Thursday, June 25, 2015

पवन ऐसा डोलै : अध्याय ३.१२

ऐसी विदाई, कभी कहीं नहीं मिली 

राजगढ़ का सर्वेक्षण पूरा हो गया। प्रकाश में आए पुरावशेषों से साफ़ हो गया कि राजगढ़ ब्लाक में हज़ारों साल से मानव गतिविधियाँ ज़ारी रहीं आदिम आखेटकों-संग्राहकों (हंटर - गैदरर), आदिम चितेरों और खेतिहरों के बाद महाश्म (मेगालिथ) बनाने वालों के साथ या बाद में कम से कम करमा और पगिया गाँव के डीहों पर तकरीबन पच्चीस सौ बरस से काले लेपित पात्र (ब्लैक स्लिप्ड वेयर) और उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र (नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर) प्रयोग करने वाले आबाद रहे। जगह जगह मिलने वाली प्रस्तर प्रतिमाऐं, किले और मंदिर के अवशेष, पत्थर के कोल्हू, आदिवासियों और दूसरे समुदायों की बसावटें आज तक चली जा रही हैं। आम धारणा के अनुसार तीर कमान वाले आदिवासी यहाँ के मूल निवासी और बाकी सब बाहर से आकर यहां बसने वाले बहरिया* हैं।

जो नहीं मालूम हो सका वह ये कि खेती के प्रारम्भ, दूसरे इलाकों से सम्पर्क, व्यापारियों के आने-जाने की सही सही तारीखें और तवारीखें, कौन कब कहाँ से यहां आया और कब से चली आ रही हैं गुलाब जामुन की दूकानें।  

सामान बंधने लगा तब समझ में आया राजगढ़ से लगाव हो जाने का आभास, चलने का समय निकट जान मन उदास हो गया। कामगार भी भावुक हो चले। उस रात घर नहीं गए। लखनऊ जाने वाली चोपन एक्सप्रेस के आधी रात में लूसा स्टेशन पर आने तक के बकाया समय में एक ने जो खीसे और गीत सुनाए हमेशा के लिए याद हो गए - 

'बखत बखत की बात। एक ठे राजकुमार रहा, बहुतै सुन्दर औ भोला। ओकर महल बड़ा ऊंचा।  उसकी बहिन बड़ी प्यारी, बड़ी स्नेहिल।  दुन्नो हिल मिल के खेलैं।  उनके पिता सरल हृदय राजा, उनसे बड़ा प्यार करते। औ माई, तो माइयै हो ली। गाय गोरु एतने कि गिनी ना जाएं, दूध-घी एतना कि शुमार नहीं। फिन, बड़े भए तो बहिन बियाह के बिदा हो गयी दुसरे राज में।  

दिन बरस बीतत, इधर ऐसा बखत पलटा कि राज कुमार का सब राज पाट, धन-बैभव जाता रहा और बखत का मारा राजकुमार भटकता भीख माँगता कब बहिन की ससुराल में पहुँच गया उसे पता ही नहीं चला।  वह रो रो कर भीख माँगता रहा। उसकी टीस भरी आवाज़ बहिन के कान में पड़ी तो दौड़ के अपने महल की ऊंची अटारी से जा सटी। गाने वाले की आवाज़ उसे जानी पहचानी सी लगी लेकिन भीख मांगने वाला उसका भाई हो सकता है एकर तो ओके गुमानौ नहीं भया। राजकुमार गा - गा कर अपनी दुरदशा की कहानी सुनाता भीख माँगता रहा -

गइयां तो मरि गइ लीं -इ-इ ,
किदली के वन में -अ-अ-अ।  
भैसें जमुनवा के-अ-अ  
ती -अ -अ -अ र, जी -इ-इ-। 

गाएं कदली वन में और भैसें यमुना नदी के तट पर मरि गइलीं।  

घोड़वा तो मरि गइलीं - इ - इ 
कदम कै डरिया - अ -अ -अ 
हथिया लुवानिया कै -अ-अ-
डा -अ -अ -अ र, जी -इ-इ- । 

घोड़े कदम के नीचे मर गए और हाथी लुवानिया की डाल के नीचे।'  

हम सब दम साधे सुनते रहे। खीसा सुनाने वाले की वाणीं में और अधिक पीड़ा और व्यथा घुल गयी - 

'बाबू तो मरि गइलें -अ-अ 
पोखरवा भिटवा -अ-अ-अ 
माई तो मरि गइलीं - इ - इ 
महिलिया के बीच जी -इ-इ- ।

पिता पोखरा के भीटा पर मरे ओ माई महल के बीच में।  

बैला तो मरि गइलें -अ-अ
अपनी बखरिया -अ-अ-अ 
बखरी भई-इ-ई  
डहमा-अ-अ -र, जी -इ-इ- । 

बहिनी-ई-ई बियह गई,
बंसी के रजवा -अ-अ-अ 
भइया मांगत भीख-अ-अ 
दे-अ-स-अ-अ, जी -इ-इ- ।

बैल अपनी बखरी में मरि गए, बखरी सूनी हो गई। बहिन का ब्याह हो गया बंशी राजा से हो गया। और, भैया देश देश घूम घूम कर भीख मांग रहा है।'

अगली कहानी की भूमिका बनते बनते दूर से आती ट्रेन की रौशनी दिखने लगी। 

लूसा स्टेशन पर ट्रेन रुकती तो चन्द मिनट ही है लेकिन उसके रुकते ही हमारे साथी कामगारों के गाँव से आए साथियों ने हमारा सामान झटपट ट्रेन पर चढ़ा दिया। और जब तक हम ट्रेन में सवार होते उससे पहले ही उन्होंने कहीं छुपा कर रखी फूल-मालाओं से हमें लाद दिया तो हमारी आँखें बरबस भर आयीं। स्थानीय ग्रामीण कामगारों से ऐसी विदाई हमें फिर कभी कहीं नहीं मिली।

------------------------------------
*  इन इलाकों में अगली यात्राओं के अनुभवों के आधार पर मूल और बहरिया के मुद्दे पर अंतिम अध्याय में चर्चा होगी।   

-------------

तीसरा अध्याय समाप्त      

No comments:

Post a Comment