इंतहा इतनी न कर
1
ये कभी सोचा नहीं वो जुर्म क्यों किये,
फंस गए तो अब कहें क़ाज़ी बुरे मिले।
2
जूतियों की चाकरी, तब तो किया किए,
जूतियां पड़ने लगी, क्यों बिलबिला गए।
3
दुम हिलाते हर कहीं, कुत्तों सा जो जिए,
जूठन पे ज़िंदगी चले, फिर क्या तने हुए।
4
कलगी नचाते कूदते, तन रंगाए चल दिए,
तुर्रा दिखाते वो रहे, सिंह सा चलते हुए।
5
सब असलियत जानते, कैसा भरम पाले हुए,
देखा है घूरे-ए-घूर पर, तुमको वहीँ लपटे हुए।
6
दे कर चुनौती तुम, शरीफों को, बढ़ा किए,
थोड़ा ही वो बढे कि तुम कैसा ज़िबह हुए।
7
इंतहा इतनी न कर, तुम ही ना सब हुए,
जो आ गए ख़म ठोंक कर, रावण दहन हुए।
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