Sunday, February 9, 2014

चर्चा-ए-छतरमंज़िल

February 9, 2014 at 5:50pm

बीती  ७ और ८ फरवरी को लखनऊ में उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्त्व निदेशालय द्वारा आयोजित वर्कशॉप में छतरमंजिल के अभिलेखीकरण, सुदृढ़ीकरण, संरक्षण - परिरक्षण, विकास तथा भावी उपयोग के मुद्दों पर विचार मंथन चला।





गोमती किनारे स्थित छतरमंज़िल परिसर में सत्रहवीं शताब्दी के आखिरी और अठारहवीं शताब्दी के शुरआती दौर में बने दो महलों फरहत बख्श और छतरमंज़िल और उसके बाद उनमें जोड़ी गई ब्रिटिश और उसके भी बाद की इमारतों का समूह है। सबसे पहले यहाँ फ़्रांसीसी सिपहसालार क्लाउड मार्टिन ने फरहत बख्श नाम से मशहूर हुआ महल तामीर कराया,  उसके बाद नवाबों ने इसके बाज़ू में छतरमंज़िल की नायब इमारत बनाकर उस खित्ते को अलग ही पहचान से नवाज़ा। इन इमारतों में जाने का रास्ता तब आज के कमिश्नर आफिस की और से दक्षिण दिशा से नहीं वरन उत्तर दिशा में बहने वाली गोमती नदी के रुख से होता  रहा.




१८५७ में हुकूमते-ब्रितानिया के खिलाफ हिन्दुस्तानियों ने आज़ादी की जो पहली ज़ंग छेड़ी उसकी सबसे पुरज़ोर गवाह यह परिसर बना।  इस ज़ंग में अवध और अलहदा इलाकों के जाबाजों ने लखनऊ के लोगों के साथ मिलकर जो जौहर दिखाए उनकी गाथा से हर कौम-परस्त बखूबी वाकिफ हैं।  लेकिन वक्त ने उस वक्त अंग्रेज़ों का साथ दिया और ये इमारतें उनके कब्ज़े में आ गईं।  उन्होंने अपने हिसाब से इसमें खासी तब्दीलियां कीं।

आज़ादी की पहली जंग की जो अलख जलाई उसे जलाए रखा काकोरी काण्ड में फूटी तो कभी इलाहाबाद और दीगर जगहों पर बिस्मिल,अशफाकुल्लाह, आज़ाद जैसे दीवानों ने, बंशी की तान पर 'उठो सोने वालों सवेरा हुआ है' के तराने गाने वाले गांधी-सुभाष के चेलों ने, तब तक जब तक की मुल्क को आज़ादी ना हासिल हो गई।

इस बीच ब्रितानिया हुकूमत ने फरहत बख्श और छतरमंज़िल सहित लखनऊ की ख़ासमखास तवारीखी नायब इमारतों को 'प्रोटेक्शन' में 'नोटिफिकेशन' करके 'भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण' की देख-रेख में रख दिया। उसके बाद जब मुल्क आज़ाद हुआ तो इन इमारतों की किस्मत ने एक और पलटा मारा - देश में साइंस की बढ़ोत्तरी के लिए बनाई जा रही एक सिरमौर संस्था सी. डी. आर. आई. की लैब इसी में  बैठाई गई। उसके बाद इसमें लैबोरेट्री की ज़रूरतों के हिसाब से  नए इंतज़ाम और जुगाड़ बैठाने पड़े जिनके चलते  इमारतों को नए रंग और 'लुक' मिलते गए।



कहते हैं कि सी. आर. आई. ने इमारतों के रख रखाव के कामों में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की अनसुनी हुई तो १९६१ में इन्हे अपनी देखरेख से बेदखल कर दिया। लेकिन १९६८ में राज्य सरकार ने इन्हे अपने संरक्षण में ले लिया। अब कब्ज़ा तो रहा लैब वालों का और संरक्षण का ज़िम्मा राज्य पुरात्तव महकमे के कन्धों पर। पुरातत्व वाले इमारत में घुसने की इज़ाज़त भी लैब वालों से पाते। ऐसा साझा आखिर कब तक चलता। ऊब कर सूबे वालों ने  १९९२ में प्रस्ताव रखा कि हमें भी ऎसी जिम्मेदारी से बख्श दिया जाए। तब के आला अफसर आलोक सिन्हा जी ने अपनी भुवन मोहनी मुस्कान बिखेरते हुए  सलाह दी - 'इतनी भी क्या नाराज़ी, एक बार फिर से कोशिश कर के देखना चाहिए।' अनमने मन से कुछ कोशिश तो हुई लेकिन गाड़ी रही जहां की तहां।

