Thursday, August 10, 2017

मेला मेली

Rakesh Tewari
मेला मेली
जब लौं हिलती डुलती थिरती,
भावों की बहिया फिर उठती।
एक ठिकाने टिक नहीं ठह्ती,
कनकैय्या जस नाचा करती।
हम समझें उस ओर चली,
पर हवा कहाँ किसकी सुनती।
राग विराग ओरहनों वारी,
बुनती गुनती बोझिल उंघती।
सांस चले अटकी लटकी,
हदद हिसाब न गिनती की।
बड़े जतन से धुनिया धूनी,
जुलहा ताना बाना बूनी।
रंगरेजवा ने कस रंग डारी,
रंग बिरंगी सुपनों वारी।
समय काल अस करवट बदली,
पल भर में उधरी बुनिवाई।
चार दिनन की मेला मेली,
हिल मिल खेलो, मिले मिताई।
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