Monday, January 24, 2011

अक्स निहारा करते थे


अक्स निहारा करते थे

राकेश तिवारी 

आदमकद शीशे में अपने अक्स निहारा करते थे,  
अपने ही कमरे में बैठे बहुत बड़े से लगते थे. 
 नाम बड़े ओ ओहदे ऊंचे नेम प्लेट पर सजते थे,  
ब्रासो से चमका कर उनको लकदक लकदक रखते थे. 

 अपने को ही देख-देख कर आत्ममुग्ध से रहते थे,  
 दुनिया में अपने जैसा वे नहीं किसी को सहते थे. 
  उनके कमरे में जो आता ऐंठे  उससे रहते थे.  
 जाने किस दुनिया में अपनी हर दम खोये रहते थे. 

 समझा करते इस आलम में मैं ही सबसे काबिल हूँ, 
 मैं ही सबसे सुन्दर हूँ, मैं ही सबसे बलशाली हूँ.

 मेरे जैसा कौन दूसरा, मैं ही बड़ा सयाना हूँ,
 धीर-वीर मैं सबसे न्यारा, मैं ही जग का मालिक हूँ.  
कमरे से बाहर निकले तो थोड़ा सा कुछ पता चला, 
रूतबा-पानी  अपना सारा तनिक-तनिक सा सरक चला.

सड़क चल रहे लोंगों में थोड़ा सा कद में फरक पड़ा,
अपने जैसे औरों से भी धीरे-धीरे सबक पड़ा. 
अपना गली मोहल्ला निकला किसी ने घूम के ना देखा,
गैर शहर में पहुँच गए तो कोई नहीं पहचान सका. 

आसमान के तारों में लाखों की भीड़ लगी देखी, 
माघ नहाते लोगों में बड़े बड़ों की गति देखी.

बरस रहे बादल के आगे एक बूँद की ज़िद समझी, 
जब पहुंचे सागर तट पर एक लहर की ज़द समझी.
जब चले दियारों से होकर तब अपनी परछाई देखी,
खुले हुए रेगिस्तानों में बालूचर की वय देखी.

बर्फीले विस्तारों में तन मन की हद समझी,
बहुत पुराने पन्नों में सम्राटों की अति-गति समझी,
ऋषियों-मुनियों के तप की भी सीमाएं समझीं,
माटी के माटी में मिलने की अंतिम पारी समझी. 

बड़े जतन से जान सके मैं कितना अदना बौना हूँ.
यह दुनिया तो बहुत बड़ी है इसमें कितना छोटा हूँ.
अनत काल तक इस धरती  पर नहीं न रहने वाला हूँ. 
समय एक आ जाने पर मैं भी चलने वाला हूँ. 

माप कभी ना अपनी ही कमरे के भीतर मिलती है.
चेहरे की पहचान कभी क्या शीशे में हो सकती है. 
कितना भी कोई सुन्दर, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली हो,
अंतिम बार सभी की अर्थी एक तरह से उठती है. 
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16-24 January 2011

Thursday, January 20, 2011

भोर में आँख खुली


भोर में आँख खुली

राकेश तिवारी 

भोर में आँख खुली, 
खुमारी नहीं टूटी,
अलसाया करवटें बदलता हूँ.
पड़ा-पड़ा पास-पड़ोस टोहता हूँ. 

सूरज उजाला उगलता ऊपर आने लगा,
दूर कहीं तीतर टहका,
कुछ देर सन्नाटा,
डुखी ने चुप्पी तोड़ी.
आस-पास कंटीली झाड़ियाँ, दूर तक फैली,
चारों ओर से घेरती कैमूर की पहाड़ियां,
परत-दर-परत धरे, समतल बड़े पत्थल, छाया दार.
फैला बियाबान, इधर उधर ढलता,
पीली-लाल माटी का झाड़ी भरा जमाव,
एक दो गयार-भैंसवार, सौ-पचास ढोरों के साथ, 
आज की अणु-युगीन दुनिया, सभ्यता असभ्यता (?) से
बहुत दूर,
जहां हम कुदरत के बहुत करीब होते हैं,
छोटा सा ख़ेमा डाल लिया है.

