Friday, April 16, 2021

 कैम्ब्रिज: 

ये कहानी एक अत्यंत संकोची स्वजन की है। गहन अपनापे और भरोसे के बिना ऐसे लोग अपनी निजता साझा नहीं करते। सोचता रहा कभी इत्मीनान से लिखूंगा उनकी कहानी, खूब सोच समझ कर। लेकिन इस दौर में, कब्रिस्तान और वैकुण्ठ धाम पर लग रही कतारों की खबर देखते-पढ़ते सोचने लगा सोचते-सोचते कहीं सोचना ही न रह जाए, और अरबराने लगा हूँ अभी ही कैसे भी लिख डालने को। 

उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी 'कैंब्रिज युनिवर्सिटी' की उस शानदार लाइब्रेरी में।  न दिनों 'एन्सिएंट इंडिया एंड ईरान ट्रस्ट' की फेलोशिप पा कर कैंब्रिज के 'ब्रूकलैंड एवेन्यू' वाले विक्टोरिया हाउस में बोरिया बिस्तर धरने के बाद  सबसे पहले कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में ही खूंटा गाड़ कर जमे हुए सरनाम दादा दिलीप चक्रवर्ती से मिलने गया। वहां की साफ़-सफाई चमक-दमक और गोरों के सलीके देखता सूट-बूट-टाई में सज कर छतरी दबाए भकुआया हुआ उनसे वहां के तौर तरीके समझने लगा। आगाह करते हुए उन्होंने बताया अपना हिन्दुस्तानी तरीका यहां नहीं चलता, जहाँ चाहो जब चाहो किसी के पास जा कर गोप (गप्प) मारने वाला हिसाब यहाँ चोलबे ना।  शाम तक लाइब्रेरी और शाम को या छुट्टी में ही मुझसे भी मिलना हो सकेगा। उनकी ताकीद को सख्ती से मान कर निहायत नए माहौल में चुपचाप लाइब्रेरी में दिन बिताने लगा।

मेरी फेलोशिप तो बस तीन महीने की थी मगर वो एक साल से एक रिसर्च-असाइनमेंट पर आए हुए थे। हिन्दुस्तानी होने के नाते उनसे बात करने को लहकता मगर दादा की ताकीद के मुताबिक़ मन मार कर रह जाता।  

-------

No comments:

Post a Comment