Thursday, December 19, 2019

'भकुआ अस ताकैं'

'भकुआ अस ताकैं '  

कबौ बात आज़ादी की, 
कबौ गरीबी का नारा,
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई 
बने किन्हीं कै हरकारा। 

चौकी चढ़ि-चढ़ि चली चौकड़ी 
कबौ फकीरी का नारा,
जनता आवत है भागौ अब,  
पूरन इंकलाब आवा।  

फतवा ज़ारी होय रहा है,
तालिबान आवै वाला, 
सारी दुनिया सर कइकै,
'आज़ादी' लावै वाला।  

कबौ किसानन की बातैं, 
औ कबौ रामनामी वाला,
कदाचार मा आग लगावैं 
रामराज आवै वाला।  

भकुआ अस हमहू ताकैं, 
जस देखैं  वैसै भाखैं, 
सूधयो थ्वारा सजग रहैं 
सूधे का मुंह कुत्ता चाटै !  

न यै सीधे ना वै सीधे, 
दुइ पाटन बीच पिसैं सूधै।    

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Thursday, December 5, 2019

चुरुक वाले फॉरेस्ट बँगले में


Rashmi Prakashan tagged you in a post: "https://amzn.to/2On5Tq0 चुरुक वाले फॉरेस्ट बँगले में लौटकर भी सभागार में चल रही चर्चा ही चलती रही। अंजोरिया रात में खुले में बिछे बिछावनों पर अध-लेटे बैठे साथियों में अब बात होने लगी वनवासी लोक संस्कृति और परम्पराओं को बचाने के मुद्दे पर। ‘जो अगर सब लोग आधुनिक तौर-तरीके और शिक्षा ही अपनाने लगेंगे, तब आंचलिक संस्कृति के तत्त्वों का क्या होगा? इस आपा-धापी में तो सब कुछ बदल-बिसर जाएगा। कैसे सँजोया जा सकेगा, अपनी इतनी पुरानी और समृद्ध परम्परा को?’ ‘हाँ बात तो साँची कही आपने। मगर हमरे विचार से तो ‘वेस्टर्न कल्चर’ का लहरा इहाँ से दूरै रहै, एही में हमार भला होइ। हम्मन के हमरे ही हाल पर रहै दिहल जाय तब्बै बचल रहि पाई हमार संस्कृति। कहाँ हमरे वन की शुद्ध हवा और कहाँ रापटगंज की किचिर-पिचिर। बस चलै तो एहर अइबै न करी। बाहर वाले लोगन के इहाँ आवै-बसै के जौन रेला चलल हौ ना! उहै सब समस्या के सोरे में समाइल हौ।’ ‘तोहरे सब कै मानल जाय तब तो वनवासी अजायबघर के जनावर बन के रहि जइहन। जे जइसन, जहाँ रहत हउवैं, दीन-हीन, ओही दशा में बनल रहिहन। शहरिया लोगन एनहन के देखै-सुनै आवै लगिहन। जब्बै पइहन डरपेटै में कउनौ कसर न रखिहन। अइसन संस्कृति ले के, ओकर करिहन का, ओढिहन क बिछहियन?’ तरह तरह के पक्ष-विपक्ष के तर्क। ‘अरे भाई, आप लोग ये क्यों नहीं समझ पा रहे कि संस्कृति और परम्परा कभी स्थायी भाव में नहीं रहते। पोखरा के पानी जैसे नहीं, नदी के बहते पानी जैसी होती है संस्कृति। नदियाँ सदैव गतिवान-प्रवाहित रहती हैं नये शुद्ध जल से परिपूर्ण, जगह-जगह के पेड़-पौधों धरती के रस को समेट कर। नये-नये रंग बदल कर आगे बढ़ती हुई। उसी तरह संस्कृतियों का प्रवाह भी चलता है नये ज़माने, परिस्थितियों और आबो-हवा के साथ, नये चलन और जरूरतों के हिसाब से नये रूप धरता हुआ। दूसरी संस्कृतियों और परम्पराओं के संपर्क में आने पर मतलब की बातें अपनाते हुए। लेकिन इससे किसी संस्कृति का कुछ घट नहीं जाता। हम सब कितना ही पैंट-कमीज पहन कर, टाई लगा कर चल लें, रहेंगे हिन्दुस्तानी ही।’ ‘ई बतिया तो सहियै कहला तू! संस्कृति की सबसे सरल परिभाषा हो सकती है राज कपूर वाले उसी गाने से- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।’ ‘बिल्कुल सही। यही तो समझावत रहली एतना देर से। बिल्कुल्लै बदलै के ना कहत हई औ केहू चाहै तब्बौ पुरहर न बदल पायी। जे के कहै लें-सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय। अब बोली-बानी, गाना-बजाना, सोच-संस्कार जवन कुछ खूनै में बसल बा, ऊ तो जनम-जन्मान्तर ले लगलै रही साथै-साथ। रह गइल बात बाहर-भित्तर वालन कै तो ओहू में जियादा दम नहीं। सबके पुरखे कब्बौ-न-कब्बौ वनवासी, अहेरी, गड़ेरिया रहलैं ओकरे बादै में कुछ और भये। और फिर, के कहाँ से कहाँ आइल-गइल, हज़ारन बरस में, एकर लेखा-जोखा तो चित्रगुप्त महाराज के लग्गयौ ना मिली। जे जहाँ जनम ले के पलल-बढ़ल हौ ओहीं कै धरती-अकाश पर ओन कर साझा दावा रही। ई अलगउजी-अलगउजा हेरै में केहू कै भला ना होई।’ ‘भाय एतना फिलॉसफी हमरे कपारे में नाहीं समात। हम्मै तो एतनै समझ में आवा ला कि औरे इलाका से आवै वाला ढेरै कमात हउवन और इहाँ वाले दिन पर दिन...।’ इससे आगे की बात रामलाल के भोजन परोसने की मुनादी में दब गयी। गहराती रात के साथ उनींदे हो चले कि वहाँ से उठ कर बरामदे में लगी पाँत में बैठने के साथ इस अन्तहीन लग रहे समापन-सत्र पर विराम लग गया। अगली सुबह वापस चलते समय परिसर, बँगले, ऊँचे-ऊँचे गाछ, फॉरेस्ट गार्ड और चौकीदार पर हसरत भरी नजर फेरते सोचते हुए चल दिये- जिन्दगी रही, तो फिर मिलेंगे। संस्मरणात्मक कृति 'पवन ऐसा डोलै' (272 पेज) प्राप्त करने के लिए- 1). 275 रुपये पेटीएम करें फ़ोन नंबर - 8756219902 2). या फिर 275 रुपये इस खाते में जमा करें Rashmi Prakashan Pvt. Ltd A/C No. 37168333479 State Bank of India IFSC Code- SBIN0016730 दोनों में से किसी भी तरह से पैसे भेजने के बाद अपना पता 08756219902 पर भेजें (व्हाट्सएप या संदेश) डाक ख़र्च नहीं लिया जाएगा।". You can choose if you want to add it to your timeline.
Rashmi wrote: "https://l.facebook.com/l.php?u=https%3A%2F%2Famzn.to%2F2On5Tq0&h=AT01JlovI1xXj94HndzscoWKYegUuali7o5LTk_lhEkckJuEgsdnsa69Dazdw7njzjw7g3CXUP3UkG5MK3F-sDefSZuE8NGt8HLxoIB_l5UWVuSF44ZNgrtQJ0C1gs0qn5F-NV17_egRr7CSsMMzPK95REY चुरुक वाले फॉरेस्ट बँगले में लौटकर भी सभागार में चल रही चर्चा ही चलती रही। अंजोरिया रात में खुले में बिछे बिछावनों पर अध-लेटे बैठे साथियों में अब बात होने लगी वनवासी लोक संस्कृति और परम्पराओं को बचाने के मुद्दे पर। ‘जो अगर सब लोग आधुनिक तौर-तरीके और शिक्षा ही अपनाने लगेंगे, तब आंचलिक संस्कृति के तत्त्वों का क्या होगा? इस आपा-धापी में तो सब कुछ बदल-बिसर जाएगा। कैसे सँजोया जा सकेगा, अपनी इतनी पुरानी और समृद्ध परम्परा को?’ ‘हाँ बात तो साँची कही आपने। मगर हमरे विचार से तो ‘वेस्टर्न कल्चर’ का लहरा इहाँ से दूरै रहै, एही में हमार भला होइ। हम्मन के हमरे ही हाल पर रहै दिहल जाय तब्बै बचल रहि पाई हमार संस्कृति। कहाँ हमरे वन की शुद्ध हवा और कहाँ रापटगंज की किचिर-पिचिर। बस चलै तो एहर अइबै न करी। बाहर वाले लोगन के इहाँ आवै-बसै के जौन रेला चलल हौ ना! उहै सब समस्या के सोरे में समाइल हौ।’ ‘तोहरे सब कै मानल जाय तब तो वनवासी अजायबघर के जनावर बन के रहि जइहन। जे जइसन, जहाँ रहत हउवैं, दीन-हीन, ओही दशा में बनल रहिहन। शहरिया लोगन एनहन के देखै-सुनै आवै लगिहन। जब्बै पइहन डरपेटै में कउनौ कसर न रखिहन। अइसन संस्कृति ले के, ओकर करिहन का, ओढिहन क बिछहियन?’ तरह तरह के पक्ष-विपक्ष के तर्क। ‘अरे भाई, आप लोग ये क्यों नहीं समझ पा रहे कि संस्कृति और परम्परा कभी स्थायी भाव में नहीं रहते। पोखरा के पानी जैसे नहीं, नदी के बहते पानी जैसी होती है संस्कृति। नदियाँ सदैव गतिवान-प्रवाहित रहती हैं नये शुद्ध जल से परिपूर्ण, जगह-जगह के पेड़-पौधों धरती के रस को समेट कर। नये-नये रंग बदल कर आगे बढ़ती हुई। उसी तरह संस्कृतियों का प्रवाह भी चलता है नये ज़माने, परिस्थितियों और आबो-हवा के साथ, नये चलन और जरूरतों के हिसाब से नये रूप धरता हुआ। दूसरी संस्कृतियों और परम्पराओं के संपर्क में आने पर मतलब की बातें अपनाते हुए। लेकिन इससे किसी संस्कृति का कुछ घट नहीं जाता। हम सब कितना ही पैंट-कमीज पहन कर, टाई लगा कर चल लें, रहेंगे हिन्दुस्तानी ही।’ ‘ई बतिया तो सहियै कहला तू! संस्कृति की सबसे सरल परिभाषा हो सकती है राज कपूर वाले उसी गाने से- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।’ ‘बिल्कुल सही। यही तो समझावत रहली एतना देर से। बिल्कुल्लै बदलै के ना कहत हई औ केहू चाहै तब्बौ पुरहर न बदल पायी। जे के कहै लें-सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय। अब बोली-बानी, गाना-बजाना, सोच-संस्कार जवन कुछ खूनै में बसल बा, ऊ तो जनम-जन्मान्तर ले लगलै रही साथै-साथ। रह गइल बात बाहर-भित्तर वालन कै तो ओहू में जियादा दम नहीं। सबके पुरखे कब्बौ-न-कब्बौ वनवासी, अहेरी, गड़ेरिया रहलैं ओकरे बादै में कुछ और भये। और फिर, के कहाँ से कहाँ आइल-गइल, हज़ारन बरस में, एकर लेखा-जोखा तो चित्रगुप्त महाराज के लग्गयौ ना मिली। जे जहाँ जनम ले के पलल-बढ़ल हौ ओहीं कै धरती-अकाश पर ओन कर साझा दावा रही। ई अलगउजी-अलगउजा हेरै में केहू कै भला ना होई।’ ‘भाय एतना फिलॉसफी हमरे कपारे में नाहीं समात। हम्मै तो एतनै समझ में आवा ला कि औरे इलाका से आवै वाला ढेरै कमात हउवन और इहाँ वाले दिन पर दिन...।’ इससे आगे की बात रामलाल के भोजन परोसने की मुनादी में दब गयी। गहराती रात के साथ उनींदे हो चले कि वहाँ से उठ कर बरामदे में लगी पाँत में बैठने के साथ इस अन्तहीन लग रहे समापन-सत्र पर विराम लग गया। अगली सुबह वापस चलते समय परिसर, बँगले, ऊँचे-ऊँचे गाछ, फॉरेस्ट गार्ड और चौकीदार पर हसरत भरी नजर फेरते सोचते हुए चल दिये- जिन्दगी रही, तो फिर मिलेंगे। संस्मरणात्मक कृति 'पवन ऐसा डोलै' (272 पेज) प्राप्त करने के लिए- 1). 275 रुपये पेटीएम करें फ़ोन नंबर - 8756219902 2). या फिर 275 रुपये इस खाते में जमा करें Rashmi Prakashan Pvt. Ltd A/C No. 37168333479 State Bank of India IFSC Code- SBIN0016730 दोनों में से किसी भी तरह से पैसे भेजने के बाद अपना पता 08756219902 पर भेजें (व्हाट्सएप या संदेश) डाक ख़र्च नहीं लिया जाएगा।"

