वो आए, फिर वही कूचा दिखाए,
आए वो आए, याद वो कैसा सताए।  

आए ना आए, अक्स तेरा आ ही जाए,
जाए न जाए, नक्श वो आ कर ना जाए ।  

आए वो आए, किस कदर रह रह के आए, 
आए वो आए, आए वो लब से न जाए ।   

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Tuesday, June 3, 2014

चल कर देखें

चल कर देखें



वक्त ने एक मौक़ा दिया है 'भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग' के साथियों के साथ विभाग को सौंपी गयी ज़िम्मेदारियों को निभाने का, पूरी कोशिश रहेगी पूरा करने की।

नए दौर में नई उम्मीदें, नए सपने, लाज़िमी हैं। इन्हे असल ज़मीन पर आंकना और लाना सब की ईमानदार कशिश पर टिकता है। इस काम में साझीदारी ज़रूरी है सरकारी और गैर सरकारी सभी सरोकारों की।  

एक लय में तय न होगा, ये मुकामी फैसला,
कुछ कदम हम भी चले, इतना रहेगा हौंसला।

छोटे-छोटे कदम रखते बढ़ते जाने का काम हमारा है, ठिकाना कब मिलेगा बिना यह सोचे। चलिए चल कर देखें।

बुज़ुर्ग कहते हैं - चलने वालों को निगाह मिल ही जाती है।



Monday, April 7, 2014

यकीन


यकीन 

यकीन अब यकीनन हो गया,
किसी पर यकीन ही नहीं रहा। 

हुआ यूं कि कुछ बनवाने चला,
यकायक एक सबक पा लिया। 

बालू सीमेंट से बाज़ार में पाला पड़ा,
कहीं कम कहीं ज़्यादा घोटाला मिला। 

ठेकेदार ने ठसक से कान में फूँका,
दूकान पर ज़रा संभल कर रहना । 

उसने बताया जो ऊंची दूकान वाला,
सावधान बड़े बनिया का नाम बिकाता। 

दूकान वाले ने चुपके से कान में फूँका, 
भरोसे पे नहीं सब सम्भाल कर रखना। 

ठेकेदार हो या प्लम्बर, भरोसा मत करना, 
पेंच हो पाइप या टोंटी, ताले में रखना। 

मिस्त्री ने राज ठेकेदार का खोला,
मजूरों ने सुराग-ए-राज़ सुनाया। 

हर रद्दे पे नया पाठ रोज़ ही रहा पढता ,
छोटा, बड़ा, कोई किसी से कम नही होता। 

'बाबा भारती' का वह दिलकश घोड़ा, 
'शाह' तक वापस नहीं किया करता। 

वक्त है आखिर वहीँ कैसे टिकता, 
कोई किसी पे यकीन ही नहीं करता। 

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Wednesday, March 26, 2014

खरहा




दुबका हुआ है आस का खरहा वहीं, चाँद गलता जा रहा,   
रात होती जा रही कितनी घनी, दीपक टपकता जा रहा । 

अंटी में छुपी कौन सी वो थी जड़ी, सब खुलासा हो रहा,   
हो गए भैया बड़े, जीजी बड़ी, उनका तमाशा चल रहा ।  

आवाक सी है देखती जनता खडी, कैसे जमूरा छल रहा,  
रास्ता दिखता नही मंज़िल कोई, बस एक नटवर दिख रहा।  

तुमसे जो दावा किया था काज़ी, कागज़ कहीं वो उड़ गया,   
काबिले बात रह गई किताबी, नावां ही सबकुछ हो गया।     

भूल से भी आ गया मन्दिर कभी, बन देवता पुजवा रहा,  
ले नाम जन-जन सब कही, बाज़ार में बेचा किया। 

शक या सुबहा, रहा नहीं कोई, बदतर ज़मना हो गया,     
नकाब में रहता नही है अब कोई, सब सरासर हो रहा ।  