पुरातत्त्व परामर्शदाता समिति की अगली बैठक में फिर एक बार यह मामला सुर्ख हुआ तो नए सिरे से सुगबुगाहट बढ़ी। नहीं कुछ तो प्राथमिक डॉक्यूमेंटटेशन की कोशिश की गई। फिर १९९८ के आसपास सूबे के पुरातत्त्व महकमे में इमारतों की देखभाल की ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे नायब सिंह साहब ने बताया कि सी. डी. आर. आई. परिसर में मल्टी-स्टोरी नई लैब बनाने की तैयारी चल रही है।  बस, इस सुराग ने एक नई पहल का सिलसिला शुरू किया। सद्रे महकमा सी. डी. आर. आई. के तब के निदेशक की चाय पीने पहुँच गया। बातो-बातों में उन्होंने खुद ही नयी लैब बनाने की चर्चा कि तो उन्हें बाअदब बताया गया की इस विरासत के आस-पास ऐसा करना वाज़िब ना होगा। इस ऐतराज़ पर वे थोड़ा नाराज़ हुए और मामला केंद्र सरकार को रेफर किया।

इधर पुरातत्त्व महकमे ने शासन स्तर पर अपने सेक्रेटरी शैलेश कृष्ण जी को सारी जानकारी दी तो उन्होंने भी मामले की नज़ाकत समझ ज़रूरी कदम उठाए। उधर भारत सरकार के साइंस से जुड़े मामले देखने वाले जॉइंट सेकरेटरी ने भी इस प्रकरण को वाजिब तवाज्जो दी, खुद मौके पर आए और मान गए कि इस परिसर में नयी इमारत खड़ी कराने का कदम विरासत के रख-रखाव के नज़रिए से ठीक ना होगा। आखीर में यह फैसला हुआ कि सी. आर. आई. की लैब जानकीपुरम में बनाई जाए।

इस बीच चर्चा चलने लगी खाली होने पर इन इमारतों और परिसर का रख रखाव, विकास और उपयोग कैसे किया जाए। पहला सवाल सामने आया इनके संरक्षण का जिसके लिए सबसे पहले रूचि ले कर सूबे के पर्यटन विभाग के महानिदेशक श्री रवीन्द्र सिंह ने रुढ़की के इंजीनियरों को बुलावा दे कर एक रिपोर्ट तैयार कराई। पुरातत्त्व विभाग वाले भी अपनी तईं बाहें भांजते तरह तरह की तैयारी करते और लैब वालों को जल्दी से जल्दी इमारते हाली करने के लिए कोंचते रहे। इस सब  जद्दो-जहद के बीच लैब का सामान जानकी नगर में बनी लैब में पहुंचता रहा लेकिन कब्ज़ा छोड़ने का वक्त अब भी नहीं बना।

फिर, हुआ ये कि २००२ में छतर मंज़िल का पोर्टिको कुदरती मार से धराशाई हो गया, मीडिआ ने इसे बड़ी ख़बरों में जगह दी, शहर के जागरूक बाशिंदों ने आवाज़ें बुलंद की. ओस सब के चलते वह निर्णायक मोड़ आया जब बतकरीबन चौदह बरस के लम्बे बनवास के बाद इनके असली वारिसों को हक़ मिलने के आसार बने।

फिर भी शायद अभी देर लगती अगर ऊपरी स्तर पर मा. मुख्यमंत्री जी भारत के मा. प्रधान मंत्री जी को इस बाबत ख़त ना लिखते।  इस ख़त ने इन तवारिखी इमारतों की तवारीख में एक मील का पत्थर लगाते हुए इन्हे दोबारा पुरातत्व महकमे को सौंपने का फरमान ज़ारी करा दिया।

लेकिन मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ।

फरहत बख्श और छतरमंज़िल का संरक्षण, परिरक्षण, विकास और उपयोग किसी एक महकमे के बूते की बात नही।  फिर भी, लेकिन इसकी धुरी तो पुरातत्त्व महकमे को ही रहना है। इन बड़े कामों को बेहतर से बेहतर ढंग से सम्भालने के लिए एक और सूबे के मा मुख्य सचिव की अगुआई में संस्कृति, पर्यटन और अन्य सरकारी महकमों के साथ वरिष्ठ नागरिक और संस्थाएं तो सामने आईं ही वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार के संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग ने भी पूरी मदद का भरोसा दिलाया। तय हुआ कि इन कामों की योजना बनाने से पहले इनसे से जुड़े सभी दावेदारों/ सरोकारियों को जुटा कर उनकी राय ले ली जाए जिससे एक सोची समझी ऎसी योजना बनाई जा सके जिससे सभी सरोकारी जुड़े रह सकें। इसी मकसद से पुरातत्त्व निदेशालय ने छतर मंज़िल के दरबार हाल में फरवरी ७-८, २०१४ तकएक वर्कशॉप (कार्यशाला) का आयोजन कराया। शुरू से ही इस अभियान से जुड़े सिंह साहब की कमान में महकमें की पूरी टोली ने इसकी सफलता के लिए जी जान लगा दी।




