Thursday, May 3, 2018

अफ़ग़ानिस्तान ५: 'कोह-ए-बाबा की छाँव में'

Published by Rakesh TewariMay 1 at 7:18pm

अफ़ग़ानिस्तान ५: 'कोह-ए-बाबा की छाँव में'

काबुल जाने का सब जुगाड़ बन जाने के बाद भी जिउ मनसाइन नहीं हुआ। कहाँ तो एक ही दीवानगी काफी है जी-जी के मरने और मर-मर कर जीने के लिए और यहाँ तो लग गयीं दो-दो। एक लगी घुमक्क्ड़ी से और दूसरी लगी दिल से। नतीजतन दिल रह गया दिल्ली में और देह ढुलक चली काबुल की ओर।
जहाज के टिकट अमृतसर से काबुल के थे, वहाँ जाने के लिए पहले दिल्ली से आगे जगाधरी (श्याम जी के घर) के लिए निकले। पूरे रास्ते सब के सब मौन साधे रहे, माहौल बोझिल बना रहा। खिड़की से बाहर सड़क के बगल में दीखते रहे भरपूर खिले पीले फूलों से लदे अमलतास। जेहन में मंडराती रही कहीं सुनी कहन - 'ऐ रब ! केहू के एक्कै साथे दू गो दीवानगी ना देइहा।'
जगाधरी के आस-पास बस रहे पाकिस्तान से आए लोगों के बने-अधबने मकानों और रेलवे लाइन के बीच खासी खाली ज़मीन दिखती। बिरादरी के लोगों के साथ साथ रहने की चाहत में, एयर फ़ोर्स की नौकरी से रिटायर होने के बाद, श्याम के बड़े भाई ने भी वहीँ अपना 'अशोक हट' बनाया, फिर रेलवे की नौकरी पूरी होने पर ब्रिटिश फ़ौज में रह चुके उनके पिता भी वहीँ आ बसे। हम सबको आया देख पूरे परिवार में स्वागत सत्कार की हलचल मच गयी। हंसती- मुस्कुराती माता जी और भाभी जी चाय-चू, भोजन-पानी और राज़ी ख़ुशी की बातों में लग गयीं। अशोक भाई साहब, मेरे बड़े भाई, श्याम और उनके पिता जी की बतकही अलग।
जगाधरी से ट्रेन से चले तो अलग हट कर चुपचाप खिड़की के बाहर देखता रहा। दिल्ली का हवाल सुन समझ कर आम तौर पर चुहलबाज श्याम भी मामले की नज़ाकत भांप कर चटकारा लेने से बाज आए। बीच बीच में स्टेशनों पर गाड़ी ठहरने पर पास आते और दो चार बोल बोल कर सबके साथ जा बैठते। अमृतसर में जालियां वाला बाग़, स्वर्ण मन्दिर में माथा नवाते दिन चढ़ते गरमी बढ़ने लगी।
शहर से कोई दस किलोमीटर का सूनसान रास्ता पार कर छोटे से 'राजा सांसी हवाई अड्डे' तक आसानी से पहुँच गए। हमारे साथ जा रही सवारियों में से ज्यादातर नौकरी की तलाश में परदेश जा रहे पगड़ी वाले सिख, पंजाबी, कुछ अफ़ग़ान और कुछ सैलानी शामिल दिखे। छोटे से डिपार्चर रूम में इतने लोगों के लिए मतलब भर जगह नहीं और ऊपर से चिपचिपी गरमी और बातचीत न का शोरगुल।
बोर्डिंग के लिए सिक्योरिटी पार करते देखा जिसकी जेब में जितने रुपए निकलते सिपाहियों की मुट्ठी में समा जाते। बेचारे आम आदमी पछताते, पता होता तो इंडियन करेंसी लाते ही नहीं।