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Sunday, March 16, 2014

उज्जर होरी

उज्जर होरी 

१. 
एहि फागुन बाउर भए, देखौ खेलैं रंग, 
उज्जर झोरी रंग की, उज्जर थोपे अंग।  

२. 
काजर कोठरि धंसि रहे, पउडर थोपे गाल, 
बनि हँसि होरी खेलते, झप्पी भरे गुलाल।  

३. 
सबै रंग परचम उड़ें, सबै रथन के मौर, 
उज्जर उज्जर उच्चरहि, करिया दिल के कोर।   

४. 
जाति-पांति औ धरम की ढपली बाजै जोर, 
मुंह में राम रहीम लै, छूरी साजे लोग।  

५. 
बहुरुपिया जो साल भर बदला करते रंग, 
बदरंगी शोभन लगी, दल बदलत ही चंग।  

६. 
एहि बिरिया नारा लगै, हरिद्रोहिन कै नास,
सिंह बने नर आ रहे, सबको मिलिहै त्राण।  

७. 
बरस बरस बीता किए, होरी बारत भाय, 
बार ना पाये होलिका, फगुआ होरी गाय।  

८. 
नए रूप राछस धरे, चढ़ि-चढ़ि गरजें मंच,
उनकी ही महिमा अही, बाजत हैं सब लंग।  

९.
सब कोई सब कुछ लखै, मगर रंग की रीत,
बार-बार कालिख लगै, गले लगावैं रीझ।  

१०.
काशी मथुरा अवध पुर, टेसू सेमल लाल,  , 
होरी के रंग भीजते, खेलें रघुबर नन्दलाल।

११. 
मन में उमगन फिर बहै, फागुन मारै जोर, 
भला बुरा अलगाय कै, खेलेंगे फिर भोर।    
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Friday, February 14, 2014

ज़िंदगी


ज़िंदगी

१. 
कितनी बड़ी ये ज़िंदगी, लगती रही कभी,
यूं चुटकियों में कट गई, कैसी अभी अभी।  

२. 
धूप-छाँव सी आयी, आकर चली गयी,  
ज्यों मूठी से रेत, सरकती चली गयी।  

३. 
ताल, बाग, तट, तुहिन, घास वो हरी,
खोए हुए देखा किए, कपूर सी उड़ी ।  

४. 
मुल-मुलाती आँख से, दुनिया तनिक दिखी,
कहीं रुकीं, सधी कहीं, पलकें ढुलक चलीं।  

५. 
मीठी लगी ऎसी कभी, मिसरी की हो डली, 
ऎसी लगी कभी वही, मिर्ची में हो पगी।  

६.
राग ओ मनुहार के, झूले पे झूलती,
मगन मन चलती रही, लहरों पे डोलती।  

७. 
सोचा नही वो वो घटी, जीवन की बानगी,
नान्हे में जो यारी जुड़ी, घाट पर लगी। 

८. 
आए ही थे, ठहरे नहीं, चलने की चल पड़ी,
कुछ सफे पलटे अभी, बाती ही चुक चली।  

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Sunday, February 9, 2014

चर्चा-ए-छतरमंज़िल

February 9, 2014 at 5:50pm

बीती  ७ और ८ फरवरी को लखनऊ में उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व निदेशालय द्वारा आयोजित वर्कशॉप में छतरमंजिल के अभिलेखीकरण, सुदृढ़ीकरण, संरक्षण - परिरक्षण, विकास तथा भावी उपयोग के मुद्दों पर विचार मंथन चला।





गोमती किनारे स्थित छतरमंज़िल परिसर में सत्रहवीं शताब्दी के आखिरी और अठारहवीं शताब्दी के शुरआती दौर में बने दो महलों फरहत बख्श और छतरमंज़िल और उसके बाद उनमें जोड़ी गई ब्रिटिश और उसके भी बाद की इमारतों का समूह है। सबसे पहले यहाँ फ़्रांसीसी सिपहसालार क्लाउड मार्टिन ने फरहत बख्श नाम से मशहूर हुआ महल तामीर कराया,  उसके बाद नवाबों ने इसके बाज़ू में छतरमंज़िल की नायब इमारत बनाकर उस खित्ते को अलग ही पहचान से नवाज़ा। इन इमारतों में जाने का रास्ता तब आज के कमिश्नर आफिस की और से दक्षिण दिशा से नहीं वरन उत्तर दिशा में बहने वाली गोमती नदी के रुख से होता  रहा.




