2.4 धरमशाला/ सराय
क्या अजब है ये दुनिया भी - इस लोक में आ कर जाना मुकम्मिल जान कर भी लोग मंसूबा पाले रहते हैं जीते रहने का बज़रिए शोहरत, इस जहां में सूरज चाँद तारों के रहने तक, चाहते हैं इस लोक के साथ परलोक सुधारना। पिद्दी सा बबूला समंदर बनने की चाह राखे। कितने ही श्रेष्ठि (सेठों), समर्थ, सम्राट इस चाह में सड़को के किनारे धरम शालाएं, सराय, मंदिर और तालाब बनवाने, कुंआ खोदवाने और छायादार पेड़ पौधे और बगैचा लगवाने में दूनो हाथ दाम उलीचते रहे। पंचकोशी परिकरमा मारग पर भी ऐसे धरम-भीरुओं की कीर्ति पताकाएं फहराती दिखीं।
यह मारग पहले कच्चा रहा, दुन्नो बगल छायादार बड़वार गाछ। इस पर चलते परिकरमा पर निकले संकलपित श्रद्धालु, गुरिया-गठरी सम्भारे, भोले के जयकारे लगाते, नंगे पाँव पैदल। न जाने कब से चल रही है यह परम्परा। बनारस की आबादी बढ़ने के साथ बदलते हालात में सड़क के हाल बेहाल हुए, पेड़ काट लकड़ी बिकाई हाट और खड़े होते गए पक्के मकान। शहर का दौरा करते हुक्कामों को यह सब देख रोना आया तो 'सुखद यात्रा' के ख़याल से कच्चे रास्ते पर डामर बिछवा कर चिक्कन गात बनवाय दिया। अब ठरन में थरती और घाम में तपती सड़क पर नंगे पांव चलने वालों के पांव फटी बिवाईं की पीर वे कहाँ से समझते।
परिकरमा मारग से सटी धरमशालाएं आज भी सुबह ओ शाम गुलजार रहती हैं यात्रियों की आमदरफ्त से। कंदवा से अभी ठिंगुरे ही थे गाड़ी रुकवा कर खलीफा ऎसी ही एक धरमशाला में हलि गए। उस्ताद के सम्भालने के बाद भी अपनी उमर का मान किए बिना लगे ऊपर नीचे कुदक्का मारने।
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एक ज़माने में आस पास के वीराने में सांझ ढलते पड़ाव डाल कर यात्री ऊंची दीवारों वाली धर्मशालाओं का अकेला दरवाज़ा बंद कर चारों और से सुरछित हो जाते। भीतर खूब खुले आँगन के चारों ओर के कमरों की कतारों में खासी तादाद खप जाती। गर्मियों में आँगन में ही पड़ रहते। अंगने में ही दोल वाला कुआं, बगले में चोट क मंदिल ओ तुलसीचौरा। सुबह सबेरे स्नान ध्यान, पूजन-अर्चन, पांच पाती तुलसी दल सबके उदर। फिर चलते अगले पड़ाव की ओर।
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उतरते जल-स्तर के चलते कुँओं का पानी नीचे उतर चला है और सबसे बुरा बवाल है 'वाश रूम' के जुगाड़ कै। यह सब देख आज इस कल उस देश तक उड़ने वाले उस्ताद खनकने लगे -
'सगरो दुनिया में काशी की सरनामी के डुग्गी पीट पैसा कमावे वाले एतनौ नाहीं कै पइलन ओ चलल हउवें काशी के इंटरनेशनल लेबल कै टूरिस्ट सेंटर बनावे।'
खलीफा भी उनकी बात के साथ "अरे राम- अरे राम" कहते नहीं थके। फिर खिन्न मन से बोले - "अब क्या करेगा? हम सब है ही ऐसा ।" ऊपर की छत पर सुस्ताने बैठे तो बताने लगे -
"पुराना यात्रा मार्ग पर सब कहीं ऐसा धर्मशाला / सराय मिलता है सब कहीं यहाँ से आगरा-दिल्ली-पंजाब हो कर समूचा पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान का आगे तक। आज भी कभी कभार शाम को दीख जाता है सराय में टिकना वाला धुल सना मुसाफिर कुंआ पर चमड़ा का डोल से पानी खींचता, मुंह-पैर धोता, फिर चटाई बिछा कर नमाज़ पढता। सराय के बाहर दीखता है ऊंट घोड़े का जोगह ट्रक का जमाव।
सराय/धर्मशाला का परम्परा ले जाता है ऐसा ही बनावट बिन्यास वाला प्राचीन बौद्ध विहारों तक जहां रुकता ठहरता था श्रमन लोग। सारनाथ, श्रावस्ती और दूसरा दूसरा साइट का खुदाई में ऐसा ही प्लान तो मिला है विहार का। मंदिल-मस्जिद का जोगह पास में रहता था स्तूप का बिधान। ऐसा ही बनावट दीखता है यूरोप का पुराना कान्वेंट का भी। "
* फोटो सुभाष जी और पञ्च बहादुर जी के सौजन्य से साभार।
क्रमशः
