Friday, April 19, 2019

ज़खीरा सकास, सासाराम का

ज़खीरा सकास, सासाराम का
नाहक गड़े मुर्दे उखाड़ने में मुझे कोई इंट्रेस्ट नहीं, लेकिन फेसबुक पर तेज़ी से साया हो रही सकास के टीले की खुदाई से निकल रहे नर-कंकालों की तस्वीरें देख कर एक बार मौके पर जाने को मचल उठा। दरअसल इस गाँव के प्राचीन टीले में दबे ज़खीरे पर बरसों से नज़र जमाए था, और इसीलिए वहाँ जाने का मौक़ा मिलते ही लपक लिया। यह टीला गंगा तट पर बसे बनारस, पाटलिपुत्र (पटना) और राजगीर के बहुत पुराने सरनाम नगरों के बीच के इलाके में पड़ता है। तकरीबन 2600 सौ बरस पहले, मतलब बुद्ध के समय तक, स्थापित हो चुके इन नगरों के बीच के पथ विंध्य के उत्तर में गंगा तक फैले मटियाले मैदान वाले गलियारे से हो कर गुजरते रहे।
बनारस से चलकर सासाराम तक गंगा के किनारे-किनारे, मुगलसराय होकर आज के नेशनल हाई-वे के एलाइनमेंट वाले मैदानी इलाके, और अहिरौरा/भुइली के आगे चकिया, लतीफशाह, निंदौर/रतनपुरवा, मुंडेश्वरी हो कर सासाराम तक कैमूर और रोहितगिरि (रोहतास) की छाँव में बढ़ते हुए सासारम के आगे सोन-पार पूर्वोत्तर में पाटलिपुत्र और दक्षिण पूर्व में 'बोध गया' हो कर राजगीर तक ले जाते।घोड़े, हाथी, ऊँट बैलगाड़ी की सवारी में या पैदल ही इन पर चलने वाले सार्थ, यायावर, सैलानी और यात्री महुए, आम, जामुन, साखू, सागौन, पलाश, बांस और तमाल जैसे गाछों-कुंजों से भरे सघन वनों, धान के हरियाले खेतों के बीच से गुज़रते, चन्द्र-प्रभा, करमनासा, कुदरा और दुर्गावती जैसी नदियों और अनेकानेक जलधाराओं, प्रपातों, पर्वतों को पार करते अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य निहारते आनंद से अघाते चलते। आज भी कोई चाहे तो चौमासे से चैत तक इन पर चल कर सहज ही यह सुख पा सकता है। आज से लगभग तेईस सौ बरस पहले इनमें से कैमूर से सटे-सटे बढ़ने वाले राजमार्ग पर अहिरौरा, रतनपुरवा और सासाराम में सम्राट अशोक के लिखवाए शिला-लेख भी देखे जा सकते हैं।
इतना जान लेने के बाद ज़ेहन में ख़याल आने लगते हैं कि बनारस और राजगीर जैसे नगरों की बसावट अचानक 2600-2700 बार्स पहले तो प्रकट नहीं हो गयी होगी। वन्य उपजों के संग्रह और वन्य जीवों का आखेट करने वाले मानव समूह खेती और पशुपालन तक की प्राविधि सीख कर पहले छोटे गाँवों में बसे होंगे, फिर यही गाँव क्रमशः बड़े ग्रामों, महा ग्रामों, छोटे नगरों और फिर बड़े नगरों में विकसित हुए होंगे। जैसे हमारे प्राचीन साहित्य में 'काशी ग्राम' और 'काशी महाग्राम' का उल्लेख मिलता है वैसे ही इन मार्गों के आस-पास भी ऐसे अनेक ग्राम रहे होंगे। और, अगर ऐसा है तो इन इलाकों में प्राम्भिक खेतिहरों की बसावट के प्रमाण भी मिलने चाहिए। इतना ही नहीं प्राचीन मार्गों का उद्भव और विकास भी उनके बीच संपर्क मार्गों के रूप में हुआ होगा जिन्हे चिन्हित करने के लिए खोज अभियानों की ज़रूरत होगी।
