Saturday, July 15, 2017

हौले से

हौले से
कारवां बावरे बादरों का चला है,
उड़ के अटरिया पे अटका हुआ है।
रूखी हवाओं में तप कर उठा है,
दर-दर में यूं ही भटकता रहा है।
वनों प्रांतरों में खमसता रहा है
घनेरी घटाओं में घुमड़ा हुआ है।
धड़कता बहकता धुंआया हुआ ये,
रह-रह के जब-तब बरसता रहा है।
चुपके से आँगन में हेला हुआ है,
सिहरन जगा कर के खेला किया है,
सपनों की अलकों में छुपता छुपाता,
उनीदी सी आँखों में पसरा हुआ है।
कहना है क्या कुछ नहीं बोलता है,
हौले से पलकों को चूमा किया है।
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