Thursday, December 28, 2017

'निकल पड़ो मैदान में'

'निकल पड़ो मैदान में'

वो दिन गए जब बड़े मिंया फाख्ते उड़ाते थे। इस मसल के मायने, साठा चढ़ते जाने के साथ ज्यादा उजले दिखने लगे हैं।

एक समय था सपने देखने के ही नहीं धरती पर उतारते चलने के, आसमान में उड़ने और पहाड़ लांघने के मनसूबे बांधते और जितना हो पाता पूरा भी करते। ऐसा ही एक सपना देखा प्राचीन यात्रा पथों को नाप कर उनका ब्यौरा लिख जाने का। जब जब मौक़ा पाया पनही फटफटाने में कसर नाहीं राखी। कभी अपने बूते, कभी नौकरी के बहाने, कभी 'एकला चलो रे' की तर्ज पर तो कभी मनमाने के मेले में। कैम्ब्रिज वाले दादा चक्रबर्ती और बी.एच.यू. वाले दाढ़ी बाबा के साथे दक्षिणापथ के आर-पार। लेकिन अब लगने लगा है कुछ सपने सच कर पाना अपने बूते का नहीं रहा, इसलिए नयकों से साझा करने का मन करने लगा है, अब उन्हीं का बल है इनसे पार पाने का। यह भरोसा गढ़ाता जा रहा है, फेसबुक पर दिनों-दिन बढ़ती जा रही घुमक्कड़-शेरों की जमातों के जमावड़े - जैसे 'पग पग सनीचर', 'ठेलुआ क्लब', 'घुमक्क्ड़ी दिल से', 'यात्रा वृत्तांत', 'देसी ट्रवेलेर', 'चलत मुसाफिर' देख कर, उनसे जुड़े मस्तानों के लेखे व खीसों की ठेलम ठेल देख कर, और ऐसे हौंसले जान कर - "सोचता हूँ कदमों से नाप लूंगा भूगोल को त्रिविक्रम की तरह।" ऐसे में कोई ना कोई माई का लाल मेरे सपने को पूरा करने का 'बीड़ा' जरूर चाभ लेगा।

आज से कम से कम 2500-2600 बरस पहले भारतीय उपमहाद्वीप में दो महापथों के चलते रहने का ज़िक्र बाकायदा प्राचीन साहित्य में मिलता है। एक रहा तक्षशिला को पाटलिपुत्र से जोड़ते हुए दोनों सिरों को और आगे तक जोड़ने वाला 'उत्तर पथ' और दूसरा इस महापथ को दक्षिण भारत से जोड़ने वाला 'दक्षिणापथ'। 'उत्तरपथ' आगे के रास्तों को जोड़ता रहा बा-रास्ते काबुल-कंदहार-हेरात से आगे पश्चिम एशिया को, उत्तर में आमू दरया के उस पार मध्य एशिया, उत्तर पश्चिम में भू-मध्य सागर के पार बाकू और पूर्वी यूरोप, और पूरब में महास्थान हो कर अराकान के पार म्यांमार आदि देशों से।