क्या अजब है ये दुनिया भी - इस लोक में आ कर जाना मुकम्मिल जान कर भी लोग मंसूबा पाले रहते हैं जीते रहने का बज़रिए शोहरत, इस जहां में सूरज चाँद तारों के रहने तक, चाहते हैं इस लोक के साथ परलोक सुधारना। पिद्दी सा बबूला समंदर बनने की चाह राखे। कितने ही श्रेष्ठि (सेठों), समर्थ, सम्राट इस चाह में सड़को के किनारे धरम शालाएं, सराय, मंदिर और तालाब बनवाने, कुंआ खोदवाने और छायादार पेड़ पौधे और बगैचा लगवाने में दूनो हाथ दाम उलीचते रहे। पंचकोशी परिकरमा मारग पर भी ऐसे धरम-भीरुओं की कीर्ति पताकाएं फहराती दिखीं।
यह मारग पहले कच्चा रहा, दुन्नो बगल छायादार बड़वार गाछ। इस पर चलते परिकरमा पर निकले संकलपित श्रद्धालु, गुरिया-गठरी सम्भारे, भोले के जयकारे लगाते, नंगे पाँव पैदल। न जाने कब से चल रही है यह परम्परा। बनारस की आबादी बढ़ने के साथ बदलते हालात में सड़क के हाल बेहाल हुए, पेड़ काट लकड़ी बिकाई हाट और खड़े होते गए पक्के मकान। शहर का दौरा करते हुक्कामों को यह सब देख रोना आया तो 'सुखद यात्रा' के ख़याल से कच्चे रास्ते पर डामर बिछवा कर चिक्कन गात बनवाय दिया। अब ठरन में थरती और घाम में तपती सड़क पर नंगे पांव चलने वालों के पांव फटी बिवाईं की पीर वे कहाँ से समझते।
परिकरमा मारग से सटी धरमशालाएं आज भी सुबह ओ शाम गुलजार रहती हैं यात्रियों की आमदरफ्त से। कंदवा से अभी ठिंगुरे ही थे गाड़ी रुकवा कर खलीफा ऎसी ही एक धरमशाला में हलि गए। उस्ताद के सम्भालने के बाद भी अपनी उमर का मान किए बिना लगे ऊपर नीचे कुदक्का मारने।
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एक ज़माने में आस पास के वीराने में सांझ ढलते पड़ाव डाल कर यात्री ऊंची दीवारों वाली धर्मशालाओं का अकेला दरवाज़ा बंद कर चारों और से सुरछित हो जाते। भीतर खूब खुले आँगन के चारों ओर के कमरों की कतारों में खासी तादाद खप जाती। गर्मियों में आँगन में ही पड़ रहते। अंगने में ही दोल वाला कुआं, बगले में चोट क मंदिल ओ तुलसीचौरा। सुबह सबेरे स्नान ध्यान, पूजन-अर्चन, पांच पाती तुलसी दल सबके उदर। फिर चलते अगले पड़ाव की ओर।
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उतरते जल-स्तर के चलते कुँओं का पानी नीचे उतर चला है और सबसे बुरा बवाल है 'वाश रूम' के जुगाड़ कै। यह सब देख आज इस कल उस देश तक उड़ने वाले उस्ताद खनकने लगे -
'सगरो दुनिया में काशी की सरनामी के डुग्गी पीट पैसा कमावे वाले एतनौ नाहीं कै पइलन ओ चलल हउवें काशी के इंटरनेशनल लेबल कै टूरिस्ट सेंटर बनावे।'
खलीफा भी उनकी बात के साथ "अरे राम- अरे राम" कहते नहीं थके। फिर खिन्न मन से बोले - "अब क्या करेगा? हम सब है ही ऐसा ।" ऊपर की छत पर सुस्ताने बैठे तो बताने लगे -
"पुराना यात्रा मार्ग पर सब कहीं ऐसा धर्मशाला / सराय मिलता है सब कहीं यहाँ से आगरा-दिल्ली-पंजाब हो कर समूचा पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान का आगे तक। आज भी कभी कभार शाम को दीख जाता है सराय में टिकना वाला धुल सना मुसाफिर कुंआ पर चमड़ा का डोल से पानी खींचता, मुंह-पैर धोता, फिर चटाई बिछा कर नमाज़ पढता। सराय के बाहर दीखता है ऊंट घोड़े का जोगह ट्रक का जमाव।
सराय/धर्मशाला का परम्परा ले जाता है ऐसा ही बनावट बिन्यास वाला प्राचीन बौद्ध विहारों तक जहां रुकता ठहरता था श्रमन लोग। सारनाथ, श्रावस्ती और दूसरा दूसरा साइट का खुदाई में ऐसा ही प्लान तो मिला है विहार का। मंदिल-मस्जिद का जोगह पास में रहता था स्तूप का बिधान। ऐसा ही बनावट दीखता है यूरोप का पुराना कान्वेंट का भी। "
* फोटो सुभाष जी और पञ्च बहादुर जी के सौजन्य से साभार।
क्रमशः
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