Friday, November 3, 2017

क्यूँ बताया नहीं


क्यूँ बताया नहीं

आने जाने का मंज़र, हवा वो ज़मी,
लोग बदले हैं लेकिन डगर तो वही।
हैं कतारें वही, घाट-ओ-मन्दिर वही,
है चलन कुछ नया, पर किनारा वही।
हिलते डुलते चलें, हैं वो बजड़े वही,
झिल-मिलाती हुई हैं ये लहरें वही।
देवता फिर से उतरें, है आशा वही,
सज गयी फिर दियाली, है धारा वही।
लौट पाएंगे फिर से वहीँ तो नहीं,
बैठ लेंगे कहीं पर, घड़ी दो घड़ी।
आ सको गर तो आओ मिलेंगे वहीं,
कैसे लगते हो बस देख लेंगे यही।
ना समय ही रहा, ना वो बातें रहीं,
गुफ्तुगू फिर भी कुछ तो करेंगे कहीं।
बात होगी, कहो, कैसी तुम्हरी कटी,
कितनी मीठी वो कितनी कसैली रही।
काशी नगरी में ठहरेंगे दो दिन वहीं,
फिर न कहना हमें क्यूँ बताया नहीं।
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