मटमैले तिरपाली वितान पर भटकती नज़रें,
कुछ नन्हे सूराखों से छनती रोशनी,
मन का मकौड़ा रेंग रहा है.
सुबह से शाम तलक
एकलय काम, 
आदिम मानव के चीन्ह तलाशता हूँ.
पहाड़-पहाड़, कगार-कगार,
कांटेदार करवन के झाड़,
उलझे बांस, खैर, पलाश, और 
बैर के जंगलात,
मकोइया, अईलाइन* की लतरें,
दामन थाम लेती हैं.
गलगला के चटख पीले और टेसू, सेमल के
खूब लाल, खूबसूरत फूल,
चौकड़ी भरते कोटार,*
नील-साम्भर के जोड़, मोह लेते हैं.
बौराए आम, महुए और पिआर* की
मादक गमक 
जो एक बार भिन जाए,
अंतर्मन की कली, 
रहती है आजीवन रस भरी.

बेहद थकान भरी शामें,
पोर-पोर दरकते, 
शिथिल तन, आराम माँगता.
लेकिन मन ? बेतरह विकल.
सुबह की ताज़ा तन्हाइयों में भी पागल दौडें,
दिन भर की 
समय-संधियों के बीच शेष पलों तक में 
सिहराती पैठती आती हूँकें,
जैसे सुनहरी सोन-रज का नज़ारा निरखते, चलते,
मोटे 'सोल'* को बींध कर 
बेल का नोकीला काँटा, गहरे उतर जाए,
या, फिर, किसी नाज़ुक परिंदे के जिस्म में,
किसी बैगा की कमान से छूटा तीर, धंस जाए.
आज इस वन,
कल उस, 
खोह-कन्दरा-वादी में डेरा डाले, 
कहाँ क्या तलाश रहा हूँ?
कैसे कैसे भटक रहा हूँ?
सारे सारे दिन 
ये उनींदी पलकें कैसी?
भोर में नींद खुली
खुमारी नहीं टूटी. 
अलसाया करवटें बदलता हूँ.
पड़ा-पड़ा पास-पड़ोस टोहता हूँ. 
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* अईलाइन = सोनभद्र जिले में एक लतर का स्थानीय नाम;  कोटार = हिरन; पिआर = चिरौंजी, 'सोल' = जूते की तली, आत्मा 
1980

Wednesday, January 5, 2011

थोड़ा सा लिख लेता हूँ


थोड़ा सा लिख लेता हूँ

राकेश तिवारी

ताल किनारे चुप चुप  जब कंकडियाँ फेंका करता हूँ,
सुधियों के सागर-तट पर जब लहरें तकता रहता हूँ/

घने वनों के अन्दर जब मैं डेरा डाले रहता हूँ,
खुशियों के सैलाब समेटे छलका-छलका पड़ता हूँ/

खुले गगन के नीचे जब मैं खाट पे लेटा रहता हूँ,
आसमान में सजे हज़ारों जुगनू देखा करता हूँ/
मार बुडुक्की गहरे जल में तल पर तिरता रहता हूँ,
राग लगा कर जब मैं थोड़ा बहका-बहका फिरता हूँ/
तब थोड़ा सा लिख लेता हूँ// 


बगियों में जब चारों ओर महुआ  जोर गमकता है,
टेसू जब सारे जंगल में अंगारों सा खिलता है/

शाम ढले सूरज पछांह को रंगों से भर देता है,
चन्दा जब हिम-सजी श्रेणियाँ चांदी से ढक देता है/


पसरी घाटी के भीतर जब घना कुहासा लगता है,
सुर्ख लाल फूलों का गुच्छा जब बुरांस पर सजता है/ 

चकले-चपटे पाहन पर झरने की धुन जब सुनता हूँ,
बँसवारी में उलझ-उलझ चलती बयार में रमता हूँ/
तब थोड़ा सा लिख लेता हूँ// 

भाव घनेरे होने पर जब आँखें नम कर लेता हूँ,
दर्द सहा नहि जाता है जब पीड़ा से अकुलाता हूँ/

आधी रात में उठ कर जब सूने में सोचा करता हूँ,
निपट अँधेरे बैठ अकेले उनका सिजदा करता हूँ/

चारों ओर लगी अगियन में जब मैं तपने लगता हूँ,
दुखिया मन की आहें जब मैं अपने अन्दर सुनता हूँ / 

 भरी  रात मैं नदिया में जब किश्ती ले कर चलता हूँ,
श्मशान की सतत आग पर ध्यान गडाए रहता हूँ/
तब थोड़ा सा लिख लेता हूँ// 

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03 January 2011