Sunday, December 9, 2018

'बझ गए बचवा बाबा के फेरा में'


Published by Rakesh Tewari44 mins
पं. चन्द्रबली त्रिपाठी (125 वीं जयंती): 'बझ गए बचवा बाबा के फेरा में'
उमर का काँटा बढ़ने के साथ बड़का लगाव चोखरने लगा अपने गाँव-जवार के लिए। लम्बे फासले के बाद वहाँ जाने पर बहुत कुछ बदला मिला, किसी किसी ने हमें पहचाने और किसी किसी को ही हमने। ऐसे में मिलने का मौक़ा मिला, पिता जी के पुराने मित्र, चंद्रभाल चाचा जी से। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के निवासी, सन 1953 के आस-पास लखनऊ विश्व विद्यालय के धुरंधर छात्र नेता, फिर ऐन्थ्रोपोलजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के वरिष्ठ अधिकारी, बरसों बाद किसी समय बस्ती जाने पर उनके साथ भी वैसा ही हुआ, कुछ पुराने लोगों ने अचरज जताया - 'अच्छा तो आप 'बाबू चन्द्रबली त्रिपाठी' के पुत्र हैं !!' उन्हें सबसे ज्यादा खला यह जानकार कि आम तौर पर लोगों ने, खासकर नई पीढ़ी वालों ने, पंडित चंद्रबली त्रिपाठी जैसी विभूति तक का नाम नहीं सुना।
21 नवम्बर 1893 को सेखुई (कोटिया) गाँव में जन्मे श्री चंद्र बली त्रिपाठी के बड़े भाई श्री राजबली के पहले उनके परिवार में किसी ने औपचारिक शिक्षा नहीं पायी थी। बचपन में ही गाँव से अपने ननिहाल मगहर में रह कर श्री राजबली त्रिपाठी, वहीं से प्राथमिक और गोरखपुर से मिडिल तक की शिक्षा पा कर, बस्ती जिले के बिस्कोहर गाँव में अध्यापक बने। उनके प्रयत्नों से श्री चन्द्रबली जी ने 1908 में अपने गाँव के निकटस्थ प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने-लिखने का जो सिलसिला चला वह जीवन पर्यन्त रुका नहीं - ख़लीलाबाद से मिडिल, गोरखपुर के जुबली स्कूल से मैट्रीकुलेशन और सेंट ऐंड्रूज़ कालेज से एफ. ए. (1910-1917); म्योर कालेज प्रयाग से 1919 में बी. ए., 1921 में दर्शन शास्त्र में एम. ए. और एल.एल.बी.; काशी हिन्दू विश्व विद्यालय से 1923 में एल. टी. और हिंदी साहित्य सम्मेलन से विशारद। संस्कृत, हिंदी, उर्दू में निष्णात। गांधी जी के असहयोग आंदोलन के प्रभाव में उस ज़माने में आयकर अधिकारी के पद के लिए नामित होने के बाद भी उसे नकार देने वाले। 1922 में महामना मदन मोहन मालवीय के सचिव रहने के अतिरिक्त गोरखपुर में अध्यापन और एटा में हेडमास्टरी के बाद 1924-1959 तक बस्ती-कोर्ट में 'केवल सच्चे मुवक्किलों' के वादों की वकालत। इस बीच कई पुस्तकों का लेखन - 'देशभक्त पर्नेल' (1919), 'धर्मराज युधिष्ठिर' (1952), 'मैत्रेयी' (1955), 'बुद्ध और बौद्ध धर्म' (1956); वकालत से संन्यास के बाद बस चिंतन मनन और लेखन - 'भारतीय समाज में नारी आदर्शों का विकास' (1967), 'गायत्री उद्बोधिका' (1987); और अंत में 88 वर्ष की अवस्था में तीन खण्डों में 'उपनिषद् रहस्य'।
ऋषितुल्य जीवन जीने वाले पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी के विषय में उपरोक्त जानकारी मैंने भी तब जुटाई, उनके द्वितीय पुत्र श्री चंद्रमौलि त्रिपाठी जी के सौजन्य से, जब चन्द्रभाल चाचा ने हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा उनकी 125 जयंती पर दिनाँक 7 दिसंबर 2018 को त्रिवेणी सभागार में आयोजित संगोष्ठी में भाग लेने का आदेश दिया। जानकारी जुटाना और उन पर विचार व्यक्त करने की अपनी सीमाओं को बखूबी समझते हुए भी आदेश मानने के अलावा विकल्प ही नहीं रहा।
सभागार में पहुँचने पर जिसकी संभावना करता रहा वैसा ही घटित होता गया। संगोष्ठी में, मुझे छोड़ सब, एक से बढ़ कर एक भागीदार - अकादमी के सचिव देवभूमि हिमालय में क्रौंच पर्वत के निवासी डॉक्टर जीतराम भट्ट; मुख्य अतिथि - श्रीमती रिंकू दुग्गा, सचिव, भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग दिल्ली सरकार; अध्यक्ष - प्रोफेसर रमेश कुमार पाण्डे, कुलपति, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ; प्रोफेसर विश्वनाथ त्रिपाठी, पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, दिल्ली विश्व विद्यालय; श्री चन्द्रभाल त्रिपाठी; डॉक्टर मोहम्मद हनीफ शास्त्री, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान; और सुस्थापित लेखिका ड़ॉक्टर मुक्ता; और संगोष्ठी के सूत्रधार, कादम्बिनी के पूर्व सम्पादक-लेखक श्री विजय किशोर 'मानव'।
