Monday, April 30, 2018

अफ़ग़ानिस्तान ४ : ' पिघल चांदनी तरल बही'

अफ़ग़ानिस्तान ४ : ' पिघल चांदनी तरल बही'
Published by Rakesh Tewari9 hrs
एक तो अनजाने और दूर देश घूमने का उछाह, दूजे उससे एक बार फिर मिलने की आस में ट्रेन का रास्ता अंतहीन लगने लगा।
बाहर चटक हो चली धूप, गेंहू की पकी हुई सुनहली फसल या कट चुके ठूंठ वाले सूखे खेत, पटरी के बगल या दूर अलग-थलग अंगार बने पलाश, झाड़, ताल तलइयों की तलछट पर झिलमिलारा जल, सूख चली नदियों की धार, गमछा लपेटे आते-जाते इक्का-दुक्का लोग।
खटाखट गुज़रते छोटे बड़े स्टेशन प्लेटफार्म, बाग़ कुंए रेलवे फाटक। झका-झक भागी जा रही ट्रेन, आधी खुली और आधी बंद तंद्रिल आँखें।
थोड़ी ही देर में अपने आप में ऐसा खोया कि मानो शून्य में पहुँच गया, मानो समय ठहर गया। डिब्बे की सवारियों-गतिविधियों के ऊपर एक सपना रूप लेने लगा -
उसके घर, उसने ही दरवाज़ा खोला, लुनाई भरा मोहक मुख। देखते ही एकबारगी उठती फुरहरी । एकांत मिलते ही उसने कुछ कहना चाहा।'
तब तक सबके टिकट चेक कर रहे टी-टी ने मेरी बर्थ के पास आ कर टहोका मारा -
"टिकट दिखाइएगा भाई साहब."
ऊंघते हुए ही टिकट दिखाया और फिर पहले की तरह अर्ध-तंद्रा में पड़ रहा।
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किसी के जोर जोर बोलने से घटना क्रम बीच में टूटा फिर किसी फिल्म की तरह आगे बढ़ा। उसने फुसफुसा कर कहा -
"कल मैक्सम्यूलर भवन पर मिलिए." -------
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इसके बाद तो नींद ही उड़ गई, देर तक उधेड़बुन में लगा रहा ----- कैसा सपना देखा, सब दिमाग का फितूर, जैसा सोचो वैसे सपने।
दिल्ली पहुंच कर सबसे मुलाकात हुई। जहां जाते श्याम जी के करतबों की चर्चा होती। उन्नीस सौ चौहत्तर में हम लखनऊ से साईकिल से चल कर काठमाण्डू में हरीश चन्दर मामा जी के घर ठहरे थे, तब वे वहां भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक अटैची के पद पर कार्यरत थे। नए अभियान की सुनकर मगन हो गए। तुरंत ही काबुल और तेहरान में भारत के दूतावासों में तैनात अपने मित्रों के नाम सिफारिशी खत लिख कर दिए। हमारे एक और परिवारी सत्येंद्र नाथ त्रिपाठी जी ने भी अपने जानने वालों के लिए लिखा। बाकी सबने अपने अपने अनुभव से सलाह दी, हौंसला आफज़ाई की।
अच्छी खासी भागम भाग के बावजूद सबको झांसा दे कर खिंचा चला गया उसके घर। कई दिनों से ठीक से सो नहीं सकने के बाद भी पपोटों में नींद भरे बातों में लिपट गया और बातों बातों में बेसुध सो रहा। आधी रात में चौंक कर उठा, झिझोड़ कर जगाए जाने पर।
चुप रहने का इशारा करते हुए उसने दबे बोलों में बोला - "बगल वाले कमरे में आइए"।आहिस्ते से सरक कर उधर जाने पर उसने सरगोशी से कहा - 'कब से तो जगाते रहे, उठते ही न थे। ---- कल मैक्सम्यूलर भवन पर मिलिए -----" । यह सुन कर एकबारगी बाहर अन्दर झुरहरी उठ गयी। रोमांचित सोचता रहा क्या वह सपना सच हो कर रहेगा।
और फिर, आगे-आगे हूबहू सपने जैसा ही साकार होता गया, जैसा ट्रेन में सपने में देखा था उसी तरह, उसी क्रम में। इस घटनाक्रम ने जीवन के एक अजाने रहस्य पर से परदा उठा दिया। बहुत बार पढ़-सुन कर ऐसे वाकयों को पूरी तरह ख़याली मान कर सिरे से नकारता रहा था, लेकिन अपने इस तजुर्बे के बाद मानना ही पड़ा कि जीवन में सब कुछ तयशुदा है सब कुछ, कभी कभी हम उन्हें पहले देख पाते हैं और ज्यादातर घटने पर।
लौटती बेला, देहरी पार करते हुए उसने तकाज़ा किया - "मेरे लिए ईरान से क्या लाएंगे --- !!!"
इसके बाद जो होना था वही हुआ हमारी करीबी जग जाहिर हो गयी और फिर जैसा अक्सर होता है ज़माना दुश्मन बन गया। तिरछे तिक्खे तीर चले, अपनों की ओर से ही। बंदिशों पर बंदिशें, बिलबिला कर रह जाने के अलावा ना कुछ कहा जाए ना किया। गहरी उदासी ने बुरी तरह घेर लिया। उसी बीच उसका फोन आया, उधर से बड़ी उमंग से बुलाया गया - " जाने से पहले मिल कर जाइएगा -------------" लेकिन ऐसे में सबके बीच कोई जवाब नहीं दे पाया। भीतर-भीतर अजीब सी कसमसाहट, हाथ थरथराए, फिर रिसीवर पटक कर बाहर निकल गया।
धुंधले आसमान पर झाड़ियों से झांकता बड़ा सा पूनो वाला चाँद उभर आया। छोटे छोटे क़दम धरते उसे ही एकटक देखते - 'सूनी-सूनी निपट अकेली, भीगे नयनों रैन कटी। पूरा पीला चाँद ताकते, पिघल चाँदनी तरल बही।।'
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