१८५७ में हुकूमते-ब्रितानिया के खिलाफ हिन्दुस्तानियों ने आज़ादी की जो पहली ज़ंग छेड़ी उसकी सबसे पुरज़ोर गवाह यह परिसर बना।  इस ज़ंग में अवध और अलहदा इलाकों के जाबाजों ने लखनऊ के लोगों के साथ मिलकर जो जौहर दिखाए उनकी गाथा से हर कौम-परस्त बखूबी वाकिफ हैं।  लेकिन वक्त ने उस वक्त अंग्रेज़ों का साथ दिया और ये इमारतें उनके कब्ज़े में आ गईं।  उन्होंने अपने हिसाब से इसमें खासी तब्दीलियां कीं।

आज़ादी की पहली जंग की जो अलख जलाई उसे जलाए रखा काकोरी काण्ड में फूटी तो कभी इलाहाबाद और दीगर जगहों पर बिस्मिल,अशफाकुल्लाह, आज़ाद जैसे दीवानों ने, बंशी की तान पर 'उठो सोने वालों सवेरा हुआ है' के तराने गाने वाले गांधी-सुभाष के चेलों ने, तब तक जब तक की मुल्क को आज़ादी ना हासिल हो गई।

इस बीच ब्रितानिया हुकूमत ने फरहत बख्श और छतरमंज़िल सहित लखनऊ की ख़ासमखास तवारीखी नायब इमारतों को 'प्रोटेक्शन' में 'नोटिफिकेशन' करके 'भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण' की देख-रेख में रख दिया। उसके बाद जब मुल्क आज़ाद हुआ तो इन इमारतों की किस्मत ने एक और पलटा मारा - देश में साइंस की बढ़ोत्तरी के लिए बनाई जा रही एक सिरमौर संस्था सी. डी. आर. आई. की लैब इसी में  बैठाई गई। उसके बाद इसमें लैबोरेट्री की ज़रूरतों के हिसाब से  नए इंतज़ाम और जुगाड़ बैठाने पड़े जिनके चलते  इमारतों को नए रंग और 'लुक' मिलते गए।



कहते हैं कि सी. आर. आई. ने इमारतों के रख रखाव के कामों में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की अनसुनी हुई तो १९६१ में इन्हे अपनी देखरेख से बेदखल कर दिया। लेकिन १९६८ में राज्य सरकार ने इन्हे अपने संरक्षण में ले लिया। अब कब्ज़ा तो रहा लैब वालों का और संरक्षण का ज़िम्मा राज्य पुरात्तव महकमे के कन्धों पर। पुरातत्व वाले इमारत में घुसने की इज़ाज़त भी लैब वालों से पाते। ऐसा साझा आखिर कब तक चलता। ऊब कर सूबे वालों ने  १९९२ में प्रस्ताव रखा कि हमें भी ऎसी जिम्मेदारी से बख्श दिया जाए। तब के आला अफसर आलोक सिन्हा जी ने अपनी भुवन मोहनी मुस्कान बिखेरते हुए  सलाह दी - 'इतनी भी क्या नाराज़ी, एक बार फिर से कोशिश कर के देखना चाहिए।' अनमने मन से कुछ कोशिश तो हुई लेकिन गाड़ी रही जहां की तहां।

