Friday, January 10, 2014

इंतहा इतनी न कर


इंतहा इतनी न कर

1
ये कभी सोचा नहीं वो जुर्म क्यों किये, 
फंस गए तो अब कहें क़ाज़ी बुरे मिले।   

2
जूतियों  की चाकरी, तब तो किया किए,
जूतियां पड़ने लगी, क्यों बिलबिला गए।    

3
दुम हिलाते हर कहीं, कुत्तों सा जो जिए, 
जूठन पे ज़िंदगी चले, फिर क्या तने हुए। 

4
कलगी नचाते कूदते, तन रंगाए चल दिए,
तुर्रा दिखाते वो रहे, सिंह सा चलते हुए।   

5
सब असलियत जानते, कैसा भरम पाले हुए, 
देखा है घूरे-ए-घूर पर, तुमको वहीँ लपटे हुए।   

6
दे कर चुनौती तुम, शरीफों को, बढ़ा किए,
थोड़ा ही वो बढे कि तुम कैसा ज़िबह हुए।  

7
इंतहा इतनी न कर, तुम ही ना सब हुए,
जो आ गए ख़म ठोंक कर, रावण दहन हुए। 

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