विधिवत ऋचापाठ से शुभारम्भ और पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी की सौवीं जयंती के अवसर पर उन पर बने वृत्तचित्र के प्रदर्शन से उनके कृतित्व के बारे में डाक्टर विद्यानिवास मिश्र, डॉक्टर कारण सिंह जैसे विद्वानों और उनके सहकर्मियों आदि के मंतव्य सुनते हुए मन ही मन सकपकाया - ऐसे विद्वानों के बीच कहाँ बझा दिया बाबा (पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी) पर बोलने के फेरा में, चन्द्रभाल चाचा ने मुझ पुरवा-नरिया वाले को।
संगोष्ठी का संचालन करते हुए श्री विजय किशोर जी ने गुरु-गंभीर वचनों में वक्ताओं को आज के सन्दर्भ में उपनिषदों की उपादेयता के बारे में बोलने के लिए अनुरोध के साथ एक-एक कर आमंत्रित किया। मुक्ता जी ने विशेष रूप से पंडित चन्द्रबली त्रिपाठी के स्त्री सरोकारों पर प्रकाश डाला। अन्य, शास्त्रज्ञ -मर्मज्ञ-संस्कृतज्ञ वक्ताओं ने ब्रह्मविद्या सम्बन्धी कठोपनिषद के नचिकेता-यम संवाद और ऐसे ही गूढ़ विषयों के सन्दर्भ में त्रिपाठी जी के 'उपनिषद रहस्य' के योगदान की चर्चा की, वैदिक ऋचाओं, गीता आदि के मूल संस्कृत उद्धरणों के साथ। जीवन में प्रश्न ही प्रश्न होते हैं, उत्तर नहीं - एक उत्तर मिलते ही नए प्रश्न उठ खड़े होते हैं, प्रश्न समाप्त होते ही जीवन भी समाप्त।
पहली बार जान पाया अपने ही जिले के खूब जाने सुने बाबा पण्डित चंद्रबली त्रिपाठी की विलक्षण प्रतिभा के बारे में जिन्होंने एक-दो नहीं समस्त एक सौ से अधिक उपनिषदों और उन पर उदभट विद्वानों की टीकाओं को पढ़-गुन-मथ कर, कहीं-कहीं शंकराचार्य जी और डॉक्टर राधा कृष्णन जैसे विद्वतजनों की व्याख्या से सादर विनीत मतभिन्नता व्यक्त करने का साहस करते हुए 'उपनिषद रहस्य' जैसी अमर रचना की।
भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक संस्कृत और साहित्य में गहरी पैठ रखने वाले श्री मुनीश चंद्र जोशी के संपर्क में रहे श्री विजय किशोर जी ने पुरातत्व की महीन दृष्टि से मेरे विचार जानने की मुराद के साथ मुझे भी बोलने के लिए आमंत्रित किया। जोशी जी की तरह संस्कृत और साहित्य में अपनी तो कोई पकड़ तो है नहीं, इसलिए मेरे व्यक्तत्व से उनकी मुराद कहाँ पूरी हुई होगी। तब तक त्रिपाठी जी के बारे में जितनी जानकारी जुटा पाया था उसके बल पर कुछ कह पाना मेरे बूते की बात कहाँ, मोटे तौर पर इतना ही बोल पाया कि -
'पुरातात्त्विक सर्वेक्षणों और उत्खननों में उपनिषद के तत्व तो मिलते नहीं। हाँ, कैम्प में, प्रकृति के सानिध्य में खुले आसमान के नीचे जीवन के बारे में सोचने का अवसर जरूर मिलता है। त्रिपाठी जी ने शिक्षा, संस्कृति और दर्शन जैसे विषयों के ज्ञान और संस्कार को प्रारम्भ से ही अपने जीवन पर लागू किया, तभी वे आयकर अधिकारी जैसे पद पर नामित होने के बाद भी उसे नकार सके। वकालत से संन्यास लेने के बाद जीवन भर के अनुभव और मनन के आधार पर उपनिषद रहस्य की रचना की। नए ज़माने और नयी पीढ़ी यदि शिक्षा के साथ ही इन विषयों और उनके द्वारा रचित 'उपनिषद रहस्य' को अपने परिप्रेक्ष्य में, आज के प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए, नए सिरे से अपने उपनिषद लिख सके इसी में आज भी उनकी उपादेयता होगी।'
जीवन में धन-ज्ञान-कीर्ति आदि की सीमाएं समझने, पेशे में ईमानदारी और नैतिक मूल्यों को जगाए रखने के लिए पण्डित चन्द्रबली त्रिपाठी के व्यक्तित्त्व और कृतित्व के बारे में बस्ती जिले, प्रदेश और देश के ही नहीं समस्त विश्व को अधिक से अधिक जानना चाहिए। हमारा दुर्भाग्य जो हम उनके बारे में इतना कम जानते हैं और उनकी अमर कृति 'उपनिषद रहस्य' के दो खण्ड आज भी अप्रकाशित रह गए हैं। और, मेरा परम सौभाग्य कि ऐसी महान विभूति के विषय में चर्चा और ज्ञानलाभ का सुअवसर पा सका। इसके लिए चन्द्रभाल चाचा जी और 'हिंदी अकादमी, दिल्ली के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना मात्र औपचारिकता भर होगी। 
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1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 13 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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