Monday, April 30, 2018

अफ़ग़ानिस्तान ३ : 'हुकुम लाट साहब का'

 अफ़ग़ानिस्तान ३ : 'हुकुम लाट साहब का'
Published by Rakesh TewariApril 24 at 9:45am
पाकिस्तान से ट्रांज़िट वीसा ना मिलने पर हम अपनी योजना ठंढे बस्ते में डाल कर भूल ग
श्याम जी भी अपने में मस्त हो गए यहाँ तक की लॉट साहब को भी बताना भूल गए। कुछ दिन बीत गए तो लाट साहब बेचैन होने लगे। जब-तब राजभवन जा धमकने वाले श्याम जी से बतकही में उन्हें बड़ा मज़ा आता। सोचने लगे - ऐसा क्या हुआ कि इधर आए नहीं और कोई खबर भी नहीं। जाने से पहले मिलना तो बनता ही था। हरकारे भेज कर बलरामपुर हॉस्टल से बुला भेजा।
हम दोनों साथ-साथ मिलने गए। देखते ही प्रसन्नमुख सवाल किया - 'अरे तुम लोग अभी अपने टूर पर नहीं निकला? हम सोचा पहलवान अब तक निकल गया होगा। तुम तो अभी यहीं घूम रहा है। क्या बात हो गया !!"
श्याम जी ने बताया - "आप के रुक्के की बदौलत वैसे तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन पाकिस्तान ने 'ट्रांज़िट वीसा' नहीं दिया। पाकिस्तान के रास्ते से गए बिना आगे जाएं तो कैसे ?"
यह सुन कर लाट साहब पर कोई असर नहीं पड़ा। पहले की तरह राजदण्ड से खेलते हुए बोले - "इसमें क्या है? नहीं मोटरसाइकिल से जा सकता तो हवाई जहाज से जाओ।"
श्याम जी ने अपने लहजे में बेबाक जड़ दिया - "इतने अमीर होते तो लल्लन टॉप होते।"
लेकिन 'लाट साहब' भी 'लाट साहब' ठहरे। फोन उठा कर मजमूदार साहब को बुलाया। देखते ही देखते हमारी यूनिवर्सिटी के 'वाइस चान्सलरों' को आने-जाने का किराया मुहैया करवाने का फरमान भिजवाया और उनकी एक एक कॉपी हमें दे कर उनसे मिलने की हिदायत दी।
इसकी तो हमने सपने में भी ना सोची थी। नए उत्साह से भर कर चलने के लिए तत्पर होते तब तक लाट साहब ने पुकार लगाई -
"अरे भाई पहलवान को कुछ मिठाई तो खिलाओ, बहुत पसंद है इसको।"
फिर शयाम जी और 'लाट साहब' बातों में मशगूल हो गए और मैं सोचने लगा इसको कहते हैं ऊपर वाले की रहमत। पल में बदरी पल में धूप।
बनारस पहुँच कर अगले ही दिन, पहली बार, सीढ़ियां चढ़ कर बीएचयू के वीसी-ऑफिस के सामने पहुंचा। देख-ताक कर उनके सचिव की मार्फत 'लाट साहब' का फरमान भीतर भिजवा कर बाहर टहलने लगा। कुछ ही देर लगी होगी, भीतर से बुलावा ले कर सचिव साहब खुद ही बाहर आ गए।
तीन साल में पहली बार वी.सी. महोदय से मिलने का मौक़ा मिला वह भी इतने ठसके के साथ। उन्होंने बड़े प्यार से सामने बिठा कर हाल-चाल जाना। चाय की चुस्कियों के साथ अगले -पिछले अभियानों की जानकारी लेते रहे। तब तक रजिस्ट्रार साहब खुदबखुद काबुल से अमृतसर तक के हवाई जहाज के लौटानी किराए भर की रकम एक लिफ़ाफ़े में सलीके से थमा गए।
लखनऊ आ कर बड़े ताव से मूंछों पर हाथ फेरते हुए श्याम जी को अपने किराए का इंतिज़ाम हो जाने की खबर सुनाई लेकिन ऐसा सुन कर अमूमन उछल पड़ने वाले अपने स्वाभाव के उलट वे थोड़ा ग़मगीन नज़र आए।
पता चला उनकी यूनिवर्सिटी के वीसी ने यह कह कर छूछा लौटा दिया कि मार्च का महीने में बजट में पैसा ही नहीं बचा है।
ऐसे में, अब तक राजभवन के दुलार से परच चुके मेरे मन ने लहकारा मारा और, मैंने छूटते ही ललकारा - "चलो 'लाट साहब' को बताया जाय।"
यह सुन कर वे तिनकने लगे - "अब बार-बार उनसे क्या कहें। बजट में पैसा ही नहीं है तो वो क्या क्या करेंगे।"
लेकिन 'चट गुस्सा पट मोहन भोग' जैसे उनके मिज़ाज़ को मनाने के लिए लिए थोड़ी देर का मान मनुहार कारगर रहा। पहले की तरह चहकते हुए तैयार हो गए राजभवन चलने के लिए।
'लाट साहब' ने मुस्कुराते हुए सगरा मसला सुना और चुटकियां बजाते हल हासिल। सीधे लखनऊ युनिवेर्सिटी के वीसी से बात की - "क्या बात है भई !! लड़का लोगों को जाना माँगता। ऐड्वेन्चरस लड़का लोग है, कुछ तो करना होगा। इस साल के बजट में नहीं है तो अगले साल के बजट से एडवांस में देगा।"
इसके आगे कसर ही कहाँ रह गयी। 'जैसा हुकुम लाट साहब का' - श्याम जी को भी मतलब भर रकम मिलने में वक्त नहीं लगा।
नकदी टेंटियाए निकल लिए हम बनारस से और श्याम जी लखनऊ से, और मेरे माता-पिता और बड़े भाई अपने ठिकाने से हमें विदाई देने के लिए - अमृतसर के लिए, बारास्ते दिल्ली।
दिल्ली हो कर इसलिए कि बकिया के रहे-सहे इंतज़ामात पूरे कर लिए जाएं। और, इसलिए भी कि इतने लम्बे अरसे के लिए निकलने से पहले, ख़ास-खास और 'खासमखास' लोगों से मेल-मुलाकात और बतरस का सुख संजोया जा सके।
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