Friday, January 31, 2014

रास्ता चलते हुए सत्र दो: 6

January 31, 2014 at 10:53pm


2.6  कप्तान ब्लंट  

नए बने बाई पास से गंगा पार कर नारायणपुर होते हुए चुनारगढ़ पर धावा मारा। किले में घुमते गेस्ट हॉउस के सामने गंगा का परिदृश्य देख खलीफा हक़-बक रह गए - 'ओह इतना उमर बीता। पहले क्यों नहीं आया यहाँ, अहा क्या बात है।



टहलते-ठहरते किले के अंदर बनी भरथरि-समाधि देखी, भरथरी रचित श्रृंगार शतक, वैराग्य शतक और नीति शतक की महिमा पुजारी जी से सुनी। पूर्वी दरवाज़े का मंदिर देखा, जहां तहां धरे लघु प्रस्तर देवालय निरखे, पुरानी मूर्तियों के दर्शन पाए, वारेन हेस्टिंग्स का बँगला झाँका, पश्चिमी दरवाज़े से निकल कर किले के नीचे गंगा किनारे की कगारी चट्टान काट कर निरूपी गई सोलह-सत्तरह सौ बरस पहले  देवाकृतिया देखीं।







सब देख समझ कर खलीफा ने लटाई ढील दी - "एक रास्ता बनारस से गंगा-गंगा एक और अगिआबीर, बिंध्याचल, लछागीर, झूसी के आगे नाव से जाता रहा। दूसरा नारायणपुर का एही रास्ता से जरगो पार कर यहाँ के वास्ते।

उस्ताद ने दक्खिन का रास्ता दिखाया - 'चुनार से दुर्गाखोह, आगे सक्तेशगढ़-सिद्ध नाथ की दरी, फिर राज गढ़, कैमूर घाट उतर के शिल्पी गाँव, आगे सोन पार कुरारी गाँव के आगे भरहरी, फिर, आगे कांचनी नदी ओ माणा, सोनहट से - एक ओर दक्खिन-पूरब को रामगढ़ पहाड़, शिबरी नारायण, मल्हार से महानदी पार जगन्नाथपुरी; दूसरी और सीधा दक्खिन चढ़ उतर गए वैन-गंगा घाटी के साथ अदम की ओर विदर्भ में दक्षिणापथ पर। ------ '



उस्ताद का बोलना थमा तो खलीफा ने उत्सुकता से पूछा - 'कहाँ से जाना तुम ये सब।'

उस्ताद भाव खा गए - 'अंकल जी हमन के त पढ़ पथलवै जाना ला। थोर बहुत हमनौ पढ़ी-लिखी ला। ना माना तो देख ला १८०१ के 'एशिएटिक रिसर्चेस' में छपल जे. टी. ब्लंट कै हवाल।"  

खलीफा समझ गए - उस्ताद कमर कस के आए हैं।

अपने रिसर्च के फेर में ब्लंट जी का वो विवरण इस नाचीज़ ने भी खंगाला था। ब्रितानिया सरकार के हुकुम की ताबेदारी में सन 1795 की 28 जनवरी की ठंढ में ब्लंट महोदय एक जमादार और तीस सिपाहियों के साथ चुनारगढ़ से उड़ीसा और बेररार जाने वाले 'रूट''की पड़ताल करने इसी रास्ते निकलते जो देखा रोजनामचे में भरते रहे। शिल्पी गाँव के कोलों के साथ कप्तान ब्लंट पास ही का पहाड़ चढ़ सोन और ढलती सांझ में सूरज की किरणो का जादुई द्राश देख कर मगन हो गए।   साथ के कोलों ने वहाँ की बड़ी बड़ी शिलाओं और खोहों के बारे में बताया कि - 'ई हौ  'राम-लछमन-सीता जी का दरना', बन में डोलत एहीं सोता में गोड़ (पैर) धोए कै एक रात एहिं रुकल रहलैं।'



इसी को कहते हैं 'जस-अपजस' बिधि हाथ। ब्लंट साहब थोरकै और धियान से देखे होते ना, तो तवारीख में अउरो जियादा नाम कमाते । अगर वहीं 'दुअरा', 'महादेउवा' ओ 'सीता जी की कोहबर' नामक शैलाश्रयों (रॉक शेल्टर्स) में कुदरती रंगों से रंगे चित्र उन्होंने देख लिए होते तो कार्लाइल की सोहागी घाट की 1880 की खोज से भी सौ बरस पहले ही दुनिया में ऐसे चित्रों को खोजने का तमगा जीत लिए होते। लेकिन भला वो ऐसा कैसे कर पाते जब बिधाता ने उन्हें दुनिया के सामने उजियार करने का भाग लिखा था हमरे लिलार पर।

कैमूर पहाड़ी ओ सोन घाटी का सर्वे करते 1979-80 में हम भी इधर आए और शिल्पी गाँव के कोलों से ही बूछते समझते इन्हे खोजने-छापने का मौक़ा झटक लिए। यहाँ निरूपित घेरा बना कर मस्त नाचते नर्तकों का समूह इतना भाया कि मौक़ा मिलते ही उनके छाया चित्र आस्ट्रेलिया के डार्विन शहर में जुटे कलाविदों को भी दिखा आया ।



-------

क्रमशः

No comments:

Post a Comment