Sunday, May 6, 2018

अफ़ग़ानिस्तान ६: 'नेह का रंग एकसा'

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान ६: 'नेह का रंग एकसा'

सफारते हिन्द (भारतीय दूतावास) पहुंच कर वहाँ तैनात श्री अम्बा प्रसाद जी के लिए दिल्ली से लाए खत की बदौलत पूरी तवज्जो मिली। उनकी मदद से काबुल दरया के बगल 'असमाई मन्दिर' में डेरा पड़ा। मन्दिर की देखरेख करने वाली मुकामी हिन्दुओं की कमिटी के सदर हिन्द में तालीम पाए एक डाक्टर निकले, बड़े ही मिलनसार, व्यवहार कुशल और तमीज़दार। उन्हीं के ज़रिए हमें वहाँ पनाह मिली। एक हिन्दू मुसाफिर, ऊपर से सिफारती सिफारिश, मेहमान के लिए इतना फ़र्ज़ तो ठहरा ही।
मन्दिर के ठीक पीछे खुली जगह, गलियारा, एक छोटी दूकान, एक और बड़ा दरवाज़ा और बगल में दो कमरे जिनमें से एक में जमा हमारा ठिकाना। कमरे की दो दीवारें लकड़ी के पटरों की और दो माटी की, पटरे उठा कर खिड़की बना ली जाती, लकड़ी की धरन पर टिकी मिटटी की छत से रह रह कर झड़ता मिटटी का चूरा। एक कोने में लटकता जुगजुगाता बिजली का बड़ा सा बल्ब। फर्श पर प्लास्टिक जैसी चिपकी परत पर मन्दिर की तरफ से बिछा गद्दा-रज़ाई। हमारे आराम का पूरा इंतज़ाम। श्याम हमारा सामान सरिया कर बाहर निकल गए और अपन, फर्श पर पसर कर, सफारत से आते रास्ते में, अफ़ग़ान टूरिस्ट ऑफिस से जुटाई तफरीह लायक जगहों और अपने ठिकाने की जानकारी पढ़ने लगे।
चटपट दोस्ती गांठने में माहिर श्याम अभी अभी बनाए एक पश्तून दोस्त के साथ गरम चाय की केतली थामे लौटे तो मेरा ध्यान टूटा। इशारों-इशारों और टूटे फूटे लफ़्ज़ों में वे उसका हाल-ठिकाना पूछते रहे और वो उसी तरह उन्हें बताता रहा - 'पश्तून-हिन्दी, दोस्त, बिशियार खूब !!!' चाय ख़तम कर वे फिर बाहर निकल गए।
अकेला होने पर खाली खाली सा लगने लगा, पीछे छूट गए अपने मुल्क, लोगों और ख़ास तौर पर टटका जुड़े रिश्ते की यादें सताने लगीं। मन करता जल्दी से लौट जाऊं वापस वहीँ। उलट-पलट कर उसकी फोटो देखते उसका तकाज़ा कुनमुनाने लगा - "वहां जा कर चिट्ठी ज़रूर लिखना, घूमने-घामने में कहीं हमें ही न भूल जाना।" सोचा यही किया जाए, इसी बहाने लिख-लिख कर ही सही उससे बातें करने का सिलसिला बना रहेगा, और फिर लिखने बैठ गया -
असमाई मन्दिर, अफ़ग़ानिस्तान, 9 अप्रैल 1977
प्रिय ------
------------
तुमने कहा था भूल ही ना जाना और यहाँ तुम्हारे अलावा कहीं ध्यान नहीं टिक पा रहा। सब कुछ देखते पढ़ते बार-बार बस जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि -----। सोचा तुम्हें खत लिखने के बहाने ही कुछ मन लगा लूँ।
यहां 'कोह-ए-असमाई' के ठीक नीचे एक मन्दिर की धरमशाला में ठहरा हूँ। मन्दिर में दाखिले के लिए एक बड़ा सा लकड़ी का दरवाज़ा, उस पर जड़ी फौलादी कीलें। अन्दर, बीच में खुले आँगन के सामने, बाएं और दरवाज़े के पीछे स्थापित हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं। वहाँ आने वाले दर्शनार्थियों को शहतूत, अखरोट, बादाम, नखुद (चने) की परसादी बांटते दाएं बगल के बरामदेनुमा कमरे में रह रहे पुजारी से पाया मेवा चबला रहा हूँ।
'असमाई' या 'आशा माई' नाम की प्रकृति देवी की इबादत अफ़ग़ानिस्तान के हिंदुओं में हिंदू-शाही वक्त से चली आ रही है। भोर में मस्जिद की अज़ान के साथ यहाँ के हिन्दू आज भी ढोल-हारमोनियम-करताल की ताल पर मन्दिर में भजन के बोल जगा देते हैं। बगल में ही तामीर 'शाह दो शमशीरा मस्जिद'। पता नहीं इसकी कहानी में कितना मन लगेगा तुम्हारा लेकिन सबसे पहले वही लिखे देता हूँ।
'शाह दो शमशीरा' मतलब दो तलवारों वाला राजा। इस मस्जिद के नाम के साथ जुड़े किस्से के साथ बनारस में दुर्गाकुंड के रास्ते के किनारे पूजे जा रहे 'मुड़कट्टा बाबा' की याद आ गयी। मुड़कट्टा बाबा के गले में कंनैल, गुड़हल की माला, बदन पर लपटा लाल चन्दन, चरणों में चढ़े फल-फूल, सुलगती अगरबत्तियां। लोग कहते हैं ये बाबा मुस्लिम आक्रांताओं के खिलाफ इस बहादुरी से लड़े कि सर कट जाने के बाद भी धड़ बराबर जूझता रहा।  बाबा में बसा रहा बाब भोलेनाथ और बजरंगबली का बल और शाह के दम में बसा रहा 'अली दा दम'। उधर 'शाह' काबुल के हिन्दू मंदिर के लिए लड़ने वालों के खिलाफ दोनों हाथों से भरपूर शमशीर भाँजता रहा, बाला हिसार के पास पहले ही किसी की तलवार से कट कर धड़ से सिर अलग हो जाने के बाद भी। उसे वहीँ दफनाया गया और उसके ऊपर तामीर मस्जिद काबुल की ख़ास ज़ियारत बन गयी। बाबा और शाह दोनों अपनी अपनी जगह महान माने गए, अपनी-अपनी इंतिहाई बाहदुरी और शहादत के लिए। बनारस और काबुल, एक दूसरे से इतनी दूरी पर होते हुए भी इस मामले में कितने करीब हैं ना !!!, दोनों जगह एक सी दिलेरी के लिए एकसा एहतराम, ठीक उसी तरह जैसा कि नेह का रंग एकसा होता है सारी दुनिया में !!
------
खत अभी ज़ारी है
फोटो साभार : 1 Forman, Harrison, 1904-1978, फोटो १९५३
फोटो 2.Pigeons fly outside Shah-Do Shamshira mosque in Kabul, Afghanistan, Monday, July 1, 2013. (AP photo/Rahmat Gul)

No comments:

Post a Comment