बांगला देश और श्रीलंका की उड़ान भर चुके श्याम के लिए तो नहीं पहलौठी हवाई यात्रा ने मेरे मन में कौतूहल भर दिया। खिड़की से दीखने लगे खिलौने जैसे गाँव, ग्राफनुमा खेत, लाहौर गुज़रा, चिनाब का पसरा पाट दिखा। तब तक नाश्ता सर्व होने के साथ सवारियां दारू की बोतलें खरीदने को टूट पड़ीं, पूछने पर पता चला काबुल में चौगुने दाम पर बेचने के लिए ले जा रहे हैं। हिंदुस्तान से भी ये लोग ऐसी चीजें खरीद कर लाते हैं जिनके बदले काबुल में अच्छे दाम मिल सकें।
सूखी सुलेमान पहाड़ियां पार हुईं और इक्का-दुक्का बादलों के बीच से तैरता हुआ सा हमारा तयारा बढ़ता गया। पहाड़ों पर कहीं घनी और कहीं छितरी झालर जैसी बर्फ की खूबसरती में खोए रह गए। कुछ और वक्त बीतते एअर होस्टेस के एनाउंसमेंट से ध्यान टूटा। वह अंग्रेजी, हिंदी, और उसके बाद पंजाबी, फिर पश्तो में बोली -
"सभी यात्री अपनी-अपनी बेल्ट कस लें. शीघ्र ही जहाज़ अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के हवाई अड्डे पर उतरने वाला है. बाहर का तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेड है।"
जहाज़ नीचे उतरते हुए एक ओर झुक का उड़ने लगा। नीचे पहाड़ियों से घिरी घाटी में मकान, खेत और एक सूखी जल-धारा नज़र आने लगी. खुली धूप में बेतरह चमक रही पहाड़ों पर पड़ी बर्फ ही बर्फ। साफ़ सफ़ेद हवाई पट्टी के किनारे कई जहाज तरतीब से खड़े दिखे। पट्टी को छू कर जहाज धीमा होता गया और फिर खिसकता हुआ, हाथ उठाए खड़े एक वर्दीधारी के इशारे के हिसाब से ठहर गया। सवारियों में जल्दी उतरने की हड़बड़ी मच गई। निकास वाले दरवाज़े पर दोनों हाथ जोड़ कर बनावटी मुस्कान बिखेरती एअर होस्टेस उतरने वालों को विदा करती हुई। उतरते वक्त श्याम की जेब पर लगे नेम-प्लेट पर नज़र गड़ाते हुए उनमें से एक ने आँखें फाड़ कर तनिक सी गर्दन झटक कर पूछा -
"ओह! यू आर आइरन मैन ? पहले नहीं पता चला, नहीं तो रास्ता अच्छा कटता !!!"
श्याम भी उनकी ओर वैसी ही मुस्कान उछाल कर धीरे धीरे सीढ़ी डर सीढ़ी उतर गए।
सामान पहुँचाने वाली ट्रालियों की भागम-भाग, हाथों में राइफल कसे चुस्त-दुरुस्त अफगान सिपाही, टोपी उछालता जहाज़ का मसखरा कप्तान और हवाई अड्डे की छत पर खुशी से हाथ, रूमाल या टोपियाँ हिलाते अपने अपने मेहमानों की अगवानी करते दोस्त, उनकी उल्लास भरी आवाजें। नएपन का नया और पूरी तरह अनकहा एहसास
वीसा, इम्मीग्रेशन, कस्टम से छुटकारा पा कर काबुल हवाई अड्डे से बाहर आए। थोड़े से लोग, ज्यादातर अफगानी लिबास में, खामोश आवा जाही। सड़क के किनारे बिकते शहतूत, फल और सूखे मेवे। सामने से टैक्सी पकड़ कर हिंदुस्तानी शफारत का रुख किया। सामने दिख रहे ऊंचे पहाड़ देख कर सोचने लगा - 'इतनी जद्दोजहद के बाद भी आखिर आ ही गए 'कोह-ए-बाबा की छाँव में' ।
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Photo 1: Snow Mountains of Kabul (Photo made by Joe Burger)

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