Friday, February 7, 2014

2.9 रास्ता चलते हुए - सत्र दो

February 7, 2014 at 6:37pm


2.9  गोलू :   

चुनार सीमेंट फैक्ट्री के बगल से जाने वाला रास्ता ले गया 'बड़ागाँव' की उस खदान में जहां - जहाँ तहां पड़े हैं तराशे गए पत्थर के बेलनाकार 'गोलू'। सदियों से यहीं पड़े रहे किसी ने खबर नहीं ली। बाजू में ही देख परख गए कनिंघम बाबा की नज़र भी इन पर नहीं पड़ी।







इसी रास्ते आगे जंगल में 'जंगल महाल' के महाश्मों के चैम्बर खोल कर जांच रहे अपने गुरुदेव पंत जी मुंह अँधेरे साइकिल से निकलते और सांझ ढले लौट आते।  एक बार सांझ के झुटपुटे ढलान पर तेज़ी से पाइडल मारते इतनी तेज़ी से उतरे कि पगिआ के आर पार टाँगे फैलाए आराम कर रहे कोदैला (तेंदुए) से जा टकराए, कुदैलवा कूद के भागा जिधर सुझाया, और गुरू जी जब तक कुछ समझते अपनी रफ़्तार में नीचे दूर तक खड़भड़ाते चले गए। जब उन्हें राह में लेटा कुदैला नही सूझा तो गोलू क्या देखे होंगे, और अगर देखे भी रहे होंगे तो कहीं लिखे नही।

बड़ागाँव के गोलू तब उजियार भए जब सर्व विद्याओं की राजधानी वाली कड़क इल्मी मदाम की पैनी नज़र इन पर पड़ी। इन पर खुदे लेखों को देखते ही उन्होंने मज़मून की गहराई भांप ली। फिर जो एक बार पीछे पड़ीं तो सारा सिजरा जुटा कर ही मानीं। कई कई लिख और एक बड़ी जिल्ददार किताब उनकी शॉर्ट में दर्ज़ कर दीं। बकौल मदाम इन पर खचित दाएं से बाएं और बाएं से दाएं लिखी जाने वाली दो-दो प्राचीन लिपियों खरोष्ठी और ब्राह्मी में अंकित नाम दो हज़ार से भी तीन सैकड़ा साल तक पुरानी तवारीख के गवाह हैं। ये नाम यह भी बताते हैं कि इन्हे गढ़ने वाले शिल्पियों में स्थानीय और पश्चिमोत्तर प्रदेश (पेशावर-तक्षशिला के आस पास) के बाशिंदे शामिल रहे होंगे।  



मदाम के हिसाब से बांस या लकड़ी के गोल लठ्ठों पर लुढ़काकर ये गोलू बगल की जरगो नदी में, फिर, बांस-बल्ली के बेड़ो पर पैरा कर जरगो से गंगा, और आगे गंगा-गंगा दूर दूर तक ले जाते होंगे। फिर बनते होंगे इनसे पत्थर के खम्भे, पटाल, मूर्तिया वगैरह।

मदाम की मानें तो अशोक के स्तम्भ ऐसे कई गोलू एक के ऊपर एक खड़े कर के उठाए और ऊपर से प्लास्टर लीप कर घिस कर या दूसरे उपायों से चिकने बनाए गए। लेकिन काशी की इन विदुषी का यह मत खण्डित करने पर आमादा हैं देश की राजधानी दिल्ली की दिल वालियों/वालों के साथ कई और मठों के जोगी।  वे उस पुराने अभिमत को ही मण्डित करने पर तुले हुए हैं जिसके अनुसार ऐसा कोई सुबूत अभी तक सामने नहीं है जिससे  बहुधा चुनार के बलुआ पत्थर के अशोक के स्तम्भ एक ही शिला से गढ़े (एकाश्म या मोनोलिथिक) मानने की पुरानी लीक यूं ही छोड़ दी जाए। खलीफा भी उन्हीं के पाले में खड़े नज़र आए।



इतने बड़े बड़े विद्वानों के बीच अपनी क्या बिसात लेकिन दोनों पाला तौलते हुए निदान सामने रखा -

"फैसला, कोई ऐसा मुश्किल भी नहीं लगता। दो चार स्तम्भों का एक्स रे हो जाए तो दूध का दूध पानी का पानी होते देर ना लगे।"

खलीफा ने मुंह फुला कर मूडी हिलायी - "क्या बात करता है तुम भी। दिमाग खराब हो गया है। अशोक जी का स्तम्भ ऐसा ही 'मोनोलिथिक' दिखाता है।"



हमारे बीच चल रही मगज मारी सुनने बड़े बड़े ओहदेदार मय लाव-लश्कर और राहगीर भी आ जुटे।  उन्ही में से देर से हमारी बातें सुन रहा गाँव का लड़का बिना बुलाए ही बीच में कूद पड़ा -

"एही गोल पथला के नाप के केतना तो कोल्हू मिलता है गाँव-गाँव में।  बूढ़-पुरनिया बतावैं ले ईख-तेल पेरात रहा इनमें। होए ना होए ई पथला ओही कामे आवत रहा।"

उस्ताद ने खलीफा की और सवाल उछाला - "अच्छा अगर अइसन हौ तो ई बतावैं सर ! कि ईख से रस पेराई ओ सरसो-तिल के तेल पेरै क काम कब शुरू भइल ? "

इस सवाल ने बात का रुख ही बदल दिया। खलीफा का हाथ सफाचट कपार ख़बोरने लगा। उस्ताद अपने दांव पर मुस्काएं। कुछ देर टिप्पस लगाने के बाद सबने मान लिया - सवाल भारी है, सही जवाब तलाशने से पहले लाइब्रेरी में घंटों नहीं, कई कई दिन, रियाज़ लगाना पडेगा।

------ क्रमशः

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