पुरातत्त्व परामर्शदाता समिति की अगली बैठक में फिर एक बार यह मामला सुर्ख हुआ तो नए सिरे से सुगबुगाहट बढ़ी। नहीं कुछ तो प्राथमिक डॉक्यूमेंटटेशन की कोशिश की गई। फिर १९९८ के आसपास सूबे के पुरातत्त्व महकमे में इमारतों की देखभाल की ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे नायब सिंह साहब ने बताया कि सी. डी. आर. आई. परिसर में मल्टी-स्टोरी नई लैब बनाने की तैयारी चल रही है।  बस, इस सुराग ने एक नई पहल का सिलसिला शुरू किया। सद्रे महकमा सी. डी. आर. आई. के तब के निदेशक की चाय पीने पहुँच गया। बातो-बातों में उन्होंने खुद ही नयी लैब बनाने की चर्चा कि तो उन्हें बाअदब बताया गया की इस विरासत के आस-पास ऐसा करना वाज़िब ना होगा। इस ऐतराज़ पर वे थोड़ा नाराज़ हुए और मामला केंद्र सरकार को रेफर किया।

इधर पुरातत्त्व महकमे ने शासन स्तर पर अपने सेक्रेटरी शैलेश कृष्ण जी को सारी जानकारी दी तो उन्होंने भी मामले की नज़ाकत समझ ज़रूरी कदम उठाए। उधर भारत सरकार के साइंस से जुड़े मामले देखने वाले जॉइंट सेकरेटरी ने भी इस प्रकरण को वाजिब तवाज्जो दी, खुद मौके पर आए और मान गए कि इस परिसर में नयी इमारत खड़ी कराने का कदम विरासत के रख-रखाव के नज़रिए से ठीक ना होगा। आखीर में यह फैसला हुआ कि सी. आर. आई. की लैब जानकीपुरम में बनाई जाए।

इस बीच चर्चा चलने लगी खाली होने पर इन इमारतों और परिसर का रख रखाव, विकास और उपयोग कैसे किया जाए। पहला सवाल सामने आया इनके संरक्षण का जिसके लिए सबसे पहले रूचि ले कर सूबे के पर्यटन विभाग के महानिदेशक श्री रवीन्द्र सिंह ने रुढ़की के इंजीनियरों को बुलावा दे कर एक रिपोर्ट तैयार कराई। पुरातत्त्व विभाग वाले भी अपनी तईं बाहें भांजते तरह तरह की तैयारी करते और लैब वालों को जल्दी से जल्दी इमारते हाली करने के लिए कोंचते रहे। इस सब  जद्दो-जहद के बीच लैब का सामान जानकी नगर में बनी लैब में पहुंचता रहा लेकिन कब्ज़ा छोड़ने का वक्त अब भी नहीं बना।

फिर, हुआ ये कि २००२ में छतर मंज़िल का पोर्टिको कुदरती मार से धराशाई हो गया, मीडिआ ने इसे बड़ी ख़बरों में जगह दी, शहर के जागरूक बाशिंदों ने आवाज़ें बुलंद की. ओस सब के चलते वह निर्णायक मोड़ आया जब बतकरीबन चौदह बरस के लम्बे बनवास के बाद इनके असली वारिसों को हक़ मिलने के आसार बने।

फिर भी शायद अभी देर लगती अगर ऊपरी स्तर पर मा. मुख्यमंत्री जी भारत के मा. प्रधान मंत्री जी को इस बाबत ख़त ना लिखते।  इस ख़त ने इन तवारिखी इमारतों की तवारीख में एक मील का पत्थर लगाते हुए इन्हे दोबारा पुरातत्व महकमे को सौंपने का फरमान ज़ारी करा दिया।