पुस्तक के बारे में लेखक का कहना है -

Rakesh Tewari
Published by Rakesh Tewari21 mins
रश्मि प्रकाशन लखनऊ
( पुस्तक के बारे में लेखक का कहना है -
जब जब मौका बना, बार-बार सोनभद्र, मीरजापुर और चंदौली जिलों में डेरा डाल कर शिला-चित्रों, मन्दिरों-मूर्तियों, किलों वगैरह का लेखा जुटाने के साथ ही सोन, रेणु, रिहन्द और बेलन की घाटियों, घाटों, वनों और गाँवों की खाक छानते, स्थानीय लोक-कथाओं-गीतों, बोली-बानी का रस-पान करता रहा। इस बीच निर्जन कुदरती दामन की तनहाई में सुकून पाने के नशे में, देखे-सुने और संवेगों-संवेदानाओं को लिख कर संजोने के चस्के के चलते यह वृत्तांत लिखा, अपनी 'भाखा' में- इस आशय से कि जिन आम लोगों की कमाई से ताजिदगी पगार पाते रहे, उन्हें भी तो पता चले कि उसका हासिल हिसाब क्या रहा।)
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रफ्तार से भागती रेलगाड़ी खटाखट चोपन की ओर बढ़ी जा रही थी। कुँवर सामने की बर्थ पर खर्राटे भर रहे थे। किन्हीं साहबान ने अचानक डिब्बे का दरवाजा खोल दिया, गलन भरी हवा का झोंका एकबारगी भीतर घुस आया। कम्बल-रजाई में लिपटी सवारियाँ गुड़मुड़ा कर गठरी बन गयीं। स्लीपिंग-बैग की चेन मुँह तक चढ़ा कर मैंने करवट बदली। आँखों में नींद नहीं उतर रही थी। उत्तरी विंध्य का यह इलाका मेरा बड़ा प्यारा मुकाम रहा है। एक बार फिर उधर बढ़ते हुए पुरानी यादें बरसाती बादलों जैसी घुमड़ती चली आ रही थीं।
बीस बरस की उमर में, 1973 की ऐसी ही एक ठिठुरन भरी आधी रात में, चलते ट्रक के डाले पर सिकुड़े हुए हम रह-रह कर कम्बल लपेटते किसी तरह सर्दी झेल रहे थे।
थरथराती शीत-लहरी से परलोक सिधारने वालों की खबरें रोज ही अखबारों में पढ़ने के बाद भी आवारा हवा-सा घूमने का नशा तब भी माथे पर चढ़ कर बोल रहा था। तैयारी में लगा, तो पंद्रह बरस के अजय भी साथ लग लिये। सर्दी का हवाला देकर उन्हें बरजने की बहुत कोशिश की - ‘बड़ी ठंड है, ऐसे में तुम कहाँ चलोगे, जाओ माँ से पूछ कर आओ।’

Wednesday, November 20, 2019

' अनजान मत बनिए !!'

