Friday, April 19, 2019

'चइत महिनवा - S - S '

with Subhash Chandra Yadav, Jyoti Singh, Indra Bhushan Singh
'चइत महिनवा - S - S ' 
ऊपरी मंज़िल पर ले जाती सीढ़ियों पर दोनों बगल जलते नन्हें दीपों की कतार देख कर लगा - कोई मांगलिक पर्व है आज।
ऊपर पहुँचने पर कूलर वाले ठंढे कमरे में आराम से बिठा कर दरवाज़ा ओढ़का दिया गया। बगल के कमरों से लोगों की आवाजाही और बोलने की आवाज़ से आती रही। सुभाष जी ने कहा था - 'शाम को आइए कुछ लोगों के साथ यूं ही बात करेंगे'। सोचा वही लोग आ रहे होंगे। लेकिन चाय-पानी लाते ले जाते खुलते पल्ले कुछ इस तरह बंद कर दिए जाते कि उधर झांकने तक की भी गुंजाइश नहीं रहती। मानो उस ओर कुछ गोपन चल रहा हो। थोड़ी थोड़ी देर में प्रशांत और सुजीत वगैरह अंदर आते भी तो बैठते नहीं जल्दी से चले जाते।
कुछ अंतराल के बाद ज्योति का आगमन होने पर पूछा - 'आप भी आयी हैं ?' वो आँखें चमकाती बोलीं - 'आयी तो बहुत पहले से हूँ। तैयारी में लगी रही, आप के लिए एक छोटा सा सरप्राइज़ रखा है।' सुभाष ने कुछ और खुलासा किया - 'कुछ नहीं सर ! आपके सम्मान में थोड़ा सा कार्यक्रम रखा है, अपने ही लोगों के बीच'।
फिर, वे हमें आगे के सलीके से सजाए गए कमरे में लिवा ले गए। सामने खिड़कियों पर बौद्ध-प्रार्थना पटटों की फरफराती पञ्च-रंगी झण्डियां, ज़मीन पर बिछी सुन्दर कालीनें और उन पर सुरुचि से सजे लाल गुलाब की पंखुरियों और पीले फूलों से भरे छोटे बड़े प्याले प्यालियाँ, लालटेन, और दीप आदि। एक किनारे पर कुछ कुर्सियाँ, सामने उस सिरे की ओर तबला और हारमोनियम।
कार्यक्रम का संचालन कर रही सुश्री ज्योति सिंह और सुभाष जी ने एक-एक कर परिचय कराया वहाँ उपस्थित स्मित हास युक्त युवक-युवतियों से - आजकल रेणु जी वाले सप्त कोशी क्षेत्र के लोक गीतों पर शोध रत तन्वंगी गायिका डाक्टर प्रिया लक्ष्मी, नेपाल में पोखरा के आगे धौलागिरि के रास्ते के एक सुदूर गाँव के निवासी और वहां के लोक साहित्य पर शोध कर रहे बांसुरी वादक श्री हरि प्रसाद पौडियाल, मध्य प्रदेश के तबला वादक श्री चेतन शुक्ल, और हारमोनियम से सुरीले स्वर निकालने वाले श्री विक्की कुमार। सबसे मज़ेदार रहा आंग्ल लग रहे ख़ालिश गौरांग शख्सियत से मिलना, वस्तुतः वे निकले बलिया जिले के गंगा किनारे बसे एक गाँव के छोरे - डाक्टर श्रेवतेश उपाध्याय - गायन में पारंगत, और बड़ौदा में भरतनाट्यम की शिक्षा गृहण कर रही उनकी सुदर्शना बहन सुश्री प्रियंवदा।
सबसे पहले मकान मालकिन श्रीमती निवेदिता वर्मा ने आदर सहित काँधे पर सुन्दर सुसज्जित वस्त्र और हाथों में गुलाब का फूल भेंट कर मेरा मान बढ़ाया। फिर, सभी को उतने ही प्रेम और आदर से एक-एक फूल भेंट किए गए। ऐसे फूल जिनके स्पर्श से उनकी सहज कोमलता और डंडियों की नरमी ही नरमी मिलती, उनके साथ काँटों की चुभन बिलकुल नहीं क्योकि डाक्टर सुजीत कुमार चौबे और श्री प्रशांत राय ने उन्हें चुन चुन कर निकाल जो दिया था। इतने से ही समझी जा सकती है आयोजकों की संवेदनशीलता।
हम तीन को छोड़ बकिया ने आराम से भूमि पर आसन जमा लिए। इतने शांत, एकांत और गिने-चुने लोगों की ऐसी महफ़िल में पहलम पहल शामिल होते हुए सोचने लगा - 'कहाँ तो सोच रहा था कि यहाँ भी उसी पुरवा, नरिया, पुरातत्त्व पर चर्चा होगी और कहाँ यह रसभीना आयोजन। इतना स्नेह भरा विनम्र सम्मान। यह तो सचमुच एक सुखद आश्चर्य ही है। लेकिन, तब भी ज्योति जी का मेरे लिए विशेष रूप से रचाया गया सरप्राइज़ अभी परदे में ही होने का अनुमान नहीं लग पाया।
कार्यक्रम की शुरुआत हुई डाक्टर प्रिया लक्ष्मी के मधुर स्वरों में गाए भजन - 'तुम आशा विश्वास हमारे' से।
फिर, उन्होंने ही सुर उठाए चैती की धुन में - 'चढ़ल चइत चित लागे न रामा ! बाबा भवनवा !!