लेकिन मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ।

फरहत बख्श और छतरमंज़िल का संरक्षण, परिरक्षण, विकास और उपयोग किसी एक महकमे के बूते की बात नही।  फिर भी, लेकिन इसकी धुरी तो पुरातत्त्व महकमे को ही रहना है। इन बड़े कामों को बेहतर से बेहतर ढंग से सम्भालने के लिए एक और सूबे के मा मुख्य सचिव की अगुआई में संस्कृति, पर्यटन और अन्य सरकारी महकमों के साथ वरिष्ठ नागरिक और संस्थाएं तो सामने आईं ही वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार के संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग ने भी पूरी मदद का भरोसा दिलाया। तय हुआ कि इन कामों की योजना बनाने से पहले इनसे से जुड़े सभी दावेदारों/ सरोकारियों को जुटा कर उनकी राय ले ली जाए जिससे एक सोची समझी ऎसी योजना बनाई जा सके जिससे सभी सरोकारी जुड़े रह सकें। इसी मकसद से पुरातत्त्व निदेशालय ने छतर मंज़िल के दरबार हाल में फरवरी ७-८, २०१४ तकएक वर्कशॉप (कार्यशाला) का आयोजन कराया। शुरू से ही इस अभियान से जुड़े सिंह साहब की कमान में महकमें की पूरी टोली ने इसकी सफलता के लिए जी जान लगा दी।




वर्कशॉप में दावतनामा मिला आला दर्ज़े के जानकारों के अलावा शहर के नामचीन और अन्य शहरियों, पत्रकारों, इंजीनियरों, सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को। उदघाटन कार्यक्रम में बाक़ी के काम छोड़ कर खुद सूबे के मा.मुख्य मंत्री, मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव सहित पधारे।  शहर की तवारीखी इमारतों और उनके सहारे पर्यटन को बढ़ावा देने का प्रकरण अपनी प्राथमिकताओं में शामिल बता कर इनके लिए हर सम्भव कदम उठाने का भरोसा दिलाया, शुरुआत के लिए ५० करोड़ की व्यवस्था कराने का ऐलान किया, फरहत बख्श और छात्रमंजिल के साथ गोमती की साफ़ सफाई व् तटीय विकास पर बल दिया, कार्यशाल में आये विषेशज्ञों से वायदा किया कि उनकी संस्तुतियों को लागू कराने की पूरी कोशिश की जाएगी, और छतरमंज़िल का दौरा कर आज की दशा का जायजा भी लिया। उनके आने से सभी सरोकारियों का हौंसला बुलंद हो गया।

कार्यशाल में प्रस्तुति करने वालों में आगा खान ट्रस्ट के रतीश नंदा, इंटैक के ए. जी. के. मेनन और दिव्य गुप्ता, लखनऊ के डाकटर ए चक्रवर्ती, पी. घोष, आशीष श्रीवास्तव, विपुल वार्ष्णेय और चद्र प्रकाश, कलकत्ता से आई नीता दास, बी एच यू के आईटी विभाग के डा. अनुराग ओहरी, डा. राजेश कुमार, जामिआ मिलिआ के एस एम् अख्तर, प्रोफ़ेसर नलिनी ठाकुर, डाक्टर प्रियलीन सिंह आदि ने अपने मन्तव्य प्रस्तुत किए जिन पर आई आई टी कानपुर के डॉ. ओमकार दीक्षित, शहर के भागीदारों में से प्रोफ़ेसर आई बी सिंह, जयंत कृष्ण, ज्ञानेस्वर शुक्ल, रवि भट्ट और रवि कपूर जैसे अध्येताओं ने भी विचार विमर्श किया। कार्यशाला की पूरी रिपोर्ट महकमा अलग से तैयार करेगा।

कुल मिला कर कार्यशाला में जो सुझाव दिए गए उनमें फरहत बख्श - छतरमंज़िल-परिसर को सांस्कृतिक-पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने, इसमे नगर और साइंस संग्रहालयों की स्थापना, १८५७ का प्रतीक संग्रहालय बना कर परिसर का नाम नवाब वाज़िद अली शाह के नाम पर रखने, १८५७ की आज़ादी की लड़ाई और काकोरी काण्ड पर फ़िल्म बनाने, होटल-होटल-कॅफेटेरिआ   खोलने, परिसर में पुरानी तर्ज़ पर बागवानी, कमिश्नर आफिस शिफ्ट कराकर लाल बारादरी तक की दृश्यवाली पर पड़ा कपाट हटाने जैसे सुझावों के साथ इन सभी सुझावों पर सम्यक विचार करने के लिए एक समूह या टास्क फ़ोर्स बनाने का सुझाव भी दिया गया।



