Monday, May 9, 2022

 (1) ' दिल हुमकता है ' 


सामने स्पंदित कल्पनातीत कुदरती स्वप्नलोक के सम्मोहन में मन्त्र-मुग्ध रह गया। घने कुहासे-तिरते बादलों में से झांकती तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी लबालब झिलमिल झील। तट पर चढ़ती चली आ रही छपछपाती लहरों पर नाचती पाल सजी, चप्पुओं से चंचल और किनारे पर थरथराती कतार लगाए रंग-बिरंगी नावें। पाहड़ों की हरियाली के बीच ढुके हुए से मकान-होटल। भीगे भीगे मुलायम मौसम में मुग्ध तरुण हृदय में आप्लावित होते कोमल भावोद्वेग। 

पहली पहली बार ट्रेन की खिड़कियों से पहाड़ दीखते ही हम झांक-झांक कर कूद कर उन पर चढ़ जाने को लालायित हुए जाते। काठगोदाम से आगे टैक्सी में बढ़ते नीचे बहती धारा, बाएं बाजू  जगह-जगह पहाड़ से झरझराती धाराएं, धीरे धीरे घूमती चढ़ती चकरियादार सड़क के नज़ारे निरखते चकित हुए जाते। मगर  टैक्सी स्टैंड पर पहुँचते ही उससे भी अद्भुत कुदरती जादू में बंध कर रह गए। आँखों में बसी उस दौर के नैनीताल की वैसी भावरंग भीनी  अलौकिक छवि उसके बाद एक बार फिर से देख पाने को जीवन भर तरसते ही रह गए।  

बावन बरस से कुछ ऊपर बीते। इंटर में पढ़ते थे। कलकत्ता से आए सेठ साहब के कम-उम्र साले साहब का नैनीताल घूमने का मन कर गया। अब उसे अकेले कैसे भेजा जाता।  तय हुआ उनके साथ फैक्ट्री मैनेजर साहब के पोतों यानी मुझे और बड़े भैया को भी उनके साथ भेजने का। इस तरह हमारी किस्मत का छींका फूट कर बहा ले गया हिमालय की पहली झांकी दिखाने। गुदगुदाते, तरंगित, रह रह कर उछलते मेरे कोरे-कोरे अंतर्मन के हाल कैसा रहा होगा वही समझ सकता है जिसने उस उम्र  में वैसा मौका पाया हो।  

झील से सटे दाएं बाजू थोड़ी सी चढ़ाई चढ़ कर एक होटल में डेरा डाला।  कौतुक भरी आँखों में भर-भर कर भरते रहे झील से सटी अंग्रेजी माल-रोड, उसके नीचे हिन्दुस्तानियों  के चलने के लिए बनी निचली ठंढी सड़क के नज़ारे। चंक्रमण कर आए चीना पीक, स्नो व्यू, किलबरी, गवर्नर हाउस, नैना देवी मंदिर, बोत क्लब, शेरवुड कॉलेज ले जाती पगियों पर।  उन दिनों नाव चलाने में महारत हासिल करने की  चाहत पूरी कर लेने की नीयत से मौके का फायदा उठा कर एक नाव वाले से दोस्ती कर ली। फिर तो अक्सर उसे नाव में एक किनारे बैठा कर मल्ली-ताल से तल्ली-ताल और तल्ली-ताल से मल्ली-ताल तक चप्पू चलाते फेरी लगाता उसकी सवारियां उतरने लगा। बैठे-ठाले उसकी मौज हो गयी और अपने हाथ सधते गए।  

श्रेष्ठि-पुत्र और भैया जब बाज़ार की टहल पर निकलते और मेरा मन वहां जाने का नहीं करता तो अपने होटल के पोर्टिको में बैठ कर चुपचाप ताका करता। वहीँ ठहरा एक हम-उम्र लड़का भी वहीँ आ जाता। जब-तब दिख जाती बगल के कमरे में रह-रहे स्थानीय परिवार के साथ रह रही एक सुन्दर सी मासूम लड़की। आते जाते उसकी झलक पाने के लालच में अधिक से अधिक समय वहीँ बिताने का राज उस लड़के ने थोड़ा भरोसा होने पर साझा किया । एक दिन एक गिलास पानी मांगने के बहाने उससे बात करके देर तक मगन रहा। लेकिन होटल के कर्मचारी से लड़की के ब्वाय-फ्रेंड की जानकारी मिलने पर मन मार कर मायूस हो गया। 

बड़ी हसरत से दिल हुमकता है जब-तब तब से अब तक - काश ! सोलह वर्ष की उम्र वाली उस सैर की छवियों और भावों में एक बार फिर से जी पाते। 

 --------

No comments:

Post a Comment