Friday, June 7, 2019

'बालू के घर बनाने !!'

'बालू के घर बनाने !!'    

खामोश चलते चलते, क़दमों से नाप आते,
हवाओं में जज़्ब रहते, बारिश में भीग आते। 

मैदान हो या दरिया, सागर या कोई दर्रा, 
मरू हो या हो हिमालय, सब घूम-घाम आते।   

पोखर के पास बैठे, ख्यालों में डूब जाते, 
बगिया हो वन कहीं भी, डेरा लगा के आते।    

तट-धार तकते रहते, कश्ती में शाम ढलते, 
धरती के कोने अंतरे, आँखों में भरते रहते। 

कितनी गज़ब की नूरी ! कुदरत से बात करते, 
उठती हुई गमक यूं सांसों में खींच लेते। 
 
झरनों की झनझनाहट दूरी से गुनते रहते, 
धुन माधुरी वो कैसी बँसवारियों में सुनत।     

जिनसे जहां पे चाहे, उनसे वहीँ पे मिलते, 
दिल में भरा हुआ जो, साझा उन्हीं से करते।   

तारों भरे गगन में, गंगा नहा के आते, 
जितनी भी आस होती, मनौती में मान आते।   

दुनिया की सारी जिन्सें, मुट्ठी में भरते रहते, 
सपनो में सब सहल है, बालू के घर बनाने !!   