गोमती की सफाई के बारे में सबसे मुफीद सुझाव रहा अख्तर साहब का जिसके मुताबिक़ कुडिया घात से ऊपर अगर एक बैराज बना कर गोमती नगर वाला बैराज हटा दिया जाए तो जहां एक तरफ शहर को पीने का साफ़ पानी मिल सकेगा वहीं दूसरी ओर बैराज का पानी छोड़े जाने पर नीचे के बहाव में नदी में गिरने वाले नालों का प्रदूषण आपो आप बह जाएगा।

आखिरी सेशन में सारे भागीदारों ने एक स्वर से इस प्रस्ताव को पास किया कि सबसे पहले अगली बरसात शुरू होने के पहले इन इमारतों की इमेरजेंसी रिपेयर करायी जाए वर्ना खुद ना खास्ता अगर इन्हे नुक्सान पहुंचा तो सारी राय बात बे मज़ा हो जाएगी।

कार्यशाला के सफल आयोजन के लिए आयोजको को ढेरम-ढेरसी बधाई।

साथ ही इतना और कि कार्यशाला में भागीदार खास-ओ-आम अपने अपने मुकाम पर चल दिए हैं ढेर सारे सुझावों की गठरी पुरातत्त्व महकमे के सदर सिंह साहब के सर माथे चढवा कर। अब संरक्षित स्मारकों/स्थलो के रख रखाव के लिए बाकायदा लागू अधिनियमों के परिप्रेक्ष्य में इन्हे अमली जामा पहनाने के उपाय करने में भी उन्हें और उनके साथियों को आप सबकी बड़ी ज़रुरत रहेगी।    

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Friday, February 7, 2014

2.9 रास्ता चलते हुए - सत्र दो

February 7, 2014 at 6:37pm


2.9  गोलू :   

चुनार सीमेंट फैक्ट्री के बगल से जाने वाला रास्ता ले गया 'बड़ागाँव' की उस खदान में जहां - जहाँ तहां पड़े हैं तराशे गए पत्थर के बेलनाकार 'गोलू'। सदियों से यहीं पड़े रहे किसी ने खबर नहीं ली। बाजू में ही देख परख गए कनिंघम बाबा की नज़र भी इन पर नहीं पड़ी।







इसी रास्ते आगे जंगल में 'जंगल महाल' के महाश्मों के चैम्बर खोल कर जांच रहे अपने गुरुदेव पंत जी मुंह अँधेरे साइकिल से निकलते और सांझ ढले लौट आते।  एक बार सांझ के झुटपुटे ढलान पर तेज़ी से पाइडल मारते इतनी तेज़ी से उतरे कि पगिआ के आर पार टाँगे फैलाए आराम कर रहे कोदैला (तेंदुए) से जा टकराए, कुदैलवा कूद के भागा जिधर सुझाया, और गुरू जी जब तक कुछ समझते अपनी रफ़्तार में नीचे दूर तक खड़भड़ाते चले गए। जब उन्हें राह में लेटा कुदैला नही सूझा तो गोलू क्या देखे होंगे, और अगर देखे भी रहे होंगे तो कहीं लिखे नही।