' अनजान मत बनिए !!'
18.11.2019

क्या ऐसा हो गया, बतला !
कि यूँ मायूस क्यों हुए !!

छुपा रहे हैं आप जो !
कहे बिना भी ना छुपे !!

रहे चुपचाप ओ गुमसुम !
कि खामोशी बहुत बोले !!

ये मंज़िल है नहीं तेरी !
नहीं ठहरें चले चलिए !!

कि लम्बी हैं बहुत राहें !
यूँ आहत हो नहीं रुकते !!

ठिकाने मिल ही जाएंगे !
भरोसा आप पे रखिए !!

बहुत है कीमती हर पल !
कि रसिए डूब कर रमिए! !!

कि सुन कर टेर ये जगिए !
कि यूँ अनजान मत बनिए !!
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Monday, November 4, 2019

नव ऋतू,

Rakesh Tewari
Published by Rakesh TewariSeptember 23
नव ऋतू,
पग नान्हें,
बढ़ा रही,
धरती हरियाली,
छाय रही।
कांस खिले,
पाँतिन
पाँतिन,
बगुला पांखी
सिहराय रही।

आया है,

Rakesh Tewari
Published by Rakesh TewariSeptember 29
आया है,
नव रंग लिए,
नव कुसुम लिए,
रस गमक संग,
मधु पाग लिए।
रीझो इस पर,
रच लो,
सज लो,
भर कंठ छको,
घन नेह लिए।

पहिला कोहरा,

01/10/2019 

पहिला कोहरा, ओदी ओस,
झुरमुर तलुवा, लागै भोर !

'तार-तार हो सरक गयी'

Rakesh Tewari 31. 10.2019

'तार-तार हो सरक गयी'

सोचता रहा,
पग, धरते-बढ़ते,
कंकरीली पथ-पथरी,
भोथराय गयी ।

तट पर आन लगी,
भावों वाली बहिया,
गतिहीन हुई।
झप झप करती
सुख-दुःख ङोलनी, ठहरी,
लहरें, समभाव भईं ।

रसते-रमते,
हो चले परे,
उलझे फन्दों से दुनियावी।
गड़ने लागी,
हलकी हलचल से ही लहरें
तटबन्ध तोड़ उफनाय चलीं।
बड़ा वेग धर घन आयी .
कोमल मन पर चढ़ी यवनिका,
तार तार हो सरक गयी।।


भवसागर पार पँवरते बहते,
झंझावातों से जूझ रही ,
प्रबल, मोह-माया में,
सहसा, तलवों में नरम दूब
सहसा बढ़ती नेह धार, फिर,
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'काश: मशगूल रह पाते !'

Rakesh Tewari 03.11.2019

'काश: मशगूल रह पाते !'

अपने अपने हिस्से की
तवारीख तलाशते,
दुनिया जहाँ में,

अफ्रीकी खित्तों सेद्वीपोंमहाद्वीपों के,कोने अतरों तक,हिज्जे हिज्जे में बँटने कीजद्दोजहद में।

अपनी अपनी
अलग पहचान बनाने की
बेमशरफ़ कोशिश में
खानदानी, मज़हबी,
भाषा-बोली,
तहज़ीबी 'पावर ज़ोन;
बनाने की
मृग मरीचिका में।

ज़ाहिरन,
जाने-अनजाने
फंस जाते हैं,
फ़र्ज़ी फ़सानों के
नारों वाली
फसादी फेहरिस्तों,
नामालूम सी
तदबीरों तकरीरों में।

इन्हीं फितरतों का
फायदा उठा कर,
बहका कर,
लोग जुट जाते हैं
बेजा ताकत बटोरने,
अपने ही कुल, कुनबे,
मुल्क पर
हुकूमत करने में।

आखिरकार,
हासिल नहीं होता
कुछ भी, सिवा
आपसी सिर फुटौवल
मारा मारी, जंग और
घुप्प अंधी गली में
धंसते हुए,
गुम हो जाने के।

काश !
हम पहुँच पाते उन,
मुकामों तक,
बेहतर रास्तो और
उसूलों के दम पर
कुदरती दस्तूर पर,
मशगूल रह पाते,
आपसदारी की बरकरारी में।
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कहाँ छुपातीं हैं !!!