उक्त बातों में से प्रारम्भिक खेतिहरों के बारे में अधिकाधिक जानकारी जुटाने के लिए बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय (बी एच यू) के पुराविद डाक्टर बीरेंद्र प्रताप सिंह ने 1985-86 से 1989-90 तक इस इलाके में जो शोध अभियान चलाए उनसे सासाराम के निकट सेनुवार के उत्खनन से वहाँ लगभग 4000 बरस पहले से रह रहे खेतिहरों के बारे में पक्की जानकारियां जुट गयीं। साथ ही यह भी पता चला कि उसी इलाके में सकास, डाइन डीह, मलवन जैसे अनेक पुरास्थल स्थित हैं जिनके उत्खनन से इतनी ही पुरानी बसावटों के प्रमाण मिल सकते हैं। डॉक्टर सिंह ने अपनी खोजों की विस्तृत रपट सन 2004 में Early Farming Communities of The Kaimur नाम से दो जिल्दों और उससे पहले और बाद के अनेक शोध पत्रों में प्रकाशित कराईं।
आगे की और ज्यादा जानकारी के लिए सकास वगैरह के टीलों के उत्खनन की ज़रूरत पर जब-तब बीएचयू के डॉक्टर रविंद्र सिंह से चर्चा करता रहता। इन टीलों के बिहार राज्य में होने की वजह से खुद तो यह काम हाथ में नहीं ले सका लेकिन डॉक्टर सिंह ने अपने सहयोगी डॉ. विकास कुमार सिंह के साथ यहाँ उत्खनन शुरू कराया। उनका न्यौता पा कर बीती 13 अप्रैल को बनारस के क्षेत्रीय पुरातत्त्व अधिकारी ड़ॉ सुभाष चंद्र यादव के साथ वहां का जायजा लिया। निकल रहे कंकाल और अन्य सामग्रियों पर एक नज़र डाल कर टिप्पस लगाया कि यहाँ की बसावट भी सेनुवार की तरह चार हजार बरस पहले बस कर कम से क्म अगले दो-ढाई हज़ार बरस तक वहीँ बसी रही। लेकिन न केवल सेनुवार वरन पूरे इलाके में जो अवशेष और कहीं नहीं मिल सके हैं, वे हैं यहाँ निकल रहे नर-कंकाल। इनके अध्ययन से वहाँ के तब के निवासियों के डील-डौल वगैरह की अभूतपूर्व जानकारी मिल सकेगी। खोज अभी जारी रहेगी, मौजूदा उत्खनन स्थल और गाँव की बसावट के आस पास भी। इनके परिणामों से निश्चय ही देश के पुरातात्विक नक़्शे पर 'सकास गाँव' एक प्रमुख नाम से दर्ज़ हो कर रहेगा।
मौके पर सकास की उपलब्धियों और तद्विषयक अन्य आयामों पर चर्चा में जिनसे लाभान्वित हुआ उनमें सम्मिलित रहे बीएचयू के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. ओंकार सिंह के साथ आए डॉ. ए. के. दुबे, डॉ. डी. के. ओझा, डॉ. प्रभाकर उपाध्याय, डॉ. अशोक कुमार सिंह, डॉ. सुजाता गौतम, डॉ. सचिन तिवारी, डॉ. विनय कुमार, डॉ. अमित उपाध्याय तथा उनके विद्यार्थियों आदि से चर्चा का लाभ तो मिला ही मिला गाँव वालों का सहज स्नेह भी पाया।
धन्यवाद: डॉ.रविंद्र सिंह, डॉ. विकास कुमार सिंह, श्री अरुण कुमार पांडे, श्री सुदर्शन सिंह, श्री रवि शंकर।
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