Thursday, December 5, 2019

पुस्तक के बारे में लेखक का कहना है -

Rakesh Tewari
Published by Rakesh Tewari21 mins
रश्मि प्रकाशन लखनऊ
( पुस्तक के बारे में लेखक का कहना है -
जब जब मौका बना, बार-बार सोनभद्र, मीरजापुर और चंदौली जिलों में डेरा डाल कर शिला-चित्रों, मन्दिरों-मूर्तियों, किलों वगैरह का लेखा जुटाने के साथ ही सोन, रेणु, रिहन्द और बेलन की घाटियों, घाटों, वनों और गाँवों की खाक छानते, स्थानीय लोक-कथाओं-गीतों, बोली-बानी का रस-पान करता रहा। इस बीच निर्जन कुदरती दामन की तनहाई में सुकून पाने के नशे में, देखे-सुने और संवेगों-संवेदानाओं को लिख कर संजोने के चस्के के चलते यह वृत्तांत लिखा, अपनी 'भाखा' में- इस आशय से कि जिन आम लोगों की कमाई से ताजिदगी पगार पाते रहे, उन्हें भी तो पता चले कि उसका हासिल हिसाब क्या रहा।)
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रफ्तार से भागती रेलगाड़ी खटाखट चोपन की ओर बढ़ी जा रही थी। कुँवर सामने की बर्थ पर खर्राटे भर रहे थे। किन्हीं साहबान ने अचानक डिब्बे का दरवाजा खोल दिया, गलन भरी हवा का झोंका एकबारगी भीतर घुस आया। कम्बल-रजाई में लिपटी सवारियाँ गुड़मुड़ा कर गठरी बन गयीं। स्लीपिंग-बैग की चेन मुँह तक चढ़ा कर मैंने करवट बदली। आँखों में नींद नहीं उतर रही थी। उत्तरी विंध्य का यह इलाका मेरा बड़ा प्यारा मुकाम रहा है। एक बार फिर उधर बढ़ते हुए पुरानी यादें बरसाती बादलों जैसी घुमड़ती चली आ रही थीं।
बीस बरस की उमर में, 1973 की ऐसी ही एक ठिठुरन भरी आधी रात में, चलते ट्रक के डाले पर सिकुड़े हुए हम रह-रह कर कम्बल लपेटते किसी तरह सर्दी झेल रहे थे।
थरथराती शीत-लहरी से परलोक सिधारने वालों की खबरें रोज ही अखबारों में पढ़ने के बाद भी आवारा हवा-सा घूमने का नशा तब भी माथे पर चढ़ कर बोल रहा था। तैयारी में लगा, तो पंद्रह बरस के अजय भी साथ लग लिये। सर्दी का हवाला देकर उन्हें बरजने की बहुत कोशिश की - ‘बड़ी ठंड है, ऐसे में तुम कहाँ चलोगे, जाओ माँ से पूछ कर आओ।’

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