Friday, February 14, 2014

ज़िंदगी


ज़िंदगी

१. 
कितनी बड़ी ये ज़िंदगी, लगती रही कभी,
यूं चुटकियों में कट गई, कैसी अभी अभी।  

२. 
धूप-छाँव सी आयी, आकर चली गयी,  
ज्यों मूठी से रेत, सरकती चली गयी।  

३. 
ताल, बाग, तट, तुहिन, घास वो हरी,
खोए हुए देखा किए, कपूर सी उड़ी ।  

४. 
मुल-मुलाती आँख से, दुनिया तनिक दिखी,
कहीं रुकीं, सधी कहीं, पलकें ढुलक चलीं।  

५. 
मीठी लगी ऎसी कभी, मिसरी की हो डली, 
ऎसी लगी कभी वही, मिर्ची में हो पगी।  

६.
राग ओ मनुहार के, झूले पे झूलती,
मगन मन चलती रही, लहरों पे डोलती।  

७. 
सोचा नही वो वो घटी, जीवन की बानगी,
नान्हे में जो यारी जुड़ी, घाट पर लगी। 

८. 
आए ही थे, ठहरे नहीं, चलने की चल पड़ी,
कुछ सफे पलटे अभी, बाती ही चुक चली।  

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