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  • Ashok Kumar Singh
    अति सुंदर सर्।
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  • Afjal Khan
    वाह अद्भुत. गुलजार साहब और जावेद अख्तर साहब के समकक्ष आपकी रचना को सलाम.! इतनी निर्दोष आशा, जीवन से करना बेजोड़ है. 🙏💐💐👏
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  • Ravikesh Mishra
    'तारों भरे गगन में, गंगा नहा के आते....... वाह! आह्लादक चाह!
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  • Suhail Siddiqui
    बेहद खूबसूरत वर्णन किया है सर काश फिर से वही दिन आए
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  • Shakuntala Singh
    Bahut sundar Bhai saheb 🙏
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  • Janak Singh
    Wow beautiful
    Supet
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  • Ajay Kumar Pandey
    Bahut sunder
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  • Satish Jain
    जिनसे जहाँ पे चाहा *******
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  • Satish Jain
    राकेश जी विश्वास करियेगा , प्रभु कृपा से आज भी सब कुछ वही कर पा रहा हूँ , जो जो आपने लिखा है , जिसकी कल्पना की है या भोगा है ।
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      Rakesh Tewari
      बहुत बढ़िया। बधाई !!
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  • Sheela Roy
    Kavitae padhti hu., .toh lagta hai kitni saralta se shabdo kause kerte hai ki ek tasveer si bn jati hai.
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  • Durganandan Tiwari
    ये है मन से निकली मन की बात.... बहुत सुन्दर रचना 🌹🌹
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  • Greeshm Sinha
    मैदान हो या दरिया, सागर या कोई दर्रा.
    मरु हो या हो हिमालय, सब घूम घाम आते.
    .… 
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      Rakesh Tewari
      बहुत सुन्दर !!
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    • Satish Jain
      मैनें save कर लिया ।
      क्या उपमाएँ हैं … 
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    • Satish Jain
      "" तलाशे यार ( प्रभू ) में छोड़ी ना सरजमींं कोई
      हमारे पांव में चक्कर है आसमां की तरह ""
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    • Greeshm Sinha
      Satish Jain सर धन्यवाद। रॉकी भाईसाहब के सान्निध्य में, जीवन के प्रारंभिक कुछ बरसों में, प्रकृति के इस उन्मुक्त थिएटर का आनंद प्राप्त करने का अवसर हुआ। सच मानिए वो खुमार कभी उतरा ही नहीं। सौभाग्य मेरा। वर्ष1979-80, तबतक इतनी भीडभाड़ नहीं हुई थी। चोपन थाने के कैंपस में एक दूसरे के सामने मुंह किए हुए लगे तीन स्विस कैनवस कैंप, डेलीवेज पर तीन चौकीदार पांच लोकल गाइड, सभी आदिवासी, थाने की चहारदीवारी के बगल में मंथर गति से बहती सोननदी, और सुबह सुबह सूरज की रोशनी में वास्तव में सोने सी चमकती उसकी रेत, ढेर सारे सुरखाब पक्षी- इनके पंखों में लाल रंग की झलक आती है, सामने कैमूर पर्वत श्रेणी, बगल से उतरती मारकुंडी घाटी से आती सड़क, सामने दिखता सोन नदी पर बना चोपन कस्बे को जोड़ता पुल, जाडे़ की सुबहें और थाने के कुएँ पर खुले में स्नान, लकड़ी के चूल्हे पर सवेरे सवेरे बनता खाना, असीमित दूरियों वाली, कभी एक, कभी दो, कभी तीन और चार चार दिनों की पैदल यात्राएं, कभी खुले आसमान के नीचे, कभी गुफ़ाओं में तो कभी चित्रित शैलाश्रयों में सोना, जलते अलावों के सहारे रात गुजारना, झरनों पर नहाना खाना, पहाडिय़ों की ऊंचाई और खुली हवा में चांद और तारे सच में सिर्फ आपके लिए बनाए और बहुत नज़दीक लगते हैं, वो हवा की ताज़गी और तारों की चमक आज भी महसूस होती है। अनगिनत स्थानीय नदियों रेनु, बीजुल, कनहर को कभी घुटनों तो कभी गरदनों तक पानी में चलकर पार किया गया, अघोरी बिजयगढ़ के किले नापे गए, तमाम नये चित्रित शैलाश्रय तलाशे गये, जंगली जानवरों के बगल से गुजरे, कभी सामना भी हुआ, मंदिरों मजारों पर चढ़ाया हुआ चढ़ावा मिलबांट कर खाया, आदिवासियों के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना और तीरकमान चलाना सीखा, देखा कि एकलव्य के आदिवासी वंशज आज अंगूठा होने पर भी अपने पूर्वज के सम्मान की रक्षा में तीर पकड़ने के लिए अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। वे तीर को प्रत्यंचा पर खींचने के लिए तर्जनी और मध्यमा उंगली का प्रयोग करते हैं। रॉकी भाईसाहब की गंगायात्रा,हेमकुण्ड साहिब और अफगानिस्तान की कहानियां। राहुल सांस्कृत्यायन की यायावरीऔर देवकीनंदन खत्री का तिलिस्म। लोरिक की लोकगाथाएँ। जवानी की उम्र, मस्ती का आलम, और एक अजीब कल्पनाओं का संसार। घुमक्कड़ी और फक्कड़ी का नशा। पैसे न तो किसी की जेब में, और उन जंगल पहाड़ों में न उसकी कोई उपादेयता। सर, सब अद्भुत था। यह 22-23 वर्ष की आयु में घटित हुआ, और आज 64-65 वर्ष की आयु में सुबह ही हवा की महक सा ताजा है। अद्भुत।अनुपम।अनिर्वचनीय।
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    • Satish Jain
      Greeshm Sinha
      ""ले तो आए हो हमें सपनों के गाँव में"
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      Rakesh Tewari
      Greeshm Sinha ग्रीष्म जी ! आपकी लेखन शैली बहुत प्रभावशाली और समृद्ध है। आप अपने संस्मरण भी लिख डालिए। मंगल कामनाओं सहित।
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    You're commenting as Rakesh Tewari.
  • Radha Kant Varma
    समय बीतने पर यादे ही रहजाती है
  • Satish Jain
    आभार और स्वागत । श्री उपाध्याय जी ।
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  • Narendra Neerav
    जीवन-यात्रा का गीत।जय हो
  • Atul Kumar Sinha
    तौफ़ीक़ काश होती, कुछ यूं भी कर गुजरते ।
    कुछ घड़ियां रोक लेते ,फ़िर वक़्त पलट लाते।।
  • Satish Jain
    तिवारी जी !
    सच्ची पून्छू ???
    कोई एक चीज़ बताइये जो आप आज नही कर सकते … 
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      Rakesh Tewari
      सब कर सकते हैं, बालू के घर बनाते हुए। 🙏🙏
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  • Shyam Murti Gupta
    Bahut sundar
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    Rakesh Tewari
    'तारों भरे गगन में, गंगा नहा के आते,
    जितनी भी आस होती, मनौती में मान आते।'
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  • Sanjay Garg
    Parwaz-e takhayyul hai, socho to ye mumkin hai,
    Be-sakhta, jadu hai, lafzon ka tilism hai.
    Bahut khoob... Zindabad
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      Rakesh Tewari
      शुक्रिया ! शुक्रिया !
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  • JP Upadhyaya
    " Jitni bhi aas hoti , sab manauti maan aate " Kya kahien Wah !!!
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1 comment:

  1. बहुत प्यारी रचना है भैया����बारिश की पहली फुहार के आगमन पर ताज़गी भरी ये रचना मन को पुलकित कर देती है। कल्पनाओं का बहुत सुंदर आकाश सजाया है आपने इन मनोरम पंक्तियों में।��������

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