और फिर एक होरी - 'रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे !'
इसके बाद, छुपा कर रखा गया असली सरप्राइज़ सामने आया, डाक्टर श्रेवतेश उपाध्याय के सधे स्वरों के साथ -
'निमिया गइल पियराय हो रामा !
चइत महिनवा !
निमिया गइल पियराय हो रामा !
चइत महिनवा !
चइत महिनवा हो रामा !'
डूब गए शास्त्रीय और लोक गायन की अलग अलग शैलियों में लहराती धुनों के रसास्वादन में, - 'निमिया गइल पियराय हो रामा ! चइत महिनवा !'
असल में, यही कोई छह बरस बीते इंदू भइया ने एक 'चैती' भी लिख डालने की गुज़ारिश की थी होली के आस-पास लिखे मेरे इस गीत को पढ़ कर -
'अरे रामा ! हमरा हौ, हियरा हेरान।
केहू हेर पाई, हमनियौ बताई
फगुवा गवाई, गुललववौ उडाय,
कोनवा में कवने हौ, दुनिया लुकान,
अरे रामा ! हमरा हौ, हियरा हेरान।'
तब तो नहीं, इस साल चैत महीना लगते ही घर के सामने पियराती नीम और मौसम के बदलते करवट के असर से आपोआप भीतर से निकल पड़ीं ये सतरें - 'निमिया गइल पियराय हो रामा !' और एक गीत का रूप लेती गयीं। छब्बीस मार्च को इसे फेसबुक पर चस्पा करके सुभाष जी से कहा कि ज्योति से पूछिए क्या कोई इसे सुर में गा सकता है। मैं तो कह कर भूल गया और उनकी तरफ से कोई सुनगुन नहीं मिली।
इस बीच मेरे आने की जानकारी पा कर उन्होंने यह बात ज्योति से कही और ज्योति ने उपाध्याय जी को घेरा, मेरे आने के दो ही दिन पहले। इतनी सी नोटिस पर उन्होंने मेरे सामने उसे धुन में ढाल कर गाने का 'जो सरप्राइज' दिया उसका आनन्द 'गूंगे के गुड़ जैसा' अपनी पहली ही रचना ऐसे सरस सुरों में सुनने वाला ही अनुभूत कर सकता है।
फिर तो सबके प्रति बारम्बार हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए आगे के गायन-वादन में और अधिक रस घुल गया।
उपाध्याय जी ने गाए दो गीत दादरा की धुन में: 'श्याम बिना मोरी सूनी अटरिया ------------' 'बड़े नटखट हैं मोरे कंगना -------' ।
आगे, श्री हरि प्रसाद पौडियाल ने बांसुरी पर सुर दिए 'राग चंद्रकौंस' और दूसरी धुनों को। फिर उन्होंने उपाध्याय जी के साथ कुछ मशहूर ग़ज़लों के बाद आखीर में गाया -
'आज जाने की ज़िद ना करो,
यूं ही पहलू में बैठे रहो।
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वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर
चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
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कल की किस को ख़बर जान-ए-जाँ
रोक लो आज की रात को
आज जाने की ज़िद न करो
यूँही पहलू में बैठे रहो !!!!
सभी लोग उनके सुर में सुर मिलाते तरन्नुम के साथ झूमते रहे। उनके चेहरों पर मृदु आभा, शान्ति, प्रसन्नता और विनम्रता के भाव छलके पड़ते, जो उन्हें संगीत के नियमित अभ्यास से ही अर्जित हुआ होगा।
यूँ ही रात काट जाती, वहीँ पहलू बैठे हुए, अगर बीच में भोजन लग जाने की खबर ने दखल ना दी होती। उठना ही पड़ा ज़ेहन में तैरते बोल गुनगुनाते :"वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर, चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं।"
माटी की सोंधी गामक वाले बर्तनों में परोसा गया सुस्वादु भोजन अपनी अपनी थाली में ले कर कोई ज़मीन पर और कोई कुर्सियों पर जम गया।
धन्यवाद और आभार व्यक्त करते हुए आयोजकों को आगाह करना भी ज़रूरी लगता है कि - इस बार ऐसा 'बहुतै अनंद' छका कर उन्होंने लागी नाहीं छूटे रामा ! वाली तर्ज़ पर अगले प्रवासों में भी वैसा ही आनन्द पाने का करारा लासा भी लगा दिया है।
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गुरुधाम कालोनी, बनारस की इस यादगार शाम की फोटोग्राफ़ी और विडिओ रेकार्डिंग करते रहे प्रशांत राय और सुजीत चौबे और उनकी सहायता की श्री आशुतोष सिंह ने।

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