Friday, December 1, 2017

7. अन्नपूर्णा

7. अन्नपूर्णा
उनका चेहरा, उनकी काया, कभी नहीं देख पाया। भोर में पौ फटने से पहले ही गाँव के पूर्वी छोर से आती प्रायवेट-बस के स्टार्ट होने की गुर्राहट से नींद खुलती और खाट छोड़ उसे पकड़ने लपकता। बात है सन उन्नीस-सौ -उन्यासी (1979) की। 'पलामू की प्रस्तर-युगीन सभ्यताओं' पर शोध के सिलसिले में सर्वेक्षण के लिए निकला था, घोर गरमी के मौसम में। अंतर्मन भी उत्तपत्त, ऎसी लागी लगन की लय कि किसी तरह जल्दी से थीसिस पूरी करके बसेरा जोड़ने को आतुर।
सुबह की सुहानी तरंग में 'पंडा' या 'पांडो नदी' के आस-पास की खूबसूरत पहाड़ियां और ढलान छानते ताप बढ़ने लगता। आज 'बड़ी छपली', 'नटवा पहाड़', 'खरहा चर' तो अगले दिन 'खोंड़हर', 'तोरलवा', 'केतार', 'मेलावन टोला' के आसपास ज़मीन पर पड़े प्रस्तर-उपकरण तलाशती आँखे दोपहर आते-आते तेज़ धूप में चौंधियाने लगतीं, हाथ लगाते ही गरम पत्थर चपक लेते।
दोपहरी में छांह खोजते महुए के गाछ तले डेरा जमाते, पथरीली आंच में समय काटते। कुछ आदिवासी कुछ दूरी के फासले से बड़ी उत्सुकता से देर तक देखते रहते। भरी दुपहरी इस तरह पहाड़ों पर भटकते वाली यह काया उन्हें भू-सुंघवा भूत-परेत ही समझ आती। धूप ढलते जब दोबारा अपने काम में रमने लगता तो वे दूर टहल जाते। शाम का अंधियारा उतरता और घाटी में मादल के बोल दमकने-लहराने लगते तो झोलों में बटोरे प्रस्तर-उपकरणों के ढेर संभाले माटी-पसीने में सना धीरे धीरे बस पकड़ने की फ़िराक में गाँव-सड़क की राह धरता, अकेला, निरा अकेला । बस पकड़ने के लिए एक ठाकुर साहब के दुआरे घड़ी भर रुकता तो गुड़-पानी पेश कर के मेरा थका चेहरा निहारते इतना ज़रूर कहते 'एतना सुकुंवार होए के इतना मेहनत काहे ------।' एक दिन बस आती देख मेरे वजनी झोले उठाने लगे तो उठे नहीं, तब अचरज से भर कर बोले "बड़ हरेठ ह-उ-आ----'।
'सिसरी गाँव' के अपने ठिकाने अटते-अटते रात खासी गहरा जाती। यह ठिकाना विश्वविद्यालय में पढने वाले एक छात्र 'अनिल जायसवाल' की कृपा से टिक सका था। वहां पहुँचते ही झोले पटक कर गाँव के पास के पहाडी जल-स्रोत में जा उतरता। जब तक लौटता गाँव भर सो चुका होता। मेरे ठिकाने पर खाट पे बिछौना और सिरहाने एक स्टूल पर एक थाली से ढकी दूसरी थाली में चावल-दाल-सब्जी-अचार और स्वादिष्ट तिलौरी और बगल में एक लोटा पानी करीने से सजे मिलते। थकावट से चूर चुपचाप छक कर गहरी नींद सोने से पहले सोचा करता कभी जल्दी पहुँच पाया तो यह सब परोसने-सजाने वाले को देख-सुन उनके हाथ के जादू की तारीफ़ करूंगा लेकिन वह दिन नहीं आया, ऐसे ही एक दिन मुंह अँधेरे 'सिसिरी-खरौंधी' से विदा हो लिया। यह सतरें लिख कर, चलने से पहले, उस अनाम, अदेखी असुनी अन्नपूर्णा के प्रति सादर आभार दर्ज कर रहा हूँ।
--------

No comments:

Post a Comment