Sunday, July 8, 2018

मौसम और वक्त - बड़े बेगाने

अप्रैल 1977
अफ़ग़ानिस्तान 6.6: मौसम और वक्त - बड़े बेगाने
(खत का आखिरी सफा)
फिर से बादल बरसने लगते इसके पहले ही हमने पघमान का एक फेरा लगा लेना बेहतर समझा। सामने नज़र आ रहे करीने से सँवारे गए बाग़ के साथ विलायती अंदाज़ में बना ऊंचे गेट, के आगे फीर (सनोबर; देवदार), पॉपुलर और अखरोट के दरख्त। सामने ऊपर उठती वादी, उससे ऊपर ऊंचे पहाड़। बाएं बाज़ू हरहराता हुआ नीचे उतरता दरया-इ-पघमान।
दरअसल हिन्दूकुश की छाँव में इस नायाब मुकाम पर पहलम पहल बसा एक छोटा सा गाँव सदियों तक अपने ही पुरसुकून माहौल में जीता रहा। यहाँ की असल आबादी में शामिल रहे ज्यादा पश्तून और उनसे कुछ कम तादाद में ताज़िक मूल के बासिन्दे। फिर, युरोपियन तांबे दारी या तहज़ीब के असर से उनकी नक़ल का जो दौर चला उससे यह मुल्क भी अछूता नहीं रह पाया। भले ही जंग के मैदान में अफ़ग़ानियों ने अंग्रेज़ों से जमकर कटमजुज्झ किए हों, 1919 में उन्हें हारने के बाद जब उस फतह की यादगार तामीर कराने की बात आयी तो 1928 में बेग़म सहित विलायत से पलटे अमनउल्ला खान ने यह काम अपने साथ लाए विलायती हुनरमन्दों के हवाले कर दिया, जिन्होंने पेरिस के आर्च ऑफ़ विक्टरी की नक़ल करते हुए पघमान का यह दरवाज़ा तामीर कराया। इस तरह यहाँ के खांटी देशी मंज़र पर युरोपियन छाप चस्पा हो गयी। इसके बाद सैलानियों की बढ़ती आमदरफ्त के साथ यह जगह देशी विदेशी शौकीनों की सैरगाह में तब्दील होता गया।
तीन-तीन अफगानी किराया चुका कर हम अगली बस में कोटे संगी के लिए सवार हो कर जिस रास्ते से आए थे उसी पर लौट पड़े। खिड़की से बाहर साथ साथ बेतहाशा उतरते दरया की रवानी पर नज़र गड़ाए खामोश अपने आप में डूबते ही तुम्हारी याद आने लगी।
अफ़ग़ानिस्तान में पघमान जैसी हरी-भरी वादियां और खलभलाते पानी वाले दरया गिनती के और कम दरमियानी ही हैं। जितनी दूर बहता है खूबसूरती बिखेरता हुआ दरया-इ-पघमान नीचे उतर कर काबुल-दरया में समा जाता है।
शर्मा जी और संधू से तुसी-मुसी करते और चुहलबाज़ी में मस्त श्याम जी ने बातो बातों में पता पा लिया अमृतसर से काबुल आने वाली उड़ानों में पंजाब और हिन्द के दूसरे सूबों से आने वाली ठसम-ठस सवारियों का सबब। सबका एक ही मकसद होता है - परदेश जा कर पैसा कमाना। अफ़ग़ानिस्तान का वीसा तो हवाई अड्डे पर उतरते ही फौरी हासिल हो जाता है लेकिन आगे ईरान और पश्चिम एशियाई देशों की गाडी अटक जाती है। अपने यहाँ के कुछ एजेंट पैसे वसूल कर नौकरी के लालच में फंसा कर यहां तक तो ले आते हैं उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर रफू चक्कर होने के लिए। कोई कोई तो आगे के जाली वीसा भी थमा देते हैं। इसके बाद इन्हें अपनी समझ, बलबूते और स्थानीय हिन्दुओं और सिखों, मंदिर-गुरुद्वारों के सहारे ही आगे का रास्ता बनाना पड़ता है।
इस तरह यहाँ आ कर अटक कर गली-कूचों में भटकने वालों की दुर्दशा देख हमें बड़ा अफ़सोस हुआ। पैजामा, कमीज और हवाई चप्पल में भटकते ऐसे लोग आसानी से पहचाने जाते हैं। यहां के बासिन्दे - अफगानी - हिन्दू दोनों, और अपनी सफारत के लोग इन्हें शाबाशी की निगाहों से नहीं देखते। इनमें भी सबसे आसानी से पहचाने जाते हैं पग्गड़-दाढ़ी वाले सिख साहबान, इसलिए कुछ ज्यादा ही होशियार बन्दे काबुल में उतरते ही अपनी पहचान से निजात पाना बेहतर समझते हैं, संधू जी से पता चला कि वे भी उन्हीं में से एक हैं । हाँ दाढ़ी मूंछों वाले कद्दावर 'मोने' और दूसरे पठानों से मिलती जुलती शक्ल-ओ-सूरत वालों केलोकल लोगों में आसानी से खपने में देर नहीं लगती। यहाँ तक कि बढ़ी हुई दाढ़ी और उर्दू बसी लखनवी जुबां की वजह से अक्सर लोग मुझे भी पाकिस्तानी पठान समझने की गलती कर बैठते हैं।
नीचे कोटे संगी का मौसम पघमान घाटी से उलट गरम और खिली हुई धूप और उधर ऊपर के पहाड़ सफ़ेद लिहाफ जैसी ताज़ा गिरी बरफ की परत से ढके दीखते। यह मौसम और वक्त भी बड़े बेगाने हैं। जब तक दिलकश वादियों में मन रमा, बरफीली बारिश का दौर चल पड़ा, और जब वहाँ से दूर आ गया तो अपने सलोने सुनहले रूप दिखला कर पास बुला रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे यहाँ आने के फेर और बदलते हालात में तेरे पास इत्मीनान से बैठ न सका, और दूर आ कर फिर से मिलने के मनसूबे बाँध रहा हूँ। देखते हैं फिर कब वैसा ही वक्त मिलता है।
काबुल से कहीं बाहर निकलने की सोच रहा हूँ। श्याम जी यहीं काबुल में रहेंगे, उन्हें ज्यादा कूद फांद में दिलचस्पी नहीं इसलिए अकेले जी जाऊंगा। जहां कभी भी गया, अगला खत वहां से लिखूंगा। बहुत रात निकल चुकी है यह खत यहीं ख़त्म करता हूँ। इसके साथ पघमान का एक ग्रीटिंग कार्ड भी है। कल एम्बेसी के डाक वाले थैले से भेजने का जुगाड़ बैठाएंगे। उम्मीद है तुम तक जल्दी पहुंच जाएगा। मिलने पर अपना हाल लिख भेजना। इन्तिज़ार रहेगा।
आगे जहां कभी भी जाऊंगा, अगला खत वहां से लिखूंगा।
हमेशा तेरा
------------
(पहला खत पूरा हुआ )
फोटो : 1. ग्रीटिंग कार्ड से
२. source: http//www.worldbanknotescoins.com/2015/06/afghanistan-20-afghanis-banknote-1977
३. A street scene in downtown Kabul, 1977. Credit Bill Borders/ The New York Times

No comments:

Post a Comment