बनराज खरवार
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अगले दिन गोठानी से आगे बढ़ कर अगोरी मुख्य द्वार तक पहुंचे तो किले के सामने से दिखे कंगूरों के बीच से गोलीबारी के लिए बनाए गए ऊर्ध्वाधर संकरे सूराख और द्वार के बगल में स्थापित महिषासुर मर्दिनी का थान।
गोठानी से हमारे साथ आये एक शिक्षक ने बताया कि -
'इस इलाके में पहले 'अघोर* सम्प्रदाय' का बड़ा प्रभाव रहा। 'अघोरों के बाद यहाँ खरवारों का राज स्थापित हुआ।'
साथी गिरीश बताते हैं - 'इस अघोर संप्रदाय के उपासको 'अघोरियों' का पिछले वक्त के कापालिक सम्प्रदाय से रहा है। मानव-मुण्डों की माला और मुकुट धारण करने वाले कापालिक पार्वती के घोर रूप चामुण्डा देवी को मानव-बलि और मदिरा अर्पित करते रहे। शिव की एक उपाधि 'अघोर' का अर्थ संस्कृत में अ + घोर अर्थात जो 'घोर'अथवा भयानक न हो। अघोर मत आज शैव उपासना का सबसे कुख्यात रूप माना जाता है, विंध्याचल के निकट स्थित अष्टभुजा पर्वत इस मत का एक बड़ा केंद्र रहा है। इधर अगोरी अगर अघोरों का केंद्र रहा तो उधर सोन के उस पार घोरावल रहा घोरों की धुरी।'
इससे पहले कि बात आगे बढ़ती ग्रीसम सिन्हा ने एक सवाल दाग दिया -
'ये 'खरवार' क्या होते हैं ? इनका नाम और इस राजवंश के विषय में तो हमने कहीं पढ़ा-सुना नहीं ।'
शिक्षक ने समझाया -
' यहां बन में एक ठे गाझ हो ला जेकर नाम हौ 'खैर'। पान पर लगावै वाला कत्था एही के छाल से बना ला, ओही से पान खावै वालन के ओंठ हो जा लें लाल-लाल।'
बहुत बार सुने दिलकश गीत के बोल कानों में उतर आए - 'पान खाएं सइयां हमार ----'
शिक्षक की बात आगे बढ़ी - 'खैर से कत्था निकारै वाले बनवासी कहलाए 'खरवार'। जैसे जैसे बाढा पान खाए का चलन ओतनै बाढा खैर का व्योपार। जेतना बाढा खैर का व्योपार ओतनै धनी मानी होते गए खरवार। पैसा-दौलत बाढ़ल तो नौकर-चाकर परजा-परानी भी बाढ़े, फिर, ऊ बन गइलन बनवासी से बन के राजा। अगोरी बन गइल ओन कर रजधानी। पहलम पहल ई किल्ला ओही लोग बनवइले होइहन। तब इहाँ रहल होइहन आज से जियादा सघन बन औ सोन-ओ-रिहन्द में आज से जियादा साफ़ ओ बड़हर पानी।
किल्ला के दुवारे की देवी खरवारन कै ईष्ट देवी रहलीं। अगोरी के राजा हर बरस बन से एक ठे अरना भैंसा पकड़ मंगववतें और तलवार के एक्कै वार में ओ कर धड़ लोटता एह बल्ले औ लोहू फेंकता सिर देवी के चरणों में।
खरवारन कै राज बढ़तै चलि गइल। उत्तर सो पार, पूरब खोड़वा के ओह लग्गे बिजयगढ, दक्खिन एक ओर सिंगरौली बलियापार, ओहर पलामू जिल्ला में गढवा-नगर उटारी, औ पच्छिम में बर्दी के आगे। चहुँ ऒर रहा बनराज खरवारन ही कै राज।'
इक्का-दुक्का चरवाह या बनवासी आते, देवी के सामने हाथ जोड़ वहीँ बैठ जाते या आगे का का पैंड़ा धर आगे बढ़ जाते।
ढलती दो पहरी में पेट कुड़बुड़ाए तो गोठानी से लाए झोले में धरे बचे-खुचे चना-चबैना-गुड की याद जगी।
आगे का हवाल सुनने से पहले, देवी माथ नवां कर हम लोग पेट-पूजा में लग गए।
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बहुत बढिया
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