बड़ागाँव के गोलू तब उजियार भए जब सर्व विद्याओं की राजधानी वाली कड़क इल्मी मदाम की पैनी नज़र इन पर पड़ी। इन पर खुदे लेखों को देखते ही उन्होंने मज़मून की गहराई भांप ली। फिर जो एक बार पीछे पड़ीं तो सारा सिजरा जुटा कर ही मानीं। कई कई लिख और एक बड़ी जिल्ददार किताब उनकी शॉर्ट में दर्ज़ कर दीं। बकौल मदाम इन पर खचित दाएं से बाएं और बाएं से दाएं लिखी जाने वाली दो-दो प्राचीन लिपियों खरोष्ठी और ब्राह्मी में अंकित नाम दो हज़ार से भी तीन सैकड़ा साल तक पुरानी तवारीख के गवाह हैं। ये नाम यह भी बताते हैं कि इन्हे गढ़ने वाले शिल्पियों में स्थानीय और पश्चिमोत्तर प्रदेश (पेशावर-तक्षशिला के आस पास) के बाशिंदे शामिल रहे होंगे।  



मदाम के हिसाब से बांस या लकड़ी के गोल लठ्ठों पर लुढ़काकर ये गोलू बगल की जरगो नदी में, फिर, बांस-बल्ली के बेड़ो पर पैरा कर जरगो से गंगा, और आगे गंगा-गंगा दूर दूर तक ले जाते होंगे। फिर बनते होंगे इनसे पत्थर के खम्भे, पटाल, मूर्तिया वगैरह।

मदाम की मानें तो अशोक के स्तम्भ ऐसे कई गोलू एक के ऊपर एक खड़े कर के उठाए और ऊपर से प्लास्टर लीप कर घिस कर या दूसरे उपायों से चिकने बनाए गए। लेकिन काशी की इन विदुषी का यह मत खण्डित करने पर आमादा हैं देश की राजधानी दिल्ली की दिल वालियों/वालों के साथ कई और मठों के जोगी।  वे उस पुराने अभिमत को ही मण्डित करने पर तुले हुए हैं जिसके अनुसार ऐसा कोई सुबूत अभी तक सामने नहीं है जिससे  बहुधा चुनार के बलुआ पत्थर के अशोक के स्तम्भ एक ही शिला से गढ़े (एकाश्म या मोनोलिथिक) मानने की पुरानी लीक यूं ही छोड़ दी जाए। खलीफा भी उन्हीं के पाले में खड़े नज़र आए।



इतने बड़े बड़े विद्वानों के बीच अपनी क्या बिसात लेकिन दोनों पाला तौलते हुए निदान सामने रखा -

"फैसला, कोई ऐसा मुश्किल भी नहीं लगता। दो चार स्तम्भों का एक्स रे हो जाए तो दूध का दूध पानी का पानी होते देर ना लगे।"

खलीफा ने मुंह फुला कर मूडी हिलायी - "क्या बात करता है तुम भी। दिमाग खराब हो गया है। अशोक जी का स्तम्भ ऐसा ही 'मोनोलिथिक' दिखाता है।"



हमारे बीच चल रही मगज मारी सुनने बड़े बड़े ओहदेदार मय लाव-लश्कर और राहगीर भी आ जुटे।  उन्ही में से देर से हमारी बातें सुन रहा गाँव का लड़का बिना बुलाए ही बीच में कूद पड़ा -

"एही गोल पथला के नाप के केतना तो कोल्हू मिलता है गाँव-गाँव में।  बूढ़-पुरनिया बतावैं ले ईख-तेल पेरात रहा इनमें। होए ना होए ई पथला ओही कामे आवत रहा।"

उस्ताद ने खलीफा की और सवाल उछाला - "अच्छा अगर अइसन हौ तो ई बतावैं सर ! कि ईख से रस पेराई ओ सरसो-तिल के तेल पेरै क काम कब शुरू भइल ? "

इस सवाल ने बात का रुख ही बदल दिया। खलीफा का हाथ सफाचट कपार ख़बोरने लगा। उस्ताद अपने दांव पर मुस्काएं। कुछ देर टिप्पस लगाने के बाद सबने मान लिया - सवाल भारी है, सही जवाब तलाशने से पहले लाइब्रेरी में घंटों नहीं, कई कई दिन, रियाज़ लगाना पडेगा।

------ क्रमशः