उधर 'दक्षिणापथ' जोड़ता रहा पश्चिमी और पूर्वी समुद्री-तटों के बन्दरगाहों के जरिए समुंदरों के पार बसे ठिकानों से। प्राचीन साहित्य को मथ कर इन पथों और उन पर चलने वाले घुमक्क्ड़ों के बारे में बड़ा ही विस्तृत और दुर्लभ विवरण संजो गए हैं, मेरे जनम के पहले ही, परम मनीषी डाक्टर मोतीचंद्र अपनी कालजयी पुस्तक 'सार्थवाह' में। युवा और भावी घुमक्कड़ों में से जिन्होंने नहीं पढ़ा है इसे ज़रूर पढ़ें और जो हमारे सपने को सच करने का संकल्प साधना चाहते हैं वे तो इसे हर हाल में बांच कर गंठिया लें। क्योकि साहित्य में लिखे से ही कहानी पूरी नहीं होती, आगे बची है 'कठिन लड़ाई गढ़ महोबे की' तरह और भी कड़ी चुनौती - 'इन पथों के फैलाव के एक एक ठिकाने और उनकी प्राचीनता को मुकम्मल सबूतों के दम पर चिन्हित और साबित करके ढंग से लिखने की'। पिछली दो दशकों में हमने इस डायरेक्शन में कुछ पहल भी की है। इनका सिजरा जानने के लिए हमारे लेख और खास तौर पर दादा चक्रवर्ती की 'डेकन रूट्स' और दूसरी किताबें पलटी जा सकती हैं। आगे पीछे के सन्दर्भ इन्हीं में मिल जाएंगे।
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यह चुनौती हमारे लिए और भी ज्यादा अहम हो गयी है क्योंकि 'उत्तरापथ' को 'विश्व विरासत की अस्थायी सूची' में दर्ज़ कर लिया गया है जिसे पक्का करने के लिए यह निशानदेही और प्रकाशन सबसे बुनियादी शर्त है। इसके अलावा इसी तरह का दर्ज़ा अभी दक्षिणापथ को भी हासिल कराना है। ऐसा कर के रुपए में चार नहीं सोलह चवन्नियां भुनाई जा सकेंगी। हम समझ सकेंगे बहुत पुराने समय से ही हो रहे संस्कृतियों के समुच्चय, संपर्कों, आर्थिक-राजनीतिक जैसे बहुतेरे पहलुओं के अलावा सोतों-प्रपातों, गुहा-कांतारों, वादियों-पहाड़ों में पुराने डीहों-ठीहों पर डेरा डाल कर घुमक्क्ड़ी का मज़ा पाने का मौक़ा मिलेगा सो अलग से।
मध्य चीन को मध्य एशिया तक चलने वाले कथित 'रेशम मार्ग' और दक्षिण अमरीका के चिली, अर्जेंटीना, बोलीविआ, पेरू, कोलम्बिआ और इक्वाडोर देशों के आर-पार ' Qhapaq Ñan, Andean Road System' मार्ग पहले ही विश्व विरासत फहरिस्त में चस्पा हो चुके हैं।
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http://whc.unesco.org/en/qhapaqnan/

चीन ने तो किसी भी मुल्क से आने वाले ऐसे पथों को 'रेशम-मार्ग' नाम दे डाला है जो उससे कहीं से भी जुड़ते हों मानो 'रेशम मार्ग' न हुआ 'गंगा मइया' हो गयीं जिसमें मिलने वाली सारी नदियां गंगा ही कहलाने लगती हैं - 'जब मिलि गए तब एक बरन ह्वै, गंगा नाम परौ'। इस तरह का दावा हम भी करने लगें तो पूरे एशिया में कहीं से भी गुजरने वाले सारे मुख्य पथ 'उत्तरपथ' कहलाने लग जाएं। यह सब जान कर हमारे घुम्मकड़ इस मामले में अब और पिछड़ना चाहेंगे, कम से कम मुझे तो नहीं लगता। 'अब लौं नसानी अब ना नसैहों', जो बीत गया सो बीत गया आगे की सुध लेय।

भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण की चंडीगढ़, आगरा, लखनऊ, सारनाथ, पटना और कलकत्ता सर्किल के घुमक्कड़ पुराविद इस चुनौती को स्वीकार कर पहले ही इस मुहिम में जुट चुके हैं। लेकिन यह ललकार किसी एक व्यक्ति या संस्था के लिए नहीं, तजुर्बेकार हुनरमंदों के अलावा सभी सर्वेक्षक घुमक्कड़ों के लिए है और उन्हें इसके लिए हर हाल में आगे आना होगा। हमें तो बस इतनी ही हंकारी लगानी है - "आज कसौटी की बेला है, निकल पड़ो मैदान में"।

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