Thursday, June 25, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय २. ८

May 30, 2015 at 9:44pm
पढ़ने को मिला तो यही विषय

बरसाती बयार के झकोरों और फोहारों के लहरे में जगतगंज ओ बड़की पियरी की खांटी बनारसी मण्डली - अभय, अजय, प्रकाश, दीदी, चच्चा ओ मम्मा, ओ जाने के, के, कुल नाम तो अब यादो नहीं रहा - कपारे पर गमछा, गले में माला, मुंह में पान गुलगुलाते, चल पड़े जरगो बंधे पर मौज मनावै। 

अपने राम भी सब के साथ वैन में सवार हो लिए उनके साथ। छोटे बड़े सबके अपने अपने गोल बन गए। हमारे ग्रुप में बी एच यूं में पढ़ रहे साथी और हमारी टोली के एक परिवार की दूसरे शहर से बी एच यूं में इंजीरिंग पढ़ने आयी रिश्तेदार, - बनारसियों के लहजे-लटके अंदाज़ती मेरे ही गैर बनारसी होने की पहचान कर बगल में आ बैठीं। बातों का सिलसिला चला तो कैम्पस, लाइब्रेरी, मधुबन और कैफ़ेटेरिआ, लड़के लड़कियों की हरकतों पर चटपटी चर्चा करते उनकी कौतूहल भरी आँखों में सहसा उठती चमक, सुन्दर-सौम्य चेहरे की दमक और हाव भाव ने ऐसा लुंभाया कि कब पार हुए नारायनपुर से आगे, कब बढे चुनार की राह पर, कब जमुनी बाजार से बाएं मुड़ कर नहर की पटरी पर चलते ४५ किलोमीटर का रास्ता तय कर के कब जरगो बंधे पर जा रुके, पता ही नहीं चला।    


कुछ साथी कमर में गमछा लपेटे बंधे में कूद दूर तक तैरते चले गए, कुछ किनारे पर ही पानी पटकने लगे, उधर दीदी की टोली ने बाटी चोखा का जुगाड़ बैठा कर राम भण्डार की मिठाई का डब्बा खोल सबको बांटने में लग गई।

बंधे के पास ही 'लोरिका का दरना' और 'सीताजी की कोहबर' की चर्चा सुन कर कुछ लोगों के साथ हम सब उधर निकल गए।  वहाँ जा कर घूम कर देखे  - छायादार शिलाओं की भीतरी सतह पर मानव आकृतियों और अल्पना डिज़ाइनों के आरेखन।  गयारों ने बताया - 'एह खोहे में लोरिका रहत रहा, ओ दुसरके में बियाहे के बाद सीता जी का कोहबर बनल रहा।' 


वहाँ से लौटे तो एक किनारे बैठ कर इंजीनियर साहिबा को अपनी पुरातत्त्व के पढ़ाई और पुरानी सैरों का ब्योरा सुनाते सुनाते प्रोफ़ेसर पंत के इस इलाके में फील्ड वर्क के दौरान घटा एक वाकया भी सुनाया -  

१९६२-६३ की बात रही होगी। तब यहाँ आस पास के जंगल ज़्यादा घने और भालू और तेंदुए जैसे जानवरों की तादाद भी काफी रही। उन दिनों वे सूरज निकलते चुनार की तरफ से इस बंधे के दख्खिन-पच्छिम में बड़ागाँव के आगे जंगल महाल में पुरातात्त्विक शोध के लिए साइकिल से जाते और साँझ ढले लौट पड़ते।  ऐसी ही एक शाम दिन भर के दमतोड़ काम से थक कर वे अपने एक चेले, शायद लालचन्द सिंह के साथ, लौट रहे थे। अन्धेरा घिरने लगा था।  ढलान पर आए तो पत्थरों में खड़खड़ाती साइकिलों ने रफ़्तार पकड़ ली, पसीने से तर चेहरे और बदन पर ठंढी हवा लगी तो काया मगन हो गयी।  तभी उन्हें आगे रास्ते के बीचोबीच  पीली त्वचा पर काले धब्बों वाला एक खूबसूरत एक बड़ा सा तेंदुआ आराम फ़रमाता दिखा।  जब तक कुछ सोचते सँभलते उसके इतना नज़दीक पहुँच गए कि अब कुछ भी कर पाना उनके बस में रहा भी नहीं।' 
इतना बता कर थोड़ा ठहरते ही, इंजीनियर साहिबा  के मुंह से बरबस निकल गया - फिर क्या हुआ ? 
'फिर उनकी साइकिल सीधे उस तेंदुए से टकरा गई।'
उनकी सांस हलक में अटक गई - 
'गुरु-चेले दोनों ने समझा आज तो गए जान से, डर के मारे उसी झोंके में आगे उतरते चले गए, बिना पीछे मुड़ कर देखे।"
फिर क्या तेंदुए ने क्या किया ? उन्होंने पूछा।  
'गुरु जी बताए रहे कि ये तो वह भी नहीं जानते। वो तो तब तक नीचे उतरते गए जब तक नीचे नहीं पहुँच गए।  शायद, अचानक उनकी साइकिल टकराने से वह भी अदबदा कर भाग ख़ड़ा हुआ।' 
कुछ घड़ी थम कर उसने बड़ी मासूमियत से कहा - 'ऐसे फील्ड वर्क में तो बड़ा ख़तरा है, तुमको भी पढ़ने को मिला तो यही विषय।'    
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दूसरा अध्याय समाप्त हुआ 

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