Wednesday, January 29, 2014

रास्ता चलते हुए: सत्र दो

रास्ता चलते हुए: सत्र दो

January 27, 2014 at 10:11pm


'सार्थ और सार्थवाहों' के बारे में और-और लेखा डाक्टर मोतीचंद्र की किताब के मार्फ़त तफसील से मिलता गया।

दूर दूर के कस्बों, शहरों और दूरस्थ मुल्को तक, ताम्रलिप्ति से सीरिया, राजगीर से पैठन >>>>>>> बेशकीमती रत्न, रेशम, मसाले जैसे जिन्स ले कर व्यापार के लिए निकलना बड़ा दुष्कर होता। इस मंशा से निकलने वाले अपने जैसे और व्यापारियों को तलाश कर जुटाते, सार्थ - महा सार्थ बनाते। घोड़े, हाथी, रथ, बैल-गाड़ी, ऊँट गाड़ी सजते। सारे सार्थ का सूत्रधार सुरछा के लिए आयुध धारी रक्षक और दीगर इंतज़ाम करता। फिर जब सार्थ चलते तो उनकी धज देखते ही बनती। अपने अपने मतलब से दूर देश जाने वाले धर्मार्थी, विद्यार्थी, सैलानी भी इनके साथ लग लेते।

सार्थ चलते तो मेले सा कोलाहल और धूल का बवंडर उठता, जहां ठहरते, डेरा डालते, चलताऊ शहर बस जाता। पास-पड़ोस के व्यापारियों से लेन देन के अलावा चर्चा-परिचर्चा, धरम प्रचार भी चलता।

जिन्हे ज़्यादा समझना हो प्राचीन पथों, समन्दरों, नाविकों और तिज़ारत के लिए निकलने वाले अदम्य साहसी यात्रियों के बारे में उन्होंने अगर सार्थवाह नहीं पढ़ा तो समझ लें अब तक का जीवन बेरथ गंवाए।

क्रमशः

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