वर्कशॉप में दावतनामा मिला आला दर्ज़े के जानकारों के अलावा शहर के नामचीन और अन्य शहरियों, पत्रकारों, इंजीनियरों, सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को। उदघाटन कार्यक्रम में बाक़ी के काम छोड़ कर खुद सूबे के मा.मुख्य मंत्री, मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव सहित पधारे।  शहर की तवारीखी इमारतों और उनके सहारे पर्यटन को बढ़ावा देने का प्रकरण अपनी प्राथमिकताओं में शामिल बता कर इनके लिए हर सम्भव कदम उठाने का भरोसा दिलाया, शुरुआत के लिए ५० करोड़ की व्यवस्था कराने का ऐलान किया, फरहत बख्श और छात्रमंजिल के साथ गोमती की साफ़ सफाई व् तटीय विकास पर बल दिया, कार्यशाल में आये विषेशज्ञों से वायदा किया कि उनकी संस्तुतियों को लागू कराने की पूरी कोशिश की जाएगी, और छतरमंज़िल का दौरा कर आज की दशा का जायजा भी लिया। उनके आने से सभी सरोकारियों का हौंसला बुलंद हो गया।

कार्यशाल में प्रस्तुति करने वालों में आगा खान ट्रस्ट के रतीश नंदा, इंटैक के ए. जी. के. मेनन और दिव्य गुप्ता, लखनऊ के डाकटर ए चक्रवर्ती, पी. घोष, आशीष श्रीवास्तव, विपुल वार्ष्णेय और चद्र प्रकाश, कलकत्ता से आई नीता दास, बी एच यू के आईटी विभाग के डा. अनुराग ओहरी, डा. राजेश कुमार, जामिआ मिलिआ के एस एम् अख्तर, प्रोफ़ेसर नलिनी ठाकुर, डाक्टर प्रियलीन सिंह आदि ने अपने मन्तव्य प्रस्तुत किए जिन पर आई आई टी कानपुर के डॉ. ओमकार दीक्षित, शहर के भागीदारों में से प्रोफ़ेसर आई बी सिंह, जयंत कृष्ण, ज्ञानेस्वर शुक्ल, रवि भट्ट और रवि कपूर जैसे अध्येताओं ने भी विचार विमर्श किया। कार्यशाला की पूरी रिपोर्ट महकमा अलग से तैयार करेगा।

कुल मिला कर कार्यशाला में जो सुझाव दिए गए उनमें फरहत बख्श - छतरमंज़िल-परिसर को सांस्कृतिक-पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने, इसमे नगर और साइंस संग्रहालयों की स्थापना, १८५७ का प्रतीक संग्रहालय बना कर परिसर का नाम नवाब वाज़िद अली शाह के नाम पर रखने, १८५७ की आज़ादी की लड़ाई और काकोरी काण्ड पर फ़िल्म बनाने, होटल-होटल-कॅफेटेरिआ   खोलने, परिसर में पुरानी तर्ज़ पर बागवानी, कमिश्नर आफिस शिफ्ट कराकर लाल बारादरी तक की दृश्यवाली पर पड़ा कपाट हटाने जैसे सुझावों के साथ इन सभी सुझावों पर सम्यक विचार करने के लिए एक समूह या टास्क फ़ोर्स बनाने का सुझाव भी दिया गया।



गोमती की सफाई के बारे में सबसे मुफीद सुझाव रहा अख्तर साहब का जिसके मुताबिक़ कुडिया घात से ऊपर अगर एक बैराज बना कर गोमती नगर वाला बैराज हटा दिया जाए तो जहां एक तरफ शहर को पीने का साफ़ पानी मिल सकेगा वहीं दूसरी ओर बैराज का पानी छोड़े जाने पर नीचे के बहाव में नदी में गिरने वाले नालों का प्रदूषण आपो आप बह जाएगा।

आखिरी सेशन में सारे भागीदारों ने एक स्वर से इस प्रस्ताव को पास किया कि सबसे पहले अगली बरसात शुरू होने के पहले इन इमारतों की इमेरजेंसी रिपेयर करायी जाए वर्ना खुद ना खास्ता अगर इन्हे नुक्सान पहुंचा तो सारी राय बात बे मज़ा हो जाएगी।

कार्यशाला के सफल आयोजन के लिए आयोजको को ढेरम-ढेरसी बधाई।

साथ ही इतना और कि कार्यशाला में भागीदार खास-ओ-आम अपने अपने मुकाम पर चल दिए हैं ढेर सारे सुझावों की गठरी पुरातत्त्व महकमे के सदर सिंह साहब के सर माथे चढवा कर। अब संरक्षित स्मारकों/स्थलो के रख रखाव के लिए बाकायदा लागू अधिनियमों के परिप्रेक्ष्य में इन्हे अमली जामा पहनाने के उपाय करने में भी उन्हें और उनके साथियों को आप सबकी बड़ी ज़रुरत रहेगी।    

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