Published by Rakesh Tewari
· July 4 2019 

कहाँ छुपातीं हैं !!!

घिसी पुरानी
पगियों पर
पगध्वनियाँ
सून पड़ती हैं ।
सजे संजोए
ताखों पर
छवियाँ उनकी
दिख जाती हैँ ।

ढेरों खुशियां,
मस्त-मस्तियाँ,
कितनी सुधियाँ,
भरी झोलियाँ,
पलट-पलट,
सिहराती आतीं,
आतुर लालायित,
कर जातीं हैं।

बीती बतियाँ,
गली, मोहाल,
दरवाज़ों की,
धुंधली तख्ती,
नाना नानी,
बाबू अम्मा,
कितनी बातें,
फिर फिर आतीं हैं।

पीली पड़ती
फोटो वाली,
छवियाँ धुंधली,
बंद झरोखों से,
आ आ कर,
झांका करतीं,
मन ही मन,
टहला करतीं हैं।

संगी साथी,
रिश्तेदारी
शहर वही,
वही, कालोनी,
चहकन टहकन,
तोतों वाली,
बालकनी में,
दिखती हैं।

पोर्टिको के
झूले पर,
पेंगों वारी,
बगिया प्यारी,
तलवों में ज्यों
दूब सुहाती,
अनायास,
आ जाती है।

क्या क्या, कितनी
जीवन-थाती,
लुकाछिपी
आती जाती,
बहुत कहीं,
कुछ नहीं कहातीं,
पर, छज्जों पर,
कहाँ छुपातीं हैं !!!


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  • Rachana Misra सचमुच.
    1
  • Gurucharan Singh Sabharwal Purani yaden taja hone ka adbhut chitran
    1
  • Ravi Tiwari khush raho
    1
  • Prem Chand Pandey अतीत की मधुर स्मृतियों का भावपूर्ण चित्रण
    1
  • Ramakant Singh पूरी कहानी कह दी आपने जीवन की
    सादर प्रणाम
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  • Subhash Tripathi बहुत प्यारी तस्वीर तरुणाई की💐💐कविता तो नॉस्टेल्जिया के पुराने महुए से टपकता महुआ जैसा 💜😍मादक या मानो अतीत के मधुवन से झरती रातरानी!😘🌸💐
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  • A Arsh अतिसुन्दर
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  • OM Dutt Shukla वाह सर, लाजवाब।
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  • Dinesh Kandpal भावपूर्ण सहजता
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  • Suresh Pandey बहुत बढ़िया सर
    यादें ताजा हो जाती हैं
    कभी किसी चित्र देख
    See More
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  • Neetu Tiwari वाह 🙏
    1
  • Sheela Roy Bahut acchi lagi Kavita ,
    Bahut dino bad padhi thanks Rakesh Bhai.
    1
  • Balram Yadav सुंदर सर
    1
  • Ramsewak Kailkhuri Atuttam sir. Sadar prnam
    1
  • Indu Prakash बहुत सुंदर
    1
  • Surender Kumar Atri अति सुन्दर सर
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  • Anita Misra Very nice
    1
  • Asim Chandel स्मृति की पगडंडियों में चलते हुए कौंध-कौंध जाती है वह अमिट छवियाँ जो हमें एहसास कराती हैं, इस सफर में तय किये गये उम्र के पड़ावों का.
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  • Susmita Pande Universal experience expressed beautifully.
    1
  • Kailash Parashar Very nice
    1
  • Sujeet Nayan Charan sparsh Sir🙏🙏
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