जियरै जानै
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विंध्य में डोलने के किस्से हमारे एक संहरिया की बड़े शहर में रहने वाली मंगेतर के भाई ने सुने तो उसका मन भी हमारे साथ-साथ डोलने को डोल गया। हमने सोचा एक बार उसे भी अपने साथ किसी खोह- कन्दरा वाले वन्य प्रदेश में घुमा कर क्यों ना अपना सिक्का मनवा लिया जाए। एक बार जब उनके पटना जाने की जानकारी मिली तो उन्हें रास्ते में ही मुगलसराय से उतार कर बनारस उठा लाए।
हम तीनों एक खटारा स्कूटर पर लद कर खड़खड़ाते हुए निकल दिए राजदरी की ओर। रामनगर, जमालपुर फिर चकिया के आगे पहाड़ी चढ़ाई, लगभग सत्तर किलोमीटर का रास्ता तीन घंटे में पार करके दोपहर बाद ठिकाने पर पहुंचे।
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आस-पास जंगल की सांय सांय में केवल धारा की कल कल और झरने की झझकोर सुन पड़ती। सितमबर में सधा-संयत बहाव नीचे हरे कुण्ड में उतरता मनोरम दृश्य बनाता दिखा। बरसात में उमड़ता इसका अथाह मटमैला बहाव दूसरा ही रूप दिखलाता है। एक हिसाब के मुताबिक़ इस इलाके के इस सबसे ऊंचे प्रपात की ऊंचाई पैसठ मीटर से भी अधिक और कुण्ड की गहराई - वही - सात माचा की डोरी औ सात बरातिन पगहा, ओ थाह नाहीं बा ।
हमारे अलावा वहाँ और किसी के ना होने के निरल्लेपन का अलग ही आनंद पाया। थोड़ा थिर हो कर बैठे तो याद आया कि जल्दी जल्दी में पीने का पानी साथ लाना भूल गए हैं और दरी का पानी पीने लायक नहीं। लौट पड़े नीचे के रास्ते के एक सोते से पानी लाने।
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दरी वाले वन विभाग के बंगले पर वापस आए तो चौकीदार नदारद, कुछ देर के इन्तिज़ार के बाद प्रकट हुआ तो वहीं रात बिताने के हमारे इरादे से अचरज में पड़ा लेकिन दक्षिणा पाते ही मगन मन कमरे खोल दिए। सब जर-जुगाड़ बैठते शाम ढल चली। साथ लायी दाल-सब्ज़ी चुरने चढ़ा कर हम आस-पास टहलने लगे।
टहल घूम कर प्रपात के सामने वाली शिला पर जम कर देर तक गप्प मारते रहे। तब तक ऊपर उठ आए चाँद की रोशनी ने सामने की दृश्यावली का एक नया ही रूप रच दिया। गीली शिलाओं और धारा ने रुपहली चादर ओढ़ ली। साथी ने अपने ज्ञान का सिक्का ठनकाते हुए मंगेतर के भाई को समझाया -
'अब समझ में आइल कि कवनो सुधी प्रकृति-प्रेमी अइसनै कवनो राती में इहां डेरा जमवले होई औ चांदनी कै अइसनै परभा कितौ छटा निहार के एह धारा ओ नद्दी के 'चंद्रपरभा' (चंद्रप्रभा) नाम धरवले होई। उप्पर की पहडियन से निकली एही धारा पर बंधा बंधा 'चंद्रपरभा डैम' और अगले बगले कै जंगल 'चंद्रपरभा आरछित बन' के नाम से जानल जा ला। रचिकौ और समय निकार कै आवा तो कइयो दिन हफ्ता निकर जाय ओ देखतै जावा जा।
जउने राह हम सब बनारस से अइली ओही राह आगे बढ़ा तो एक ठे औरो बरियार दरी बा - देव दरी।
ओही राह पर सीधे जा नौगढ़ किल्ला हौ, करमनासा के एह पल्ले। ना जाने केतना खिस्सा-कहानी जुड़ल बा ओसे, देवी प्रसाद खत्री के लिखल चंद्रकानता संतति में एकर जिकिर घूम घूम आवा ला, अइसन अइसन ऐय्यारन के बखान बा कि कहाँ ले बताई, बकी तू त ई कुल पढ़ले ना होब्या, मौक़ा निकाल के एक बारी ज़रूरे पढ़ा। ---------------------------- '
हूँ-हाँ करते मंगेतर के भाई ने जब आगे जंगल में जंगली कुत्तों के झुंड के झुण्ड और तेनुआ-भालू की चर्चा सुनी तो उन के चेहरे पर उतरा संशय साफ़ नज़र आया।
कमरे में गरम लगा तो बाहर बरामदे में चारपाइयां डाल लीं। हम तो थके हारे सो गए लेकिन मंगेतर-भाई की आँखें लगीं या नहीं, पता नहीं।
अगली सुबह खुले मैदान में नित्य क्रिया से निवृत्त हो हम सब बनारस लौट कर रात मुगलसराय से उन्हें रेल गाडी पर चढ़ा आए।
चन्द्रमा की छटा, चन्द्र परभा, राज दरी, हमारे विशुद्ध बनारसी अंदाज़, निपटै-नहाए और बनारसी बोल ने उन पर कितना सिक्का जमाया या जमा जमाया भी उचार दिया - ओन कर जियरै जानै।
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Photo D.C. KUMAR from internet
कल की कल
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