Tuesday, April 3, 2018

कण्ठ भरी

कण्ठ भरी
कुछ नज़दीकी, कुछ से दूरी,
कुछ उथली, कुछ से हमजोली,
कुछ कडुवी, कुछ से रसभीनी, 
कुछ गांठबंधी, कुछ से सफरी।
क्यों ठेस लगी इतनी गहरी,
क्यों घेर रही अनमन इतनी,
यह दुनिया ही है चलाचली,
चलती है यह हिलती डुलती।
फिर मृदल मृदुल भई भोरहरी,
फिर से बयार, यह मदिर बही,
फिर ऋतु आयी, नव् वसन धरी.
आयी है फिर से बनी ठनी।
शाखों पर नव कोपल फूटी,
बगियों में कोयल कूक रही,
फिर मनपाँखी सा उड़ा रही,
फिर लगा टिकोरे टेर रही।
मन साधो, सांची राह यही,
ना देखो आधी, या पूरी,
यह रंग भरी, या बदरंगी,
है अमिय हलाहल कण्ठ भरी।
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2. April 2018

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